प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह अपील- कोरोना महामारी की सुनामी को गांवों तक पहुंचने से रोकना है, पूरी तरह बेअसर है. इस दिशा में कम से कम यूपी की सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया. गांव भी महामारी की चपेट में आ चुके हैं. बस भयावह स्थिति नहीं दिख रही है. चुनाव और शहरों की पीड़ा दूर करने में लगा प्रशासन अब तक बेफिक्र है. मैं करीब तीन हफ्ते से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद स्थित अपने गांव में हूं. गांव पहुंचने, यहां रहने और पंचायत चुनाव की प्रक्रिया के आधार पर अगर मैं अपने अनुभव को ग्रामीण भारत का एक सैम्पल समझकर पूरे दावे से कह सकता हूं- कोरोना से लड़ाई ग्रामीण इलाकों में राम भरोसे है.
हर दूसरे गांव में मौतें हो रही हैं. ये मौतें सामान्य नहीं हैं. मौतों को लेकर मैंने जो सुना वो ये कि ज्यादातर मरने वाले 50 साल के ऊपर के हैं और कई पहले से सांस या दूसरी संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त हैं. आसपास 15-20 किलोमीटर के इलाके में गंगा किनारे मौजूद सभी श्मशानों पर सात से आठ गुना ज्यादा लाशें जल रही हैं. यह निश्चित नहीं है कि पिछले कुछ हफ़्तों में अचानक से बढ़ी मौतों की वजह कोरोना ही है. मगर सामान्य से ज्यादा मौतें यहां बात करने की वजह हैं. जिसे लेकर अफवाहों का भी बाजार गर्म है. स्थानीय समाचार पत्रों में अचानक बढ़ी मौतों पर कुछ नहीं है.
मौजूदा माहौल में स्वास्थ्य महकमे और प्रशासन किस कदर सक्रिय है इसकी बानगी अलग ही है. मेरे घर के बहुत करीब नरोइया में एक प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र है. यहां चिकित्सक भी तैनात है. उसके साथ नर्सिंग स्टाफ भी. मैंने अलग-अलग दिनों में तीन बार पता लगवाया, डॉक्टर साहब वहां मौजूद ही नहीं थे. वजह पूछने पर जवाब भी नहीं मिला. उनकी अनुपस्थिति में नर्सिंग स्टाफ ही डॉक्टर का काम करता है. कोरोना की टेस्टिंग के प्राथमिक उपाय भी केंद्र में नहीं हैं. आसपास ऐसे ही कुछ और केंद्र हैं. उनका भी हाल यही है. टीकाकरण की ये हालत है कि कुछ वैक्सीन की पहली डोज पा चुके हैं और जब बताई तारीख पर लोग केन्द्रों पर दूसरी डोज लेने पहुंचे तो वह नहीं मिला....
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यह अपील- कोरोना महामारी की सुनामी को गांवों तक पहुंचने से रोकना है, पूरी तरह बेअसर है. इस दिशा में कम से कम यूपी की सरकार ने कोई प्रयास नहीं किया. गांव भी महामारी की चपेट में आ चुके हैं. बस भयावह स्थिति नहीं दिख रही है. चुनाव और शहरों की पीड़ा दूर करने में लगा प्रशासन अब तक बेफिक्र है. मैं करीब तीन हफ्ते से उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जनपद स्थित अपने गांव में हूं. गांव पहुंचने, यहां रहने और पंचायत चुनाव की प्रक्रिया के आधार पर अगर मैं अपने अनुभव को ग्रामीण भारत का एक सैम्पल समझकर पूरे दावे से कह सकता हूं- कोरोना से लड़ाई ग्रामीण इलाकों में राम भरोसे है.
हर दूसरे गांव में मौतें हो रही हैं. ये मौतें सामान्य नहीं हैं. मौतों को लेकर मैंने जो सुना वो ये कि ज्यादातर मरने वाले 50 साल के ऊपर के हैं और कई पहले से सांस या दूसरी संक्रामक बीमारियों से ग्रस्त हैं. आसपास 15-20 किलोमीटर के इलाके में गंगा किनारे मौजूद सभी श्मशानों पर सात से आठ गुना ज्यादा लाशें जल रही हैं. यह निश्चित नहीं है कि पिछले कुछ हफ़्तों में अचानक से बढ़ी मौतों की वजह कोरोना ही है. मगर सामान्य से ज्यादा मौतें यहां बात करने की वजह हैं. जिसे लेकर अफवाहों का भी बाजार गर्म है. स्थानीय समाचार पत्रों में अचानक बढ़ी मौतों पर कुछ नहीं है.
