आज तनिष्क के वीडियो पर 'सेक्युलरों' की प्रतिक्रिया देखी. तनिष्क ने तो अपनी गलती मान ली है, और अपना ऐड हटा लिया है, पर सोशल मीडिया के 'सेक्युलर' अभी भी मोर्चा लिए हुए हैं. पूछ रहे हैं कि,' आखिर दिक्कत क्या है इस ऐड में? कितना सुंदर ऐड था!' मैं पूरी बेशर्मी से कहूंगा कि भारतीय 'सेक्युलर' भीड़ से अलग दिखने की इच्छा रखने वालों की भीड़ हैं. और इस बात में दो राय नहीं है कि सेक्युलर शब्द को हिन्दू-विरोधी भाव देने का श्रेय इन्हीं लोगों को जाता है. गांव-देहात की औरतें कभी-कभी बच्चों के झगड़ों में खुद को उदार साबित करने के लिए अक्सर अपने बच्चों को गलती न होने पर भी पीट देती हैं. हर बार ये दबाव में ही नहीं होता. कभी-कभी इसका उद्देश्य संयुक्त परिवारों में रणनीतिक बढ़त पाना भी होता है, ताकि समय आने पर अपनी इस उदार छवि का लाभ लिया जा सके. भारतीय व्यवस्था में यही दशा स्वघोषित सेकुलरों की है. लोग रिया चक्रवर्ती की पड़ोसन की तरह हैं, जो बस एक बार माइक पर बोलने और लाइम लाइट में आने के लिए पूरी जांच को ग़ुमराह कर सकते हैं.
ये आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे लोग हैं, जिनका एक मात्र उद्देश्य चर्चा में बने रहना है. जबकि सच ये है कि इन्हें सेक्युलरिज़्म से कोई लेना-देना नहीं है.
अब मेरी बात ध्यान से समझिये.
ये लोग अल्पसंख्यकों की तरफ से देश की बहुसंख्यक आबादी को चिढा रहे हैं, और सच ये है कि अल्पसंख्यकों की तरफ से देश की बहुसंख्यक आबादी को चिढ़ाने वाले लोग अल्पसंख्यकों के हितैषी हो ही नहीं सकते. हिन्दू चरमपंथ का पोषण यही लोग कर रहे हैं. अल्पसंख्यकों के असली दुश्मन यही लोग हैं. इनका उद्देश्य कुल मिलाकर चर्चा में बने रहने से अतिरिक्त और कुछ भी...
आज तनिष्क के वीडियो पर 'सेक्युलरों' की प्रतिक्रिया देखी. तनिष्क ने तो अपनी गलती मान ली है, और अपना ऐड हटा लिया है, पर सोशल मीडिया के 'सेक्युलर' अभी भी मोर्चा लिए हुए हैं. पूछ रहे हैं कि,' आखिर दिक्कत क्या है इस ऐड में? कितना सुंदर ऐड था!' मैं पूरी बेशर्मी से कहूंगा कि भारतीय 'सेक्युलर' भीड़ से अलग दिखने की इच्छा रखने वालों की भीड़ हैं. और इस बात में दो राय नहीं है कि सेक्युलर शब्द को हिन्दू-विरोधी भाव देने का श्रेय इन्हीं लोगों को जाता है. गांव-देहात की औरतें कभी-कभी बच्चों के झगड़ों में खुद को उदार साबित करने के लिए अक्सर अपने बच्चों को गलती न होने पर भी पीट देती हैं. हर बार ये दबाव में ही नहीं होता. कभी-कभी इसका उद्देश्य संयुक्त परिवारों में रणनीतिक बढ़त पाना भी होता है, ताकि समय आने पर अपनी इस उदार छवि का लाभ लिया जा सके. भारतीय व्यवस्था में यही दशा स्वघोषित सेकुलरों की है. लोग रिया चक्रवर्ती की पड़ोसन की तरह हैं, जो बस एक बार माइक पर बोलने और लाइम लाइट में आने के लिए पूरी जांच को ग़ुमराह कर सकते हैं.
ये आइडेंटिटी क्राइसिस से जूझ रहे लोग हैं, जिनका एक मात्र उद्देश्य चर्चा में बने रहना है. जबकि सच ये है कि इन्हें सेक्युलरिज़्म से कोई लेना-देना नहीं है.
अब मेरी बात ध्यान से समझिये.
ये लोग अल्पसंख्यकों की तरफ से देश की बहुसंख्यक आबादी को चिढा रहे हैं, और सच ये है कि अल्पसंख्यकों की तरफ से देश की बहुसंख्यक आबादी को चिढ़ाने वाले लोग अल्पसंख्यकों के हितैषी हो ही नहीं सकते. हिन्दू चरमपंथ का पोषण यही लोग कर रहे हैं. अल्पसंख्यकों के असली दुश्मन यही लोग हैं. इनका उद्देश्य कुल मिलाकर चर्चा में बने रहने से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है.
इनके कुतर्क का आलम ये है कि अपने नए शिगूफे के तहत ये लोग तनिष्क का बॉयकाट करने वालों को ये कहकर हतोत्साहित कर रहे हैं कि तनिष्क का बॉयकाट करने के लिए तनिष्क से सोना खरीदने की औकात होनी चाहिए. उनके इस तर्क का एक आशय ये भी है कि बोफोर्स, राफेल और बोइंग विमानों की खरीद पर टिप्पणी सिर्फ वही करेंगे जिनके पास इन्हें खरीदने की औकात होगी.
मैं हिन्दू हूं, पर मेरा हिंदुत्त्व बीजेपी एडिशन वाला नहीं है. मैं सेक्युलर हूं, पर सेक्युलरिज़्म की मेरी समझ यौन उन्मुक्तता के विमर्श में रस लेने वालों की सोहबत का परिणाम नहीं है. सेक्युलरिज़्म की मेरी समझ संविधान पढ़कर विकसित हुई है. किसी भी दशा में भारत का संविधान देश की बहुसंख्यक आबादी की भावनाओं की कीमत पर सौहार्द फैलाने की असफल रणनीति का हिमायती नहीं हो सकता.
मैं कोई 'साढ़े छः बेडरूमों की कथा' टाइप किताब नहीं लिख रहा, और न ही मैंने कोई पेज या चैनल शुरू किया है, तो मेरी इन बौद्धिकों का लाडला बनने की कोई ख्वाहिश नहीं है. अपने तमाम विरोधों के जोखिम के बावजूद मैं कहूंगा कि अधिकांश भारतीय सेक्युलरों की साम्प्रदायिक सौहार्द बनाए रखने में कोई रूचि नहीं है. इन्हें आम भारतीय की समस्याओं से कोई समझ नहीं है, और न ही उनकी समस्याओं को सुलझाने में इनकी कोई रूचि है.
जिस तरह से अधिकांश छद्म नारीवादियों का चिंतन स्त्रैत्त्व के यौन सन्दर्भों से आगे नहीं बढ़ पाता, उसी तरह इन छद्म सेकुलरों का सेकुलरिज्म कभी अल्पसंख्यकों की आर्थिक दशाओं के सुधार या उनकी साक्षरता की चिंताओं के आस-पास भी नहीं पहुंच पाती है.
हमारी वर्तमान जरूरतें शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार से जुडी हैं, और भारत के सभी धर्मों के लोग इनकी चुनौतियों से बराबर जूझ रहे हैं. ऐसे में किसी भी तरह के तुष्टीकरण में जुटे लोग, इन मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाकर सिर्फ अपना स्वार्थ साध रहे हैं. इनसे बचने में ही समझदारी है.
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