विदेशों में कहीं लड़ाई झगड़ा, हत्या, दंगे, मारपीट जैसी घटना होती है तो फौरन पुलिस आती है मामला अदालत की शरण में जाता है अगले कुछ दिनों में मामले पर जज साहब अपना फैसला सुना देते हैं और बात खत्म. कितना सिंपल प्रोसीजर है. लेकिन हिंदुस्तान में? यहां जैसा कोर्ट का हिसाब किताब है आदमी किसी से ये कहने में कि 'See you in court' एक दो नहीं पूरे छत्तीस बार सोचता है. मतलब अगर हिंदुस्तानी आदमी सहनशील न भी हो तो अपनी भारतीय अदालतों की कार्यप्रणाली ऐसी है कि एक बार जो अदालतों के चक्कर में फंस गया वो राइट टाइम हो जाता है. कई मामले तो ऐसे भी सामने आए हैं. जिनमें वो लोग जो जमीन जायदाद के मसले के चलते अदालतों की क्षरण में आए थे, सालों तक इतना दौड़े कि एक पल वो भी आया जब सब कुछ भुलाकर दोस्त हुए.
मामले हमने वो भी देखे कि उस हत्यारोपित की मौत हो गयी जिसपर हत्या का अभियोग था मगर जिस पर अदालत अपना फैसला न सुना सकी. नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं था कि अदालत फैसला सुनाना नहीं चाहती थी. बात बस इतनी थी कि अदालत में तमाम मुकदमे लंबित पड़े थे और इसलिए इस बेचारे का नम्बर नहीं आया. इसे तारीख मिलती गयी जितनी जिंदगी थी वो कटती गई. अदालतों में तारीख वाला खेल कितना पीड़ादायक होता है गर जो कभी इसपर विचार करना हो वो फ़िल्म दामिनी याद कीजिये और साथ ही याद कीजिये फ़िल्म में सनी के उस डायलॉग'तारीख पर तारीख' को जिसने हॉल में बैठे दर्शक को ताली बजाने के लिए मजबूर किया था. इतिहास दोहराया गया है और दिल्ली की एक अदालत में उस वक़्त कोहराम बरपा हुआ जब एक व्यक्ति ने फ़िल्म दामिनी की तर्ज पर भरी कोर्ट में तरीख पर तारीख चिल्लाते हुए तोड़फोड़ शुरू कर दी. व्यक्ति के ऐसा करने से अदालत में अफरा तफरी मच गई बाद में पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित किया.
विदेशों में कहीं लड़ाई झगड़ा, हत्या, दंगे, मारपीट जैसी घटना होती है तो फौरन पुलिस आती है मामला अदालत की शरण में जाता है अगले कुछ दिनों में मामले पर जज साहब अपना फैसला सुना देते हैं और बात खत्म. कितना सिंपल प्रोसीजर है. लेकिन हिंदुस्तान में? यहां जैसा कोर्ट का हिसाब किताब है आदमी किसी से ये कहने में कि 'See you in court' एक दो नहीं पूरे छत्तीस बार सोचता है. मतलब अगर हिंदुस्तानी आदमी सहनशील न भी हो तो अपनी भारतीय अदालतों की कार्यप्रणाली ऐसी है कि एक बार जो अदालतों के चक्कर में फंस गया वो राइट टाइम हो जाता है. कई मामले तो ऐसे भी सामने आए हैं. जिनमें वो लोग जो जमीन जायदाद के मसले के चलते अदालतों की क्षरण में आए थे, सालों तक इतना दौड़े कि एक पल वो भी आया जब सब कुछ भुलाकर दोस्त हुए.
मामले हमने वो भी देखे कि उस हत्यारोपित की मौत हो गयी जिसपर हत्या का अभियोग था मगर जिस पर अदालत अपना फैसला न सुना सकी. नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं था कि अदालत फैसला सुनाना नहीं चाहती थी. बात बस इतनी थी कि अदालत में तमाम मुकदमे लंबित पड़े थे और इसलिए इस बेचारे का नम्बर नहीं आया. इसे तारीख मिलती गयी जितनी जिंदगी थी वो कटती गई. अदालतों में तारीख वाला खेल कितना पीड़ादायक होता है गर जो कभी इसपर विचार करना हो वो फ़िल्म दामिनी याद कीजिये और साथ ही याद कीजिये फ़िल्म में सनी के उस डायलॉग'तारीख पर तारीख' को जिसने हॉल में बैठे दर्शक को ताली बजाने के लिए मजबूर किया था. इतिहास दोहराया गया है और दिल्ली की एक अदालत में उस वक़्त कोहराम बरपा हुआ जब एक व्यक्ति ने फ़िल्म दामिनी की तर्ज पर भरी कोर्ट में तरीख पर तारीख चिल्लाते हुए तोड़फोड़ शुरू कर दी. व्यक्ति के ऐसा करने से अदालत में अफरा तफरी मच गई बाद में पुलिस ने स्थिति को नियंत्रित किया.