मौजूदा माहौल में स्वास्थ्य महकमे और प्रशासन किस कदर सक्रिय है इसकी बानगी अलग ही है. मेरे घर के बहुत करीब नरोइया में एक प्राथमिक स्वस्थ्य केंद्र है. यहां चिकित्सक भी तैनात है. उसके साथ नर्सिंग स्टाफ भी. मैंने अलग-अलग दिनों में तीन बार पता लगवाया, डॉक्टर साहब वहां मौजूद ही नहीं थे. वजह पूछने पर जवाब भी नहीं मिला. उनकी अनुपस्थिति में नर्सिंग स्टाफ ही डॉक्टर का काम करता है. कोरोना की टेस्टिंग के प्राथमिक उपाय भी केंद्र में नहीं हैं. आसपास ऐसे ही कुछ और केंद्र हैं. उनका भी हाल यही है. टीकाकरण की ये हालत है कि कुछ वैक्सीन की पहली डोज पा चुके हैं और जब बताई तारीख पर लोग केन्द्रों पर दूसरी डोज लेने पहुंचे तो वह नहीं मिला. बताया गया कि दूसरी डोज अभी उपलब्ध नहीं है. यानी सरकार का दावा कि टीके की कमी नहीं है पूरी तरह से खोखला है.
(गांव में स्वास्थ्य केंद्र बोझ से हाफ रहे हैं और अव्यवस्था का शिकार हैं. फोटो- आईचौक.)
हमारे यहां से करीब 10 किलोमीटर दूर सर्रोई में एक बड़ा स्वस्थ्य केंद्र है जिसपर समूचे ब्लॉक के दर्जनों गांवों की लाखों आबादी के स्वास्थ्य की देखभाल का जिम्मा है. संसाधनों और चिकित्सकों की कमी से इस वक्त वो हाफ रहा है. यहां कोरोना के साधारण जांच की सुविधा भी है. ऊपर तस्वीर से समझा जा सकता कि केंद्र महामारी को रोकने में भले सक्षम ना हो मगर प्रसार का बड़ा जरिया जरूर बन सकता है. महामारी में हेल्थ केयर सिस्टम को लेकर इसे ग्रामीण भारत की प्रतिनिधि तस्वीर भी मान सकते हैं.
साप्ताहिक बंदी में ले देकर पुलिस गाड़ी मास्किंग और डिस्टेन्शिंग की अपील करते हुए दौड़ती है. नियम सिर्फ पुलिस व्हीकल के गुजरने तक फॉलो होता है. बंदी में दुकानें कैसे चलती हैं इसे जानने के लिए इस वक्त किसी भी गांव या कसबे जाया जा सकता है. हर वो चीज दिखेगी जो इस वक्त परेशान करने वाली है. यहां नियम फ़ॉलो करने वाले तंज का सामना करते हैं. उन्हें बंगाल के चुनावी जलसों और कुछ नेताओं का तर्क दिया जाता है- "कोरोना देश को मूर्ख बनाने के लिए है. कोरोना होता तो वे लोग बिना मास्क के ऐसा करते क्या."
लापरवाही का स्तर कितना खतरनाक और संक्रमण को फैलाने वाला है इसे पंचायत चुनावों की प्रक्रिया से समझिए. एक प्रत्यासी अपने दो समर्थकों के साथ मेरे घर पहुंचा. मैं हर रोज दिनभर महामारी के सबसे खराब पहलुओं और उनसे जुड़ी खबरों से गुजरता हूं. कोरोना को लेकर थोड़ा ज्यादा आग्रही हो गया हूं. प्रत्यासी को पर्याप्त दूरी पर बैठने को कहा. मास्क था नहीं. जब टोका तो गले का गमछा मुंह और नाक पर चढ़ा लिया. मेरे टोकने के बाद गांवों में संक्रमण नहीं फ़ैलने के कई दावे, इसपर माध्यमों की रिपोर्टिंग को डराने वाला और पता नहीं क्या-क्या तर्क उन्होंने मुझे सुनाया.
फोटो- आईचौक.
