पिछले कुछ समय से तबरेज़ अंसारी का नाम मीडिया में छाया हुआ है. बेहद दुखद घटना थी कि मोटरसाइकल चोरी के आरोप में तबरेज़ को भीड़ ने घंटों तक पीटा. 24 साल का तबरेज़ घटना के चार दिन बाद 22 जून को उसकी मृत्यु हो गई. भीड़ ने पीटते समय उससे 'जय श्री राम', 'जय हनुमान' के नारे लगाने को कहा था. इस घटना ने तूल पकड़ा और एक बार फिर मॉब लिंचिंग की बातें सामने आने लगीं. मीडिया, सोशल मीडिया, गली-चौराहे पर एक बार फिर से पहलू खान, मोहम्मद अखलाख और मॉब लिंचिंग की खबरें साझा होने लगीं. तबरेज़ अंसारी पर हमला करने वालों पर 302 (हत्या) और 295A (जानबूझ कर धार्मिक भावनाएं आहत करने और उसके खिलाफ हरकत करने) को लेकर धाराएं लगाई गई हैं. जहां एक ओर तबरेज़ अंसारी को लेकर विवाद गहराता जा रहा है वहीं ट्विटर पर #BharatYadav ट्रेंड करने लगा है. भरत यादव मथुरा का वो लस्सी बेचने वाला था जिसे मुस्लिम भीड़ ने एक छोटे से विवाद के चलते मार डाला था.
क्या है Bharat Yadav की कहानी-
18 मई को मथुरा की लस्सी की दुकान पर एक छोटा सा विवाद होता है. भरत यादव और एक बुर्का पहने हुए महिला के बीच. महिला मुस्लिम भीड़ को इकट्ठा कर लेती है. गुस्साई भीड़ लस्सी की दुकान वालों को पीटना शुरू कर देती है और उन्हें 'काफिर' कहती है. पंकज यादव और भरत यादव जो दो भाई उस समय इस दुकान में थे उन्हें काफी चोट आती है. हालांकि, उन्हें उपचार के लिए ले जाया गया था, लेकिन भरत यादव एक हफ्ते बाद अंदरूनी चोट के चलते मर गए. उनकी मृत्यु 24 मई को हुई थी. पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट के अनुसार भरत यादव के दिमाग की नसों में हमले के वक्त काफी चोट आई थी इसके कारण उनकी मृत्यु हुई.
पंकज यादव ने इस मामले के बाद दो मुख्य आरोपियों की पहचान की थी वो थे हनीफ और शाहरुख. जिन लोगों ने ये हमला किया था उनके खिलाफ धारा 395 (डकैती) के आधार पर मुकदमा दर्ज किया गया जिसमें उनके द्वारा की गई हिंसा का कोई जिक्र नहीं था. इसमें तो धारा 295A का मामला भी नहीं था जहां भरत यादव को 'काफिर' कहा गया था.
(बाएं) तबरेज़ अंसारी के घर वाले, (दाएं) भरत यादव के घर वाले.
ऐसा ही एक मामला उत्तरप्रदेश के दिलारी में हुआ जहां 19 जून को 54 साल के गंगाराम की हत्या कर दी गई. उसे भी मुस्लिम भीड़ ने मारा. गंगाराम पुलिस स्टेशन पर अपनी बेटी के अपहरण की शिकायत दर्ज करवाने गया था.
यहां हमें अंकित सक्सैना का मामला नहीं भूलना चाहिए. 1 फरवरी 2018 को दिल्ली के अंकित सक्सैना को मार डाला गया था. बीच चौराहे उसका गला काट दिया गया था क्योंकि वो एक मुस्लिम लड़की से प्यार करता था. 23 साल का अंकित अपने घर वालों का एकलौता लड़का था. उसके बाद अंकित के पिता ने इस साल इफ्तार की व्यवस्था भी की थी. अंकित के घरवालों ने बिलकुल भी इस मामले को सांप्रदायिक रंग नहीं दिया.
सोशल मीडिया का सवाल.. किसी Hindu Lynching पर क्यों नहीं होता बवाल?
जहां एक ओर तबरेज़, मोहम्मद अखलाख, पहलू खान की मौत पर बाकायदा डिबेट होती है, सोशल मीडिया पर मुस्लिमों के खिलाफ होने वाले अपराधों को गिनवाया जाता है. वहां इतना सिलेक्टिव विरोध क्यों?
ट्विटर का ये सवाल एक तीखा प्रहार भी है. क्या वाकई भारत में अब सब कुछ मतलब से होने लगा है? क्या सेक्युलर होना सिर्फ हिंदुओं को सिखाया जाता है? जो भी घटनाएं हुईं वो गलत थी. चाहें वो हिंदू ने की या मुस्लिम की तरफ से हुई या ऐसी कोई घटना किसी और धर्म की तरफ से होती है तो भी वो गलत ही रहेगी.
Selective Outrage का मसला भारत में काफी समय से चला आ रहा है और इसे लेकर पहले भी काफी बहस हो चुकी है. जब तक इस तरह का सिलेक्टिव आउटरेज चलता रहेगा तब तक इस तरह की घटनाओं का होना चलता रहेगा.
सुबह से ट्विटर पर भरत यादव के ट्रेंड होने का भी यही कारण है. ये ट्रेंड एक तरह से सही भी है और एक तरह से गलत भी.
क्यों ये ट्रेंड गलत है?
यहां भी मामले को सांप्रदायिक रंग दिया जा रहा है. हिंदुओं के मामले पर कवरेज की मांग की जा रही है. दोनों ही पक्षों के लोग ये नहीं देख रहे कि दोनों ही तरफ लोगों की हत्या हुई है और अगर इन्हें रोका न गया तो ये चलता रहेगा. कुछ ट्वीट्स इतनी ज्यादा सांप्रदायिक हैं कि उन्हें इस आर्टिकल का हिस्सा भी नहीं बनाया जा सकता. यहां लोग एक दूसरे से लड़ रहे हैं धर्म को लेकर.
क्यों ये ट्रेंड सही है?
ये एक बहुत बड़ी बहस का हिस्सा है और ये बिलकुल सही है कि अगर तबरेज़ को लेकर लोग दुखी हो रहे हैं तो उन्हें भरत यादव को लेकर भी दुखी होना चाहिए. दोनों ही मामलों में दो लोगों की जान गई है. अगर तबरेज़ को 'जय श्री राम' बोलने को कहा गया तो भरत यादव को भी 'काफिर' कहा गया. ये दोनों ही मामले एक ही जैसे थे. गलती किसकी, किसे दोष दिया जाए? भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, लेकिन इन सब मामलों में कम से कम मरने वालों के लिए एक समान दुखी तो हुआ जा सकता है. भरत यादव ने भी एक तरह से अपना काम ही किया था, लेकिन उसे किस बात की सज़ा मिली?
मृत्यु चाहे जिस भी पक्ष के इंसान की हो हमला करने वाली तो भीड़ ही होती है. क्यों नहीं ये कहा जा सकता कि इन मामलों में मरने वाले इंसान थे. हिंदू-मुस्लिम रंग जब तक ऐसे मामलों को दिया जाता रहेगा तब तक ऐसे किस्से बढ़ते रहेंगे. ये सोचने वाली बात है कि क्या वाकई हम इसे रोकने के लिए प्रयास कर रहे हैं या फिर इस तरह से मुद्दों से अपना गुस्सा बढ़ा रहे हैं और नफरत पैदा कर रहे हैं?
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