जब भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लाल किले की प्राचीर से भाषण देते हुए देश की तमाम समस्याओं का ठीकरा कोरिया जैसे मासूम देश पर थोप रहे थे, सोचिए कि उस भाषण से ठीक पहले उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा? ना तो आप थे, ना इन पंक्तियों का लेखक. बावजूद चार पांच चीजों की कल्पना तो की ही जा सकती है. इतिहास तो इसी तरह की कल्पनाओं के जरिए तथ्यों की कसौटी पर कसा जाता है. है कि नहीं ये बताइए. बहुत पढ़े-लिखे धीर-गंभीर पूर्व प्रधानमंत्री ने सोचा होगा कि नेहरू की बात पर भला सवाल कौन पूछेगा? संभावना भी है क्योंकि हमारी परंपरा बड़ों से सवाल पूछने की रही कहां है. गांधी जी भी कई जगह 'बड़प्पन' में जिद करते दिखते हैं. सुभाष बाबू और डॉ. अंबेडकर के संदर्भ में तो उनकी जिद के उदाहरण ऐतिहासिक हैं.
कुछ साल पहले, नेहरू जी झूठ बोल सकते हैं, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था. वैसे राजनीति में झूठ बोलना पाप भी नहीं माना जाता. जायज और नाजायज दोनों कारण हैं और शुद्ध लाभ में तो नहीं, मगर शुभ लाभ में इसे बोलने की अघोषित अनुमति है. सभी नेता बोलते हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी. लोकतंत्र में तो झूठ बोलना कोई ऐसा विषय भी नहीं है और अब जनता तपाक से पकड़ भी लेती है. अब सवाल है कि लोकतंत्र से पहले के झूठ को कैसे पकड़ा जाए? तमाम मनमानी सत्ताओं ने मनमाने कार्यों के लिए तथ्य गढ़े, भला उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है. कोई उपकरण है क्या? क्योंकि आधुनिक इतिहास दृष्टि में तो उन्हीं तथ्यों पर चीजों को परखने की परंपरा को सही और सटीक मान लिया गया. लोक के याददाश्त की तो उसमें कोई जगह ही नहीं है. एक वैचारिक पैरामीटर भी गढ़ा गया. बावजूद वही तथ्य वही कल्पनाएँ कई बार हकीकत से कोसों दूर नजर आती हैं.
फ्रीडम ऑफ़ स्पीच तो मुगलों के दौर में थी, इतिहास में यही दिखता है
हमारे इतिहास की दृष्टि विदेशी हमलावरों के दौर के बाद से आज तक अंधी सुरंगों में भटकती नजर आती है. मुझे हंसी आती है जब कोई इतिहासकार कहता है कि ऐसा होता तो भला उस दौर के कवियों ने उसका जिक्र क्यों नहीं...
जब भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू लाल किले की प्राचीर से भाषण देते हुए देश की तमाम समस्याओं का ठीकरा कोरिया जैसे मासूम देश पर थोप रहे थे, सोचिए कि उस भाषण से ठीक पहले उनके दिमाग में क्या चल रहा होगा? ना तो आप थे, ना इन पंक्तियों का लेखक. बावजूद चार पांच चीजों की कल्पना तो की ही जा सकती है. इतिहास तो इसी तरह की कल्पनाओं के जरिए तथ्यों की कसौटी पर कसा जाता है. है कि नहीं ये बताइए. बहुत पढ़े-लिखे धीर-गंभीर पूर्व प्रधानमंत्री ने सोचा होगा कि नेहरू की बात पर भला सवाल कौन पूछेगा? संभावना भी है क्योंकि हमारी परंपरा बड़ों से सवाल पूछने की रही कहां है. गांधी जी भी कई जगह 'बड़प्पन' में जिद करते दिखते हैं. सुभाष बाबू और डॉ. अंबेडकर के संदर्भ में तो उनकी जिद के उदाहरण ऐतिहासिक हैं.
