सबरीमला विवाद भी एक तरह से ऐसे विवाद की शक्ल लेता जा रहा है जिसमें न तो धर्म दिख रहा है और न ही आस्था. ये विवाद अब सिर्फ नारी शक्ति को दिखाने का एक तरीका मात्र कहा जा रहा है, लेकिन इस शक्ति के मायने क्या हैं? अब सबरीमला में चर्चित महिला एक्टिविस्ट तृप्ति देसाई जाएंगी. तृप्ति खुद और उनके साथ अन्य 6 महिलाएं यानी कुल 7 महिलाएं 17 नवंबर को सबरीमला में प्रवेश करने की कोशिश करेंगी. सुप्रीम कोर्ट ने तो काफी पहले से महिलाओं को सबरीमला में प्रवेश करने की इजाजत दे दी है, लेकिन 10 से 50 साल के बीच की महिलाएं अभी भी सबरीमला में प्रवेश नहीं कर पाई हैं.
महिलाओं के हितों के लिए ये बातें कही गई थीं और ये एक तरह से सही भी था कि महिलाओं को आखिर क्यों इस परंपरा के लिए बाध्य माना जाए जिसे न जाने कितनी शताब्दी पूर्व बनाया गया था. मैं भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करती हूं, लेकिन ये किन महिलाओं के लिए किया गया? वो जो सबरीमला में जाने की इच्छुक इसलिए थीं क्योंकि उनके मन में आस्था थी. इसलिए नहीं कि सबरीमला को एक अखाड़ा बनाकर शक्ति प्रदर्शन किया जाए.
जहां तक तृप्ति देसाई की बात है तो वो चाहती हैं कि उन्हें प्रार्थना करने दी जाए. अगर उनका ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाए तो वो हर उस जगह जाने की कोशिश करती हैं जहां मनाही होती है यहां धर्म द्वारा मनाही की बात की जा रही है. क्या तृप्ति को सनी शिंग्नापुर में भी आस्था थी जब उन्होंने वहां गर्भगृह में प्रवेश किया, या फिर उन्हें हाजी अली और त्रयंबकेश्वर मंदिर में जब वो गई थीं. हर जगह तृप्ति ने महिलाओं के प्रार्थना करने के हक को आगे बढ़ाया है, लेकिन अब ये किसी आंदोलन की शक्ल ले चुका है जिसमें महिलाओं को आजादी देने की बात नहीं रह गई है.
इसके...
सबरीमला विवाद भी एक तरह से ऐसे विवाद की शक्ल लेता जा रहा है जिसमें न तो धर्म दिख रहा है और न ही आस्था. ये विवाद अब सिर्फ नारी शक्ति को दिखाने का एक तरीका मात्र कहा जा रहा है, लेकिन इस शक्ति के मायने क्या हैं? अब सबरीमला में चर्चित महिला एक्टिविस्ट तृप्ति देसाई जाएंगी. तृप्ति खुद और उनके साथ अन्य 6 महिलाएं यानी कुल 7 महिलाएं 17 नवंबर को सबरीमला में प्रवेश करने की कोशिश करेंगी. सुप्रीम कोर्ट ने तो काफी पहले से महिलाओं को सबरीमला में प्रवेश करने की इजाजत दे दी है, लेकिन 10 से 50 साल के बीच की महिलाएं अभी भी सबरीमला में प्रवेश नहीं कर पाई हैं.
महिलाओं के हितों के लिए ये बातें कही गई थीं और ये एक तरह से सही भी था कि महिलाओं को आखिर क्यों इस परंपरा के लिए बाध्य माना जाए जिसे न जाने कितनी शताब्दी पूर्व बनाया गया था. मैं भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन करती हूं, लेकिन ये किन महिलाओं के लिए किया गया? वो जो सबरीमला में जाने की इच्छुक इसलिए थीं क्योंकि उनके मन में आस्था थी. इसलिए नहीं कि सबरीमला को एक अखाड़ा बनाकर शक्ति प्रदर्शन किया जाए.
जहां तक तृप्ति देसाई की बात है तो वो चाहती हैं कि उन्हें प्रार्थना करने दी जाए. अगर उनका ट्रैक रिकॉर्ड देखा जाए तो वो हर उस जगह जाने की कोशिश करती हैं जहां मनाही होती है यहां धर्म द्वारा मनाही की बात की जा रही है. क्या तृप्ति को सनी शिंग्नापुर में भी आस्था थी जब उन्होंने वहां गर्भगृह में प्रवेश किया, या फिर उन्हें हाजी अली और त्रयंबकेश्वर मंदिर में जब वो गई थीं. हर जगह तृप्ति ने महिलाओं के प्रार्थना करने के हक को आगे बढ़ाया है, लेकिन अब ये किसी आंदोलन की शक्ल ले चुका है जिसमें महिलाओं को आजादी देने की बात नहीं रह गई है.