मामला दिल्ली की कड़कड़डूमा कोर्ट का है. कोर्ट रूम नंबर 66 में बार बार मिल रही तारीखों ने राजेश नाम के व्यक्ति को इस हद तक त्रस्त किया कि उसने पूरे कोर्ट रूम को फ़िल्म का सेट बना दिया और खुद को सनी देओल समझ लिया. राकेश ने फ़िल्म दामिनी में सनी द्वारा बोले गए डायलॉग 'तारीख पर तारीख' को दोहराते हुए कोर्ट रूम में रखे कंप्यूटर और फर्नीचर में तोड़ फोड़ की जिससे पूरे परिसर में हंगामा मच गया.
बार बार तारीख मिलने से राकेश कितना नाराज था? इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, फर्नीचर और कुर्सियों की तोड़ फोड़ के बाद वह कोर्ट रूम के अंदर जज के चैंबर तक पहुंच गया और उसे तोड़ दिया. जब कोर्ट रूम के कर्मचारियों ने शोर मचाया तो वहां मौजूद पुलिसकर्मियों की नींद खुली और उसने स्थिति को नियंत्रित करते हुए राकेश को तत्काल गिरफ्तार किया और फ़र्शबाजार थाने में उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज किया है.
चूंकि राकेश ने कोई हल्का काम नहीं किया था इसलिए दिल्ली पुलिस ने राकेश पर IPC की धारा 186 (किसी भी लोकसेवक को उसके सार्वजनिक कार्यों में निर्वहन में स्वेच्छा से बाधा डालने), 353, धारा 427 और 506 के तहत मामला दर्ज कर उसकी बुलंद आवाज को खामोश कर दिया है. बाद में राकेश को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया जहां से उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया गया है.
बताया जा रहा है कि दिल्ली के शास्त्री नगर के रहने वाले राकेश का केस साल 2016 से पेंडिंग है और वो इसलिए परेशान था क्यों कि हर बार कोर्ट उसे तारीख पर तारीख दे रहा था. राकेश जेल में है और सजा काट रहा है. हो सकता है समाज का एक बड़ा वर्ग इस घटना में पुलिस द्वारा लिए गए एक्शन की तारीफ करते हुए दिल्ली पुलिस की शान में कसीदे पढ़ना शुरू कर दे. या फिर ये कि लोग इस मामले में राकेश के साथ आ जाएं.
स्थिति जो भी हो लेकिन इस बात को नकारा किसी भी सूरत में नहीं जा सकता है कि भारत जैसे देश में जो भी व्यक्ति कोर्ट कचहरी के चक्कर में फंसा उसकी पुश्तें तक झेल जाती हैं. जैसी आबादी है कहना गलत नहीं है कि व्यक्ति न्याय की उम्मीद तभी करे जब वो बहुत सहनशील हो. वरना वकील, स्टाम्प, तारिख इनमें ऐसा बहुत कुछ है जो किसी आम आदमी का जीवन बर्बाद करने का पूरा सामर्थ्य रखता है.
बहरहाल क्यों कि ये मामला फ़िल्म दामिनी के एक सीन से प्रेरित है तो बताते चलें कि दामिनी में सनी का रोल एक वकील का था जो सिस्टम को लेकर निराश था. फ़िल्म में दिखाया गया था कि दूसरे पक्ष के वकील अमरीश पुरी बार बार तारीख मांगकर सुनवाई को स्थगित कर देते थे जिससे सनी बहुत खफा था.
इस मामले में भी नाराजगी का कारण बार बार तारीख तो मिलना मगर न्याय का न मिलना है. हम इस मामले में राकेश द्वारा किये गए काम को जायज नहीं ठहरा रहे हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के अलावा देश की तमाम अदालतों से हमारा बस एक सवाल है. अदालतें बताएं कि आखिर कब तक राकेश या राकेश जैसे लोगों को न्याय मिलने के लिए भटकना होगा?
क्या इस देश के आम आदमी को सिस्टम के चलते न्याय की आस लगानी छोड़ देनी चाहिए? अदालतों और उसकी कार्यप्रणाली को लेकर हमारे पास भी सवाल तमाम हैं लेकिन हम इस बात को बखूबी जानते हैं कि यदि हमने उन्हें पूछा तो हमें भी मिलेगी हर बार की तरह पर तारिख और फिर हम भी शायद अपना सा मुंह लेकर रह जाएं.
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