कुछ साल पहले, नेहरू जी झूठ बोल सकते हैं, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल था. वैसे राजनीति में झूठ बोलना पाप भी नहीं माना जाता. जायज और नाजायज दोनों कारण हैं और शुद्ध लाभ में तो नहीं, मगर शुभ लाभ में इसे बोलने की अघोषित अनुमति है. सभी नेता बोलते हैं. मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी. लोकतंत्र में तो झूठ बोलना कोई ऐसा विषय भी नहीं है और अब जनता तपाक से पकड़ भी लेती है. अब सवाल है कि लोकतंत्र से पहले के झूठ को कैसे पकड़ा जाए? तमाम मनमानी सत्ताओं ने मनमाने कार्यों के लिए तथ्य गढ़े, भला उन्हें गलत कैसे ठहराया जा सकता है. कोई उपकरण है क्या? क्योंकि आधुनिक इतिहास दृष्टि में तो उन्हीं तथ्यों पर चीजों को परखने की परंपरा को सही और सटीक मान लिया गया. लोक के याददाश्त की तो उसमें कोई जगह ही नहीं है. एक वैचारिक पैरामीटर भी गढ़ा गया. बावजूद वही तथ्य वही कल्पनाएँ कई बार हकीकत से कोसों दूर नजर आती हैं.
फ्रीडम ऑफ़ स्पीच तो मुगलों के दौर में थी, इतिहास में यही दिखता है
हमारे इतिहास की दृष्टि विदेशी हमलावरों के दौर के बाद से आज तक अंधी सुरंगों में भटकती नजर आती है. मुझे हंसी आती है जब कोई इतिहासकार कहता है कि ऐसा होता तो भला उस दौर के कवियों ने उसका जिक्र क्यों नहीं किया? कुछ कवि तो बाकायदा उन्हीं के घरानों से से थे और लड़ाके थे. उनसे सही लिखने की भी क्या उम्मीद की जा सकती है? एक दाराशिकोह की कोशिशें दिखती हैं- क्या उसका कुछ नजर आता है मुगलिया इतिहास में? उनसे पूछिए जो सत्ताएं बर्बर और धर्मांध थीं क्या उनके दौर में भी फ्रीडम ऑफ़ स्पीच की तनिक मात्र भी गुंजाइश थी कि दूसरे ही लिख देते? अब इतिहास की मजबूरी है कि वह रोशनी की तरह उन्हीं तथ्यों को देख पाती है जो विरोधाभासी हैं और बहुत संदिग्ध. और तथ्य भी वह जिन्हें आततायियों के अपनों ने लिखा.
तब का इतिहास कौन लिख रहा था. बादशाहों के दरबारी. वह इतिहास कैसा लिखा जा रहा होगा, क्या वह रासो साहित्य से ज्यादा बेईमान नहीं रहा होगा. रासो में तो फिर भी ईमानदारी की एक गुंजाइश है. कवि राज्याश्रयी थे. और जब राजा और उसका राज्य ही नहीं रहा तो कोई कवि किस लालच में जान की बाजी लगाकर लिख रहा था. मजेदार यह है कि पहले योद्धा से आख़िरी बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक- जो बेहद थके हारे और लाचार नजर आते हैं, उन्हें भी इतिहास में किन्हीं वजहों से महान घोषित कर दिया गया. कोई सिर्फ इसलिए महान मान लिया गया कि उसने खलीफा की सत्ता को ही खारिज कर दिया था. इतिहास का क्या मजाक है? वह अपनी अवस्था में क्रांतिकारी हो सकता था. इस एक बात भर से महान कैसे हो गया?
मुगलिया पिक्चर का सबसे बड़ा महानायक औरंगजेब क्यों है?
