तो क्या माना लिया जाए कि हिन्दी की काशी यानी उत्तर प्रदेश में इसे सही से जानने-समझने, पढ़ने में छात्रों में रुचि अब घट रही है? क्या हिन्दी के शिक्षक अपने अध्यापक धर्म का निर्वाह करने के लायक नहीं रह गये हैं? ये दोनों प्रश्न इसलिए समीचिन है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की 10 वीं की हाई स्कूल और 12 वीं की इंटर की परीक्षाओं के विगत दिनों आए परिणामों में विद्यार्थियों का हिन्दी का परिणाम अत्यंत ही निराशाजनक रहा. अपनी मातृभाषा में लाखों विद्यार्थियों का अनुतीर्ण होना कई सवाल खड़े कर रहा है.
उत्तर प्रदेश बोर्ड से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 11 लाख से अधिक हाई स्कूल और इंटर के विद्यार्थी अपनी हिन्दी की परीक्षाओं में उतीर्ण नहीं हो सके. इनमें करीब 3,38 लाख हाई स्कूल के छात्र और 7,81 लाख इंटर के छात्र शामिल हैं.बता दें कि उत्तर प्रदेश में हिन्दी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है. निश्चित रूप से ये आंकड़ा बहुत बड़ा है. विगत वर्ष भी लगभग साढ़े सात लाख हाई स्कूल और इंटर के छात्र हिन्दी की परीक्षा में लुढ़क गए थे.
नकल पर नकेल
हिन्दी में इतने शोचनीय परिणामों के लिए कहने वाले कह रहे हैं कि कठिन प्रश्नपत्र आने के कारण बच्चे फेल हुए. यह तर्क तो गले के नीचे से नहीं उतरता. प्रश्न पत्र कठिन था, यह बात अपने आप में "सब्जेक्टिव"है. आखिर इसी कथित कठिन प्रश्नपत्र में बहुत से छात्रों के बेहतरीन अंक भी आए हैं. फिर कोई यह तो नहीं कह रहा है कि परीक्षा में प्रश्न पाठ्यक्रम के बाहर से आए थे. अगर वे पाठ्यक्रम के बाहर से होते तो उसकी जांच हो सकती थी. तब इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के फेल होने को एक हद तक सही माना भी...
तो क्या माना लिया जाए कि हिन्दी की काशी यानी उत्तर प्रदेश में इसे सही से जानने-समझने, पढ़ने में छात्रों में रुचि अब घट रही है? क्या हिन्दी के शिक्षक अपने अध्यापक धर्म का निर्वाह करने के लायक नहीं रह गये हैं? ये दोनों प्रश्न इसलिए समीचिन है, क्योंकि उत्तर प्रदेश की 10 वीं की हाई स्कूल और 12 वीं की इंटर की परीक्षाओं के विगत दिनों आए परिणामों में विद्यार्थियों का हिन्दी का परिणाम अत्यंत ही निराशाजनक रहा. अपनी मातृभाषा में लाखों विद्यार्थियों का अनुतीर्ण होना कई सवाल खड़े कर रहा है.
उत्तर प्रदेश बोर्ड से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार करीब 11 लाख से अधिक हाई स्कूल और इंटर के विद्यार्थी अपनी हिन्दी की परीक्षाओं में उतीर्ण नहीं हो सके. इनमें करीब 3,38 लाख हाई स्कूल के छात्र और 7,81 लाख इंटर के छात्र शामिल हैं.बता दें कि उत्तर प्रदेश में हिन्दी अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाता है. निश्चित रूप से ये आंकड़ा बहुत बड़ा है. विगत वर्ष भी लगभग साढ़े सात लाख हाई स्कूल और इंटर के छात्र हिन्दी की परीक्षा में लुढ़क गए थे.
नकल पर नकेल
हिन्दी में इतने शोचनीय परिणामों के लिए कहने वाले कह रहे हैं कि कठिन प्रश्नपत्र आने के कारण बच्चे फेल हुए. यह तर्क तो गले के नीचे से नहीं उतरता. प्रश्न पत्र कठिन था, यह बात अपने आप में "सब्जेक्टिव"है. आखिर इसी कथित कठिन प्रश्नपत्र में बहुत से छात्रों के बेहतरीन अंक भी आए हैं. फिर कोई यह तो नहीं कह रहा है कि परीक्षा में प्रश्न पाठ्यक्रम के बाहर से आए थे. अगर वे पाठ्यक्रम के बाहर से होते तो उसकी जांच हो सकती थी. तब इतनी बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के फेल होने को एक हद तक सही माना भी जा सकता था. लेकिन, बात यह भी नहीं है.
यह तो मानना ही होगा कि यूपी बोर्ड के परिणाम अपने आप में अप्रत्याशित रहे हैं. लाखों विद्यार्थी अपनी मातृभाषा हिन्दी में भी उतीर्ण नहीं हो सके. बेशक, ये नतीजे देश की शिक्षा व्यवस्था की भयावह तस्वीर पेश कर रहे हैं. यह जाहिर करता है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था जीर्ण-शीर्ण और जर्जर हो चुकी है. इसमें आमूल-चूल बदलाव होने की चाहिए . कारण अनेक हैं - कहीं अध्यापकों का अयोग्य होना, कहीं अध्यापक कागजों पर ही नियुक्त हैं, कहीं निकम्मे हैं कहीं सिर्फ वेतन लेने आते हैं अध्यापक और कहीं बच्चे पढ़ते ही नहीं है.
