जलाना दुनिया का सबसे प्रिय खेल बन गया है. एक समय ऐसा था जब लोग आग से डरते थे. एक चिंगारी लोगों को तब डरा देती थी जब उसी छोटी सी चिंगारी से बस्तियां जल कर खाक हो जाया करती थीं. मगर आज जला देना एक शगल बन गया है. ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि इंसान के जान की कीमत अब मिट्टी के भाव से भी कम हो गई है. हम हर रोज़ इतने लोगों को मरते देख रहे हैं कि किसी का मरना या किसी को मारना अब आम हो गया है. घर चाहे अपना हो या फिर दूसरे का लोगों को बस जलाने में मज़ा आता है. लेकिन वे भूल जाते हैं कि आग कभी किसी की सहोदर नहीं रही घूम फिर के इसे अपने घर तक पहुंचना ही है. अगर दुनिया के शांतिप्रिय देशों की बात की जाए तो स्वीडन (Sweden) का नाम प्रमुखता से लिया जाता रहा है लेकिन शुक्रवार को इस शांत देश का एक हिस्सा आग की लपटों से घिर हुआ दिखा. इन आग की लपटों में सिर्फ इस देश का एक शहर नहीं जला बल्कि उसके साथ ही जला है वो विश्वास जिसके सहारे यहां के कुछ लोगों ने शरणार्थियों (The Refugees) का पक्ष लेते हुए उन्हें यहां शरण देने के लिए एक लड़ाई लड़ी थी.
स्वीडन के मालमो शहर से उठता धुएं का गुबार इस बात की गवाही दे रहा था कि भले ही कोई आपके घर के बाहर दम तोड़ रहा हो मगर आप उसकी तरफ मदद का हाथ नहीं बढ़ाएंगे और ना ही उसके लिए अपने घर का दरवाज़ा खोलेंगे. दंगों की इस आग के बाद क्या अब कोई देश किसी दूसरे देश के बेसहारा लोगों को सहारा देने की हिम्मत करेगा? बेसहारा लोगों को अपने रहने की चिंता होती है, रोटी की चिंता होती है, बच्चों के भविष्य की चिंता होती है. वे इस तरह से जलने और जलाने में यकीन कैसे रख सकते हैं?
कैसे उस हाथ पर वार कर सकते हैं जिसने पपड़ी पड़े होंठों पर पानी का प्याला और...
जलाना दुनिया का सबसे प्रिय खेल बन गया है. एक समय ऐसा था जब लोग आग से डरते थे. एक चिंगारी लोगों को तब डरा देती थी जब उसी छोटी सी चिंगारी से बस्तियां जल कर खाक हो जाया करती थीं. मगर आज जला देना एक शगल बन गया है. ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि इंसान के जान की कीमत अब मिट्टी के भाव से भी कम हो गई है. हम हर रोज़ इतने लोगों को मरते देख रहे हैं कि किसी का मरना या किसी को मारना अब आम हो गया है. घर चाहे अपना हो या फिर दूसरे का लोगों को बस जलाने में मज़ा आता है. लेकिन वे भूल जाते हैं कि आग कभी किसी की सहोदर नहीं रही घूम फिर के इसे अपने घर तक पहुंचना ही है. अगर दुनिया के शांतिप्रिय देशों की बात की जाए तो स्वीडन (Sweden) का नाम प्रमुखता से लिया जाता रहा है लेकिन शुक्रवार को इस शांत देश का एक हिस्सा आग की लपटों से घिर हुआ दिखा. इन आग की लपटों में सिर्फ इस देश का एक शहर नहीं जला बल्कि उसके साथ ही जला है वो विश्वास जिसके सहारे यहां के कुछ लोगों ने शरणार्थियों (The Refugees) का पक्ष लेते हुए उन्हें यहां शरण देने के लिए एक लड़ाई लड़ी थी.