मुगलिया इतिहास में भी अपनी पिक्चर का सबसे बड़ा महानायक औरंगजेब है. हीरे मोती में और रेशम के लकदक कपड़ों से लैस औरंगजेब को क्या जरूरत पड़ी कि उसे टोपी सिलकर गुजारा करने वाले बादशाह के रूप में प्रचारित किया गया. धार्मिक रूप से एक मूर्ख आततायी जिसने तख़्त के लिए अपने भाइयों का क्रूरता से क़त्ल किया. पिता को जेल में डलवा दिया. शाही खानदान से टोपी सिलकर जीने वाले ऐसे महान व्यक्ति को तो मस्जिद में गुजारा करके जीवन बिताना था. क्या तब उसकी संतई को इतिहास नहीं जान पाता? भारत के कई चक्रवर्ती सम्राटों ने साधारण भिक्षु और जैन मुनियों की तरह पहाड़ों कंदराओं में आख़िरी साँसे लीं तो क्या उनकी संतई को इतिहास ने दर्ज नहीं किया?
औरंगजेब वर्तमान पिक्चर का आज क्लाइमेक्स देखिए. फिर क्यों ना माना जाए कि असल में इतिहास में टोपी सिलने का मजाक महिमामंडित करने की वजहें थीं. और उस भद्दे पिलपिले मजाक को मजबूत बनाने के लिए तर्क गढ़े गए. साक्ष्य भी हैं बावजूद भारत की चेतना उसे मानने को तैयार नहीं है. औरंगजेब मुगलिया दौर का इकलौता बादशाह है जिसे भारतीय चेतना में बेइंतहा घृणा दिखती है. कोई दूसरा खोजे नहीं मिलेगा. अमीर-गरीब पढ़े-लिखे सवर्ण-अवर्ण सब उससे घृणा करते हैं और आज से नहीं पीढ़ियों से घृणा कर रहे हैं. तब भी जब लोग पढ़े लिखे नहीं थे.
टोपी सिलने, औरंगजेब की वसीयत के पीछे क्या यह भी सच हो सकता है
फिर क्यों ना औरंगजेब के महिमा मंडन को भारत में इस्लामिक इतिहास की सबसे बड़ी साजिश के रूप में देखा जाए जो उसकी क्रूरताओं को छिपाने के लिए गढ़ी गई थीं. इसे मानने के लिए बहुत परेशान नहीं होना पड़ता. लोक चेतना में औरंगजेब से पहले के भारतीय राजा महाराजाओं के भी किस्से मिलते हैं, तमाम सुल्तानों बादशाहों की क्रूरताओं और प्रशंसा का जिक्र आता है. लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है कि वही लोक औरंगजेब की दयालुता को लेकर इस हद तक तंग है कि घृणा के साथ चुप बैठा है सदियों से.
क्या ऐसा संभव है कि मुगलिया दौर का सबसे ताकतवर बादशाह निजी खर्चे निकालने भर के लिए टोपियाँ सिलता बैठा हो. अब इसी तर्क को एक दूसरे नजरिए से पलट कर देखें तो औरंगजेब की संतई भयावह क्रूरता के रूप में दिखती है. इतिहास तो तथ्यों को पलट पलटकर देखने की अनुमति देता ही है. मध्यकाल के दौर में जिस देश का बादशाह निजी खर्चे के लिए टोपी सिल रहा था वहां के कारोबारी, सामंतों, मनसबदारों, प्रजा पर उसका क्या असर होगा? वह नैरेटिव कैसा होगा उस सल्तनत में? कर्मचारियों, सफाईकर्मियों और दूसरे सेवकों की स्थिति तो बंधुआ मजदूरों से भी बदतर रही होगी, क्या इसकी कल्पना उसी तथ्य के आसपास नहीं की जा सकती?
एक नैतिक ईमानदार बादशाह से लोग भरपेट भोजन और अंग छिपाने भर के कपड़ों से ज्यादा क्या ही कुछ पा रहे होंगे. अभी ताजमहल में मुगलों के उत्तराधिकारियों ने इतिहास का ही एक प्रामाणिक तथ्य रखा. शाहजहाँ का आदेश जिसमें राजस्थान के राजा को आदेश दिया गया था कि संबंधित जो भी मांगे उसे प्राथमिकता से दिया जाए और उसमें कोई आनाकानी ना हो. आदेश में सीधे सीधे गुंडागर्दी है. शाहजहाँ के इस आदेश से भी औरंगजेब के टोपी एपिसोड की दहशत समझ सकते हैं.
