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चंदा बाबू की आंखें ढूंढ़ रही हैं जस्टिस को...

    • अभिरंजन कुमार
    • Updated: 11 सितम्बर, 2016 04:30 PM
  • 11 सितम्बर, 2016 04:30 PM
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आज शहाबुद्दीन को जमानत दी है, कल बरी भी कर देना, मेरी बला से. लेकिन उस बूढ़े चंद्रकेश्वर बाबू उर्फ़ चंदा बाबू को इंसाफ़ कैसे दिलाओगे, जिसके तीन बेटों की हत्या हो चुकी है? उस बूढ़े बाप के उन तीन जवान बेटों का कोई तो कातिल होगा?

बताइए तो एक शरीफ आदमी को इतने-इतने साल जेल में रखना कहां तक मुनासिब है? जिन लोगों ने भी शहाबुद्दीन साहब की जमानत और रिहाई का रास्ता प्रशस्त किया, वे तमाम लोग संयुक्त रूप से अगले भारत रत्न के हकदार हैं. इनमे मैं जमानत देने वाले उन जज साहब, कोर्ट में खड़े होने वाले वकील और मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी की भी पैरवी कर रहा हूं. न्याय का माथा ऊंचा करने में जिनके उल्लेखनीय योगदान की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा!

मुझे हमेशा हैरानी होती है कि हमारे यहां कोई ज़िम्मेदारी तय ही नहीं है. जिस मामले में जिन सबूतों की बुनियाद पर निचली अदालत में कोई व्यक्ति गुनहगार साबित हो जाता है, उसी मामले में उन्हीं सबूतों के रहते ऊपरी अदालत में वह व्यक्ति साफ बरी हो जाता है (शहाबुद्दीन के मामले में फिलहाल सिर्फ़ जमानत हुई है, जिसके फलस्वरूप, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1300 गाड़ियों का काफिला निकला है). इसी तरह कई मामलों में निचली अदालत में जो लोग जिन सबूतों के आधार पर बरी हो जाते हैं, ऊपरी अदालत में उन्हीं सबूतों के आधार पर उन्हें सज़ा सुना दी जाती है.

इसका एक सीधा मतलब तो मुझे यह समझ आता है कि जिन मामलों में निचली और ऊपरी अदालतों के फैसले बिल्कुल विपरीत होते हैं, उन मामलों में किसी एक जगह तो गड़बड़ी होती ही है. लेकिन हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इस गड़बड़ी की जांच-पड़ताल करने और ज़िम्मेदारी तय करने की संभवतः कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है.

कोई शहाबुद्दीन जेल में है कि बाहर है- जितनी चिंता मुझे इस बात से नहीं होती, उससे अधिक चिंता इस बात से होती है कि देश के ग़रीबों-गुरबों, कमज़ोरों और वंचितों का भरोसा इस देश की न्यायपालिका पर टिका रहता है कि नहीं.

मैं हैरान होता हूं कि कोई भी अदालत सबूत होने या न होने की आड़ में बिल्कुल एकतरफा फैसले कैसे सुना सकती है? आज शहाबुद्दीन को जमानत दी है, कल बरी भी कर देना, मेरी बला से. लेकिन उस बूढ़े चंद्रकेश्वर बाबू उर्फ़ चंदा बाबू को इंसाफ़ कैसे दिलाओगे, जिसके तीन बेटों की हत्या हो चुकी है? उस बूढ़े...

बताइए तो एक शरीफ आदमी को इतने-इतने साल जेल में रखना कहां तक मुनासिब है? जिन लोगों ने भी शहाबुद्दीन साहब की जमानत और रिहाई का रास्ता प्रशस्त किया, वे तमाम लोग संयुक्त रूप से अगले भारत रत्न के हकदार हैं. इनमे मैं जमानत देने वाले उन जज साहब, कोर्ट में खड़े होने वाले वकील और मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी की भी पैरवी कर रहा हूं. न्याय का माथा ऊंचा करने में जिनके उल्लेखनीय योगदान की कोई चर्चा ही नहीं कर रहा!

मुझे हमेशा हैरानी होती है कि हमारे यहां कोई ज़िम्मेदारी तय ही नहीं है. जिस मामले में जिन सबूतों की बुनियाद पर निचली अदालत में कोई व्यक्ति गुनहगार साबित हो जाता है, उसी मामले में उन्हीं सबूतों के रहते ऊपरी अदालत में वह व्यक्ति साफ बरी हो जाता है (शहाबुद्दीन के मामले में फिलहाल सिर्फ़ जमानत हुई है, जिसके फलस्वरूप, मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, 1300 गाड़ियों का काफिला निकला है). इसी तरह कई मामलों में निचली अदालत में जो लोग जिन सबूतों के आधार पर बरी हो जाते हैं, ऊपरी अदालत में उन्हीं सबूतों के आधार पर उन्हें सज़ा सुना दी जाती है.