स्वीडन के मालमो शहर से उठता धुएं का गुबार इस बात की गवाही दे रहा था कि भले ही कोई आपके घर के बाहर दम तोड़ रहा हो मगर आप उसकी तरफ मदद का हाथ नहीं बढ़ाएंगे और ना ही उसके लिए अपने घर का दरवाज़ा खोलेंगे. दंगों की इस आग के बाद क्या अब कोई देश किसी दूसरे देश के बेसहारा लोगों को सहारा देने की हिम्मत करेगा? बेसहारा लोगों को अपने रहने की चिंता होती है, रोटी की चिंता होती है, बच्चों के भविष्य की चिंता होती है. वे इस तरह से जलने और जलाने में यकीन कैसे रख सकते हैं?
कैसे उस हाथ पर वार कर सकते हैं जिसने पपड़ी पड़े होंठों पर पानी का प्याला और भूखे पेट को अन्न खिलाया? ये कोई और हैं, ये वो हैं जिन्हें किसी की परवाह नहीं. ये वो हैं जिनके लिए धर्म वो चोला है जिसे ओढ़ कर ये अपना हर गुनाह छुपा लेते हैं. ईश्वर या अल्लाह जिसे भी आप मानते हैं, जिसे दुनिया का मसीहा, दुनिया का रचयिता बताते हैं क्या वो इतना असहाय हो चुका है कि अपने खिलाफ बोलने वालों का मन ना बदल सके?
उस शक्ति को कब से आपकी ज़रूरत पड़ गई? उसने आपसे कब कहा कि जो मेरे खिलाफ बोले उसका घर जला दो ? उसे मौत के घाट उतार दो ? ये आप अपने शौक के लिए कर रहे हैं. ये आग आपको सुहाती है, किसी को जलते देखना आपको पसंद है.
अगर आप ये मान लेते हैं तो मानवता पर आपका ये बहुत बड़ा उपकार होगा. दुनिया पहचान पाएगी कि कोई भी धर्म हिंसा का पाठ नहीं पढ़ाता बल्कि इंसान अपने झूठे सुख के लिए ये सब कर रहा है. जिस समय सीरिया जल रहा था उस समय वे तमाम देश कहां थे जो आज कुरान की प्रतियां जलाए जाने पर घोर निंदा और दंगों का समर्थन कर रहे हैं ? उन्होंने शरणार्थियों को आसरा क्यों नहीं दिया? क्यों उन्हें यूरोप की तरफ धकेल दिया गया. और आज जब यूरोप ने इन्हें सहारा दिया तो सबसे पहले यहां के शांतिप्रिय देशों को ही जलाया जाने लगा.
बहस करते समय गांधी सबके प्रिय हो जाते हैं लेकिन बात जब उनके विचारों को ज़मीन पर उतारने की होती है तो लोग सबसे पहले उनके ही सिद्धांतों को जलाते हैं. अगर जलाने वालों ने अपना विरोध शांति से रखा होता तो आज शायद दुनिया के एक तिहाई लोग उनके समर्थन में खड़े होते लेकिन ऐसा नहीं हुआ. नतीजा ये निकल रहा है कि आग के बदले अब आग बरस रही है. स्वीडन में लगी आग नॉर्वे तक पहुंची है आगे ना जाने कहां कहां तक पहुंचे.
इस आग पर आपकी रोटी नहीं पकेगी, आप भूखे पेट लड़ेंगे, इसमें आपके घर जलेंगे और उन जलते हुए घरों पर अन्य देश तथा राजनीतिक पार्टियां गोश्त भून कर खाएंगी. और इसका सबसे बड़ा नुक्सान उन्हें होगा जिन्हें अभी भी मदद चाहिए. मदद के हाथ बढ़ाने वाले हर शख्स के ज़हन में पहले इस आग से उठता धुआं घूमेगा.
जिन्होंने जलाने का समर्थन किया उन्होंने हर बार मानवता के एक हिस्से को जलाया है. आप चाहे अपना भविष्य रौशन करें या फिर आग लगाएं, रौशनी दोनों से पैदा होगी मगर आग वाली रौशनी कुछ ही देर में राख के ढेर और घने अंधेरे में बदल जाएगी. आप तय करिए कि आपको क्या चाहिए, भविष्य का उजाला या जलती हुई दुनिया?
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