औरंगजेब के पैरोकार जजिया को जायज ठहराते हुए कहते हैं कि बदले में वह यात्राओं को सुरक्षा देता था. बहादुर बादशाह औरंगजेब के दौर में सिर उठाने वालों की कल्पना कर सकते हैं क्या? कम से कम उत्तर में तो नहीं ही की जा सकती. फिर वह किसे प्रोटेक्शन दे रहा था? औरंगजेब की वसीयत तो पीएचडी का विषय है. दिल्ली में मरने वाले बादशाह को खुल्दाबाद में सूफी गुरु की कब्र के पास दफनाया जाता है. साफ़ निर्देश कि पक्की कब्र मत बनाना और उसके ऊपर "सब्जियां" उगा देना. इच्छा के मुताबिक़ उसकी कब्र पर "हरी सब्जियां" उगा दी गईं. आज भी कब्र पर एक पौधा मिल जाएगा. तस्वीरों में दिखता है- हो सकता है वह तुलसी का ही हो. बाद में अंग्रेजों ने हिंदुस्तान के बादशाह की कब्र के आसपास थोड़ा पक्का काम करवा दिया. अब वहां आलमगीर के श्रद्धालु आते हैं. औरंगजेब की संतई के ऐसे और भी किस्से मिलेंगे. इतिहास के तथ्य उसे गलत साबित नहीं कर पाते. लेकिन वह उसी खुल्दाबाद के आसपास के मराठी इलाकों में हर रोज सबसे बड़े झूठ के रूप में देखी जाती है. इसकी एकमात्र वजह 31 साल के शूरवीर दूसरे छत्रपति महाराज संभाजी की बेजोड़ शाहदत है.
जब मसूद संत बन सकता है तब औरंगजेब की संतई हैरानी का विषय नहीं
शुरुआत में भारत में इस्लाम के अलग-अलग मुकाम पर गौर करें तो औरंगजेब के इस महाझूठ को पकड़ना मुश्किल नहीं. 1034 में मात्र 20 साल का सालार मसूद बहराइच की जंग में मारा जाता है. मसूद का परिवार "अजमेर शरीफ के मुकाम" से निकला था. वह गजनवी का कमांडर था. जंग में मरने तक का विवरण साफ़ है, लेकिन जंग में किसके हाथों मारा गया- यह तथ्य अस्पष्ट है. मसूद की पिक्चर के दूसरे पहलू में महाराजा सुहेलदेव हैं. कहा जाता है कि सुहेलदेव ने बहराइच की भीषणतम जंग में गजनवी की सेना को आगे बढ़ने से रोक दिया था. सुहेलदेव ने गाजर मूली की तरह मसूद समेत उसकी सेना को काट दिया था. वह जंग इतनी भयावह थी कि कई दशक तक आततायी शक्तियां बहराइच से आगे बढ़ने का साहस भी नहीं जुटा पाई.
समय के साथ दिल्ली की सल्तनत मजबूत होते गई और कारवां भी बहराइच के मुकाम से आगे बढ़ गया. दिल्ली के सुल्तानों ने मसूद का मकबरा पक्का बनवाया. उसे गाजी की उपाधि दी गई. गाजी यानी धार्मिक योद्धा जो बड़े मकसद के लिए शहीद होते थे. जैसे धर्मांतरण करवाते थे और गैर इस्लामी सत्ताओं को जीतते थे. बहराइच में कुछ साल पहले तक सुहेलदेव ही खलनायक बना रहा. कहानियां प्रचलित थीं कि सुहेलदेव आततायी शासक था. अत्याचार करता था. उसको रोकने के लिए मसूद आया था और जंग हुई उसमें मारा गया. क्या गजब का नैरेटिव है. भारत के इतिहास का सबसे मजेदार तथ्य. बंगाल में भी ऐसी मशहूर दरगाह है. वह भी योद्धा था. इस्लामिक सल्तनतों के इतिहास में उसका भी मुकाम है और वह भी आज बंगाल के सबसे बड़े संत की तरह पूजा जाता है.