हिन्दी भाषा के उत्थान और इसके व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी हरेक देशवासी की है. तो क्या नकल का मौका नहीं मिला तो इतने खराब अंक आए हिन्दी में? विद्यार्थियों को नकल की बुरी आदत लग चुकी है. अपने आप मेहनत करना पसंद ही नहीं करते. उनको पता है कि बिना मेहनत किए भी पास तो हो ही सकते हैं. हमारे यहां बड़ी तादाद में निकम्मे शिक्षक भी हैं जिन्हें राजनीतिक और जातीय आधारों पर नियुक्त कर लिया गया. इन्हें मालूम है, चूंकि इनकी नौकरी सुरक्षित है, इसलिए ये मौज करते रहते हैं. यहां मेरा आशय सरकारी स्कूलों के अध्यापकों से है.
अगर ये नतीजे योगी आदित्यनाथ सरकार के यूपी बोर्ड की परीक्षाओं में नकल के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के कारण आए हैं, तब तो मुझे फिर कुछ नहीं कहना. नकल की महामारी पर तो रोक लगनी ही चाहिए. पहले एक बार 1990 में कल्याण सिंह ने भी सख्ती की थी लेकिन, नेताजी और बहन जी ने शिक्षा के बेडा गर्क करने में कोई कसर ही नहीं छोड़ी उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद ने सभी 8,549 परीक्षा सेंटरों पर सीसीटीवी कैमरों की निगरानी में परीक्षाएं ली थीं. नकल के खिलाफ सख्ती से 11 लाख से अधिक परीक्षार्थियों ने बीच में ही परीक्षाएं छोड़ भी दी थीं, जबकि 1,000 से अधिक लोगों को गड़बड़ करते हुए पकड़ा भी गया था.
कौन देखे स्कूलों का हाल
दरअसल, अगर बात हिन्दी से हटकर भी करें तो अब भी देश के लाखों स्कूलों की स्थिति बेहद खराब है. दुर्भाग्यवश, हमारे देश में स्कूली शिक्षा का स्तर तो दर्दनाक और भयावह स्थिति पर पहुंच चुका है. कुछ समय पहले सरकार ने संसद के पटल पर 'एक स्कूल-एक अध्यापक' विषय से संबंधित एक रिपोर्ट रखी थी. इसके अनुसार देश में 1,05,630 स्कूलों में मात्र एक ही शिक्षक है. यानी कक्षाएं 5 या 6 और शिक्षक एक.मतलब स्कूली शिक्षा को लेकर लगभग सभी राज्यों का प्रदर्शन निराशाजनक है.
अब चूंकि यह आंकड़ा शुद्ध रूप से सरकारी है, इसलिए इस पर विवाद के लिए कोई गुंजाइश भी नहीं है. स्पष्ट है कि देश में लाखों शिक्षकों के पद रिक्त हैं. इन्हें क्यों नहीं भरा जा रहा? अब आप समझ गए होंगे कि हमारे देश में शिक्षा व्यवस्था की ताजा स्थिति किस हदतक तक पटरी से उतर चुकी है. बेशक, स्कूली शिक्षा की स्तर में बड़ा सुधार किए बगैर हम संसार में सिर उठा कर नहीं चल सकते. किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह साहित्य हो या कला-संस्कृति, विज्ञान हो या खेल-कूद, विश्व के विकसित देशों के बराबरी में खडे होने का सपना भी हम कैसे देख सकते हैं? यहां पर हम उन स्कूलों का तो जिक्र ही नहीं कर रहे जो मान्यता प्राप्त नहीं हैं.
इस तरह के स्कूलों में भी लाखों अभागे बच्चें पढ़ रहे हैं. इन पर प्रशासन की नजर क्यों नहीं जाती? इस सवाल का उत्तर उन सभी को चाहिए जो देश में स्कूली शिक्षा की बदहाली को लेकर चिंतित है. जो देश ज्ञान की देवी सरस्वती का अराधक होने का दावा करता है, वहां पर शिक्षा की इस तरह की बदहाली सच में डराती है. हमारे लाखों नौनिहाल अंधकार की तरफ बढ रहे हैं. क्या कोई एक शिक्षक सारे स्कूल के सारे कक्षाओं को देख सकता है? असंभव.
एक बात यह भी कहनी होगी कि देश के मेधावी नौजवान आज के युग में कतई अध्यापक नहीं बनना चाहते. इन्हें मास्टरजी कहलाने में शर्म आती है. आप अपने आसपास के किसी मेधावी लड़के या लड़की से मिलिए. वो आपको बतायेंगे कि उनकी शिक्षक बनने में कतई दिलचस्पी नहीं है. वो बीपीओ में नौकरी कर लेंगे, सेल्समैंन बनकर घर-घर की धूल फांक लेंगे, पर शिक्षक नहीं बनेंगे. अब बेहद औसत किस्म केलोग ही अध्यापक बन रहे हैं.
जाहिर है, औसत या उससे भी निचले स्तर का इंसान अपने विद्यार्थियों के साथ न्याय तो कर ही नहीं सकता. वह तो मात्र खानापूरी ही करेगा. इन्हीं वजहों के कारण देश के अधिकतर स्कूलों में शैक्षणिक गुणवत्ता के स्तर में तेजी से गिरावट हो रही है. उत्तर प्रदेश के स्कूली बच्चे हिन्दी की परीक्षाओं में थोक के भाव से फेल हो रहे हैं, यह कोई शुभ संकेत तो कतई नहीं है. इसके पीछे के कारणों को तलाशना होगा.
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