एक और दूसरे प्रत्यासी समर्थकों संग आए. मास्क लगा था. उनके एक समर्थक ने यूं ही महामारी का जिक्र कर दिया और बताया कि कुछ दिन पहले वो भी कोरोना जैसे लक्ष्ण से गुजरे. मुंह का स्वाद चला गया था और गंध भी. नाक कान और गला चोक था. दवाएं ली. उनका दावा था कि वो ठीक हो गए? मैंने उन्हें लगभग डपटा और तुरंत भगाया. कम से कम आपको और आपके परिवार को कहीं ऐसे आने-जाने से बचना चाहिए. आप दूसरों को संकट में डाल रहे हैं. लेकिन उन्होंने बताया कि वो प्रोटोकॉल फ़ॉलो कर रहे हैं. घर में दूसरे लोग ठीक हैं. उन्होंने कॉटन का मामूली मास्क चढ़ा रखा था.
मेरे ही गांव में एक व्यक्ति की तबियत पिछले 15 दिनों से खराब है. उनका कोई झोला छाप डाक्टर इलाज कर रहा था. मियादी बुखार बता रहा था. मगर आज जब वो अस्पताल पहुंचे तो कोरोना पॉजिटिव निकले. उन्हें भर्ती कर लिया गया है. इस बीच उनके परिवार की सामजिक सक्रियता लगातार जारी थी. ऐसे दर्जनों उदाहरण इन दिनों मैं अपने आस-पास देख सुन रहा हूं.
छींकना, सूखी खांसी, गले का चोक होना और बदन में दर्द की शिकायतें बहुतायत हैं. सब कोरोना के लक्षण से वाकिफ हैं मगर सावधान नहीं. संभवत: यह कोरोना हो. शोधों से पता भी चला है कि काफी लोग खुद ब खुद ठीक हो रहे हैं. और इसे सामान्य वायरल ही समझ रहे. लेकिन समझ के इस माहौल में कोरोना का जो ट्रांसमिशन हो रहा है उसका क्या? हो सकता है कि मौतों के बढ़ने के पीछे भी ये हो. मगर मृतकों की पुरानी बीमारियों के तहत ही इसे देखा जा रहा हो. सरकार तो महामारी की शहरी पीड़ा में व्यस्त है. गांवों में उसकी सक्रियता चुनाव की वजह से नदारद है.
शहरी पीड़ा, पंचायत चुनाव में जुटी मशीनरी के साथ चीजें देखकर लग रहा कि लोगों ने भी आँखों पर रंगीन चश्मा डाल लिया है. कायदे से दूसरी महामारी के खतरनाक फेज में जागरूकता, बचाव और सक्रियता का स्तर वैसा होना चाहिए था जो सालभर पहले दिख रहा था. मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, सूरत जैसे सर्वाधिक संक्रमित शहरों से लगातार लोग आ रहे हैं. लगभग हर गांव और घर में आ रहे हैं.
बाहर से संक्रमण के खतरे को रोकने का इंतजाम, सख्ती से ट्रैवल ट्रांसमिशन के चेकपॉइंट की व्यवस्था ही नहीं है. कुछ रेल स्टेशनों पर व्यवस्था की गई है पर वो पारदर्शी नहीं. पहले दौर में सरकारी स्कूलों, पंचायत, आंगनबाड़ियों और दूसरी संस्थाओं को महामारी की निगरानी और जागरूकता के कामों में लगाया गया था. पंचायतों के क्वारंटीन सेंटर्स में बाहर से आने वालों को रखा जा रहा था. लोगों को घरों में भी एक निश्चित अवधि के लिए क्वारंटीन के आदेश थे. सरकारी सख्ती से निगरानी थी.
सरकार की सुस्ती में जनभागीदारी नजीर बन सकता था. लेकिन पंचायत चुनावों ने मौका ही नहीं छोड़ा. एक महीने पहले तक मुझे लग रहा था कि गांव शहर से ज्यादा सुरक्षित होगा. अब लग रहा है- भले ही संक्रमण के मामले ज्यादा थे, मगर प्राथमिक सरकारी देखभाल और जनजागरूकता के लिहाज से शहर, गांवों से अब भी बहुत बेहतर है. अगर मैं अपने गांव को एक सैम्पल मानूं तो पश्चिम बंगाल और दूसरे चुनावी राज्यों के गांवों में लोगों के स्वास्थ्य को लेकर डरा हुआ हूं.
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