किसी राज्य की भी पुलिस हो. उसका काम क्या है? उसकी ज़िम्मेदारी क्या है? नियम-क़ायदे में रहकर जांच करना. क़ानून का राज क़ायम करना. जनता का ख़याल रखना और असामाजिक तत्वों को क़ानून के दायरे में रहते हुए सज़ा दिलवाना.
लेकिन जब पुलिस को फ़ैसला करने का हुक्म मिल जाए. जब पुलिस को अपराध कम करने के लिए एनकाउंटर करने का खुला आदेश राज्य के मुखिया से मिल जाए. जब फ़र्ज़ी ऐनकाउंटर के आरोपों पर पुलिस का बचाव मुखमंत्री ख़ुद करने लगें तो पुलिस और पुलिसव्यवस्था में काम कर रहे कांस्टेबल, हवलदार, थानेदार और दूसरे अधिकारियों की हिम्मत इस हद तक बढ़ेगी ही कि वो कैमरे के सामने एक लड़की को थप्पड़ मारें. उसे संस्कार की पाठ पढ़ाएँ. रात में अपने घर जा रहे एक आम आदमी के सीने में सामने से गोली ठोक दें.
अब जब ऐसा हुआ है तो यूपी पुलिस से रस्मअदायगी की तरह सवाल पूछे जा रहे हैं. सवाल उठाया जा रहा है कि पुलिस को खुलेआम गोली चलाने का अधिकार किसने दिया? पुलिस आम आदमी को गोली कैसे मार सकती है? पुलिस ने ऐसा कैसे किया? वगैराह, वगैराह.
ये सवाल पूछने वाले या तो सवाल पूछने भर का ढोंग कर रहे हैं या फिर इन सतही सवालों के बहाने असल सवालों की हत्या करना चाहते हैं.
अब ये असल सवाल हैं क्या? इसके पहले एक बात बहुत साफ़ हो जानी चाहिए. देश की नींव रखने वालों ने, देश को बनाने वालों ने ऐसी एक भी संस्था नहीं बनाई जो फ़ालतू हो. हर संस्था सोच-समझ के बनाई गई. लेकिन आजकल एक फ़ैशन है. संस्थाओं के मज़ाक़ बनने का. ये काम नेता तो करते ही हैं, हम-आप भी करते हैं. पिछले दिनों जब मानवाधिकार आयोग ने यूपी पुलिस और राज्य की सरकार से एनकाउंटर्स को लेकर सवाल पूछा था तो कई लोगों ने मज़ाक़ बनाया था. कहा गया था...
किसी राज्य की भी पुलिस हो. उसका काम क्या है? उसकी ज़िम्मेदारी क्या है? नियम-क़ायदे में रहकर जांच करना. क़ानून का राज क़ायम करना. जनता का ख़याल रखना और असामाजिक तत्वों को क़ानून के दायरे में रहते हुए सज़ा दिलवाना.
लेकिन जब पुलिस को फ़ैसला करने का हुक्म मिल जाए. जब पुलिस को अपराध कम करने के लिए एनकाउंटर करने का खुला आदेश राज्य के मुखिया से मिल जाए. जब फ़र्ज़ी ऐनकाउंटर के आरोपों पर पुलिस का बचाव मुखमंत्री ख़ुद करने लगें तो पुलिस और पुलिसव्यवस्था में काम कर रहे कांस्टेबल, हवलदार, थानेदार और दूसरे अधिकारियों की हिम्मत इस हद तक बढ़ेगी ही कि वो कैमरे के सामने एक लड़की को थप्पड़ मारें. उसे संस्कार की पाठ पढ़ाएँ. रात में अपने घर जा रहे एक आम आदमी के सीने में सामने से गोली ठोक दें.
अब जब ऐसा हुआ है तो यूपी पुलिस से रस्मअदायगी की तरह सवाल पूछे जा रहे हैं. सवाल उठाया जा रहा है कि पुलिस को खुलेआम गोली चलाने का अधिकार किसने दिया? पुलिस आम आदमी को गोली कैसे मार सकती है? पुलिस ने ऐसा कैसे किया? वगैराह, वगैराह.
ये सवाल पूछने वाले या तो सवाल पूछने भर का ढोंग कर रहे हैं या फिर इन सतही सवालों के बहाने असल सवालों की हत्या करना चाहते हैं.
अब ये असल सवाल हैं क्या? इसके पहले एक बात बहुत साफ़ हो जानी चाहिए. देश की नींव रखने वालों ने, देश को बनाने वालों ने ऐसी एक भी संस्था नहीं बनाई जो फ़ालतू हो. हर संस्था सोच-समझ के बनाई गई. लेकिन आजकल एक फ़ैशन है. संस्थाओं के मज़ाक़ बनने का. ये काम नेता तो करते ही हैं, हम-आप भी करते हैं. पिछले दिनों जब मानवाधिकार आयोग ने यूपी पुलिस और राज्य की सरकार से एनकाउंटर्स को लेकर सवाल पूछा था तो कई लोगों ने मज़ाक़ बनाया था. कहा गया था कि अपराधियों का कैसा मानवाधिकार? पुलिस को काम करने से क्यों रोका जा रहा है?
याद कीजिए राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का वो बयान जिसमें उन्होंने कहा था, ‘अपराधी या तो जेल में होंगे या ठोंक दिए जाएंगे.’ योगी जी ने बयान दे दिया. जनता ने ताली पीट दी लेकिन किसी ने यह समझने की कोशिश की कि लखनऊ के एक नाके पर खड़े कांस्टेबल ने इस बयान को किस तरह देखा? उसने मुख्यमंत्री द्वारा कहे गए शब्द ‘ठोंक’ का क्या मतलब निकाला?
ना, इसकी परवाह तो किसी ने भी नहीं की. एक और बात है, हम सबको बहुत जल्दी रहती है. हम हर समस्या का हल चुटकी में चाहते हैं. यूपी में अपराध है. अच्छा? चुटकी में इस समस्या का हल चाहिए. सरकार ने पुलिस से कहा-ठोंक दो. पुलिस ने काम शुरू कर दिया.
जिस पुलिस का काम क़ानून का पालन करना था उसने ही क़ानून तोड़ना शुरू कर दिया. जिन्हें गिरफ़्तार किया जा सकता था, पुलिस ने उनको भी ठोंक देना ही उचित समझा. कहीं कैमरे बुलवा कर ठोंके गए तो कहीं ठोंकने के बाद कैमरे बुलवाए गए. राज्य में दहशत का माहौल बना और सबने कहा-अपराध कम तो हुआ है.
किसी ने नहीं कहा कि क्या ख़ाक अपराध काम हुआ है. कई मामलों में पुलिस ख़ुद अपराधियों जैसे व्यवहार करने लगी है.
जिन संस्थाओं ने सवाल उठाया उन्हें ही खरी-खोटी सुनाई गई. उन्हें पुलिस के काम में अड़ंगा डालने वाला बताया गया था. याद रखिए, अपराध चुटकी में ख़त्म नहीं होते. पुलिस को अपराध ख़त्म करने वास्ते हत्यारा नहीं बनाया जाना चाहिए. अगर पुलिस का हर कांस्टेबल, हर हवलदार या थानेदार अपने हिसाब से न्याय करने लगा तो हम-आप त्राहीमाम करने लगेंगे.
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