इसके पहले वो जहां भी गईं वहां महिलाएं खुद जाकर प्रार्थना करना चाहती थीं, लेकिन क्या सबरीमला के साथ भी ऐसा ही है? सबरीमला के बारे में अभी तक जितनी भी जानकारी मैंने पढ़ी, सुनी या देखी है उससे तो यही लग रहा है कि जिन महिलाओं की यहां आस्था है वो तो अंदर जाना ही नहीं चाह रही हैं. हो सकता है कुछ डर भी गई हों और वो अंदर जाना चाहती हों, लेकिन सच्चाई क्या है वो जो आंखों से दिख रही है या फिर वो जो सिर्फ लोगों को ख्यालों में है.
तृप्ति देसाई ने केरल सरकार से प्रोटेक्शन की मांग की है और कहा है कि अयप्पा के भक्त और कुछ गुंडे उन्हें अंदर नहीं जाने देना चाहते. वो कहती हैं कि वो केरल तब तक नहीं छोड़ेंगी जब तक वो इस मंदिर के दर्शन नहीं कर लेतीं. तृप्ति देसाई का एक्टिविज्म इस मंदिर में किन महिलाओं के लिए है? वो महिलाएं जो अपने हक को पाना चाहती हैं, वो महिलाएं जो धर्म के साथ हैं, वो महिलाएं जो प्रार्थना करने का हक लेना चाहती हैं, या वो महिलाएं जो अयप्पा भगवान में आस्था रखती हैं?
तृप्ति देसाई की बात तब तक ही सही कही जा सकती है जब तक वो जो कर रही हैं वो पूरी तरह से महिलाओं के हित की बात हो. लेकिन अब ये हित नहीं लगता. ये जानते हुए कि वहां मौजूद श्रद्धालुओं के बीच राजनीति होगी और तृप्ति का ये कदम उनकी ही नहीं बल्कि उनके साथ मौजूद कई लोगों की जान को खतरे में डाल सकता है ऐसे में ये काम करना सही नहीं लगता.
सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसका सम्मान किया जा सकता है, लेकिन अभी 22 जनवरी को एक और हियरिंग है जिसमें सुप्रीम कोर्ट अपना फैसला सुनाएंगे. तब तक के लिए अगर रुका जाता तो इस समय जो श्रद्धालु पहले से ही अयप्पा मंदिर में दर्शन के लिए बैठे हैं उनके साथ कोई अन्याय न होता. हज़ारों लोग मंदिर के पट खुलने का इंतजार कर रहे हैं ऐसे में उनके पूजा और व्रत में खलल डालना सही नहीं है.
तृप्ति देसाई के मामले में बवाल होना ही है ये तो मालूम है, लेकिन ऐसे में अन्य श्रद्धालु जो पूरी तरह से पूजा और अनुष्ठान कर सबरीमला में दर्शन पाना चाहते हैं उनकी भावनाओं का क्या होगा. क्या ये उनके साथ अन्याय नहीं होगा. सबरीमला के दर्शन करने से पहले 41 दिन का अनुष्ठान करना होता है क्या ये अनुष्ठान उन सभी महिलाओं ने किया है जिन्हें मंदिर के अंदर जाना है?
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के लिए हक की लड़ाई जायज नहीं है, लेकिन ये हक हमें किस कीमत पर चाहिए? आस्था के नाम पर सबरीमला के विवाद को लेकर क्यों राजनीतिक मुद्दा बनाया जा रहा है. तृप्ति देसाई खुद कह चुकी हैं कि उन्हें हर तरह की धमकी मिली है कि वो सबरीमला न जाएं, उन्हें प्रोटेक्शन चाहिए और उन्हें प्रोटेक्शन दिया भी जाएगा, लेकिन इससे किसी को कुछ फायदा मिल पाए ये जरूरी नहीं है. ये उन हज़ारों श्रद्धालुओं के साथ अन्याय ही होगा जो अपने ईष्ठ की पूजा करने आए हैं.
सबरीमला मंदिर को अब एक अखाड़े के तौर पर देखा जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी सरकार और विपक्ष दोनों नहीं चाहते कि महिलाएं सबरीमला में प्रवेश करें क्योंकि इससे केरल राज्य के लोगों का वोट उनसे छिन सकता है. राजनीति भी कुछ ऐसी हो रही है कि हाजी अली में दर्शन को लेकर भाजपा सरकार कह रही थी कि महिलाओं को वहां जाना चाहिए क्योंकि उन्हें रोकना गैर इस्लामिक है, लेकिन अगर यही बात सबरीमला की हो तो खुद अमित शाह भी कोर्ट के नियमों और उसके फैसले की धज्जियां उड़ाते हुए दिख रहे हैं.
इस पूरी प्रक्रिया में महिला एक्टिविस्ट, राजनीति और पब्लिसिटी, विरोध की दौड़ में भगवान अयप्पा और आस्था दोनों ही कहीं खो गई है. लोग सिर्फ अपने फायदे देख रहे हैं और सबरीमला भी राम मंदिर की तरह की एक अखाड़ा बनता जा रहा है. इसमें किसे गलती जी जाए?
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