इसका एक सीधा मतलब तो मुझे यह समझ आता है कि जिन मामलों में निचली और ऊपरी अदालतों के फैसले बिल्कुल विपरीत होते हैं, उन मामलों में किसी एक जगह तो गड़बड़ी होती ही है. लेकिन हमारी न्यायिक प्रक्रिया में इस गड़बड़ी की जांच-पड़ताल करने और ज़िम्मेदारी तय करने की संभवतः कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है.

कोई शहाबुद्दीन जेल में है कि बाहर है- जितनी चिंता मुझे इस बात से नहीं होती, उससे अधिक चिंता इस बात से होती है कि देश के ग़रीबों-गुरबों, कमज़ोरों और वंचितों का भरोसा इस देश की न्यायपालिका पर टिका रहता है कि नहीं.

मैं हैरान होता हूं कि कोई भी अदालत सबूत होने या न होने की आड़ में बिल्कुल एकतरफा फैसले कैसे सुना सकती है? आज शहाबुद्दीन को जमानत दी है, कल बरी भी कर देना, मेरी बला से. लेकिन उस बूढ़े चंद्रकेश्वर बाबू उर्फ़ चंदा बाबू को इंसाफ़ कैसे दिलाओगे, जिसके तीन बेटों की हत्या हो चुकी है? उस बूढ़े बाप के उन तीन जवान बेटों का कोई तो कातिल होगा? उसको कब सज़ा दोगे? जब वह बाप भी लड़ते-लड़ते मर जाएगा या मार दिया जाएगा- तब? या उसके बाद भी नहीं दोगे?

 चंदा बाबू को न्याय कब मिलेगा (फोटो क्रेडिट- आउटलुक)

ऐसे सवाल अक्सर हत्याकांडों और नरसंहारों के फैसलों के बाद उठते रहते हैं. लेकिन हमारी सरकारों, जांच एजेंसियों, जजों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती. इसी बिहार में बथानी टोला, शंकर बिगहा, लक्ष्मणपुर बाथे इत्यादि भीषण नरसंहारों के मामलों में भी सबूतों के अभाव में सभी आरोपी बरी कर दिए गए थे. लेकिन हमारे न्यायाधीशों ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि अगर बरी किए गए लोगों ने हत्याएं नहीं कीं, तो गुनहगार कौन थे और कब एवं कौन उन्हें पकड़ेगा और सज़ा सुनाएगा.

इन हत्याकांडों की ढीली जांच और इंसाफ़ का गला घोंटने के लिए भी किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं की गई.

इस देश का एक ज़िम्मेदार नागरिक होने के नाते देश की अदालतों से मेरी यह अपेक्षा है कि जब कभी उनके सामने ऐसे मामले आते हों, जिनमें एक पक्ष काफी ताकतवर और दूसरा पक्ष तुलनात्मक रूप से बेहद कमज़ोर हो, तो वह अधिक सक्रियता, संवेदनशीलता और दिलचस्पी दिखाते हुए सरकारों और जांच एजेंसियों को निष्पक्ष, प्रभावी और त्वरित जांच करने के लिए बाध्य करें.

यह भी पढ़ें- शहाबुद्दीन के जेल से बाहर आने के मायने....

हमारी अदालतें फिल्मों जैसी नहीं होनी चाहिए, जिनमें इंसाफ़ की देवी की आंखों पर काली पट्टी बंधी रहती है. हमारी अदालतों में बुद्धि, विवेक, संवेदनशीलता, दया और ममता का समावेश होना चाहिए. हमारी अदालतें अधिक मानवीय होनी चाहिए.

चीफ जस्टिस साहब, आंसू बहाने से काम नहीं चलेगा. न सियासी लोगों के भाषणों की राजनीतिक व्याख्या करने से काम चलेगा. न्याय-व्यवस्था को ठीक करने के लिए क्या इलाज है आपके पास? कभी इसका खाका भी रखिए देश की जनता के सामने. कभी उन आंखों में भी देखिए उतरकर, जिनके आंसू सूख चुके हैं. फिलहाल चंद्र बाबू की आंखें आपको ढूंढ रही हैं. क्या आप इंतज़ार करेंगे कि वे आप तक पहुंचें या आप स्वयं भी उन तक पहुंच सकते हैं?

इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.

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