भारत में जब सुहेलदेव आततायी और गाजी मसूद संत हो सकता है तो भला औरंगजेब कैसे महान नहीं बनता? उस दौर का इस्लामिक मुकाम देखें तो औरंगजेब इकलौता नजर आता है जिसने सबसे बड़ी सफलताएं दिलवाई. वह चाहे धर्मांतरण हो या फिर बड़े बड़े मंदिरों मठों को ढहाना. समूचे उत्तर भारत में औरंगजेब से पहले का शायद ही किसी प्राचीन मंदिर मठ विहार के निशान मिलें. खजुराहो जैसे वही मंदिर बचे रह गए जो जंगलों में थे जिनपर आतताइयों की नजर नहीं पड़ी. किसी भी तीर्थ पर जाइए कोई मंदिर का निशान नहीं मिलेगा. एक बार दक्षिण को देखिए. उत्तर के तीर्थों का महात्म्य देखते हुए कल्पना करिए कि दक्षिण जैसी छवियां इधर क्यों नहीं हैं? क्या यह भारत में संभव माना जा सकता है? मथुरा काशी जैसे बड़े तीर्थस्थलों पर भी कोई मंदिर ना रहा हो.
अयोध्या में राम का कोई मंदिर नहीं था, प्रामाणिक इतिहास में इससे असंभव बात है क्या?
राम जो भारत के कण कण में दिखते हैं और आधा दर्जन देशों में जहां हिंदू बहुसंख्यक भी नहीं (मुस्लिम देशों में भी) वहां भी राम और विष्णु के निशान मिलते हैं. वह उनकी चेतना से नहीं मिटे कभी. भला कैसे अयोध्या में राम का ही मंदिर नहीं हो सकता जिसे पूरी दुनिया पूज रही हो दो हजार साल से. यह भी मान लेते हैं कि वह मिथकीय चरित्र भर थे. यह तर्क भी माना जा सकता है कि अयोध्या की जिस जगह को लेकर विवाद हुआ, वहां राम का मंदिर ना भी रहा हो. भले हाल की खुदाई में मंदिरों के तमाम साक्ष्य जमीन के अंदर से बाहर आए. पर क्या कल्पना की जा सकती है कि बाबर से पहले अयोध्या में राम का कोई मंदिर ही ना रहा हो. विवादित जगह ना सही, कहीं और तो होना चाहिए. यह तो असंभव है.
जो चीज साक्षात दिख रही हो जब उसे साबित करने के लिए भी प्रमाण अपर्याप्त हों तो भला तीन सौ साल पहले मिटा दी गई चीजों को कहां खोजने निकले हैं. बावजूद की उसी औरंगजेब के आदेश मिलते हैं. मंदिरों को ढहाने के लिए बाकायदा विभाग बनवाने के आदेश. भारत के इसी इतिहास को सच्चा माना जाता है. अच्छा है कि भारतीय चेतना में औरंगजेब बिल्कुल ताजी घटना है और उस भूमि की घटना है जहां उससे मोर्चा लेने वाले कथित तौर पर छोटी जाति से थे. वर्ना तो मुगलिया नैरेटिव में औरंगजेब तो गाजी मसूद से भी बड़े पीर और संत के रूप में पूजा जाता. वैसे भी खुल्दाबाद वह मुकाम है जहां भारतीय इस्लाम की नर्म गर्म सभी धाराएं आपस में मिल जाती हैं. सूफियों का सबसे बड़ा अड्डा था वो.
औरंगजेब की कब्र पर किसी ओवैसी के जाने पर हैरान नहीं होना चाहिए. जिस तरह का भारत मुगलिया सल्तनत ने इतिहास से गढ़ा गया कोई ओवैसी अगर वहां नहीं जाता तो शायद वह सबसे ज्यादा हैरानी का विषय होता.
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