लिबरल्स की वैचारिकी ने भारत में तिलिस्म का रूप धर लिया है. वे कहां और किसके साथ खड़े हों, क्या कहेंगे और क्या नहीं कहेंगे; आप तय नहीं कर सकते. मगर वह एक कौन है जिसकी वे खिलाफत कर रहे हैं- साफ़ आंखों से देखा जा सकता है. इनके लिए शब्दावली में कोई सटीक परिभाषा या शब्द नहीं मिलता कि लंबा चौड़ा ज्ञान दिए बिना फितरत समझा सकें. जैसे लिबरल्स ने तमाम मुद्दों पर हिंदू दक्षिणपंथ की आलोचना (गरियाना भी समझ सकते हैं) के लिए शानदार चुनिंदा शब्द गढ़ने और उन्हें लोकप्रिय बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है. हाफ पैंट, संघी, माफीवीर जैसे नाजाने कितने शब्द हैं. शब्दों के मायने को समझने की जरूरत नहीं कि असल में अमुख कहना क्या चाहता है. चलिए कोई बात नहीं. भारतीय लिबरल्स को भी 'लिरबरास्टिक' कहा जा सकता है.
अब ये लिरबरास्टिक होता क्या है- इनके गुण-दोष को कर्नाटक में लिंगायत समाज के एक मठ से जुड़े मामले के जरिए बेहतर समझा जा सकता है. लिरबरास्टिक, असल में अमीबा अवस्था है. अमीबा का शरीर बदलता रहता है. यह निश्चित शेप में नहीं होता. यानी वह क्या थी, क्या है और आगे किस तरह दिखेगी- एकदम सटीक-सटीक नहीं बताया जा सकता. लेकिन इससे होने वाले नुकसान का ज्ञान पहले से होता है. जैसे अमीबा शरीर को बीमार करती है बिल्कुल वैसे ही लिरबरास्टिक भी समाज के दिल दिमाग से जुड़ी तमाम बीमारियों की इकलौती वजह है. सामाजिक राजनीतिक बीमारियों को जन्म देने में इनका कोई सानी नहीं. बस, अमीबा की तरह इनका रूप तरंग समझने में कन्फ्यूजन है.
धार्मिक सुधार आंदोलन से निकले हैं लिंगायत
कर्नाटक में लिंगायत एक ताकतवर समुदाय है. यह सनातन की शाखा से निकला है जिसकी बुनियाद कर्मकांड और बहु ईश्वर पूजा का विरोध है. वीर शैव के रूप में भी इनका परिचय दिया जाता है. 12वीं शताब्दी में बासवन्ना के आध्यात्मिक नेतृत्व में धार्मिक आंदोलन ने जोर पकड़ा और कर्नाटक में बदलाव का नेतृत्व किया. उन्होंने तमाम तरह के कर्मकांड का विरोध किया और लिंगायत के रूप में एक आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यवस्था बनाई. लिंगायत, शिव के...
लिबरल्स की वैचारिकी ने भारत में तिलिस्म का रूप धर लिया है. वे कहां और किसके साथ खड़े हों, क्या कहेंगे और क्या नहीं कहेंगे; आप तय नहीं कर सकते. मगर वह एक कौन है जिसकी वे खिलाफत कर रहे हैं- साफ़ आंखों से देखा जा सकता है. इनके लिए शब्दावली में कोई सटीक परिभाषा या शब्द नहीं मिलता कि लंबा चौड़ा ज्ञान दिए बिना फितरत समझा सकें. जैसे लिबरल्स ने तमाम मुद्दों पर हिंदू दक्षिणपंथ की आलोचना (गरियाना भी समझ सकते हैं) के लिए शानदार चुनिंदा शब्द गढ़ने और उन्हें लोकप्रिय बनाने में कामयाबी हासिल कर ली है. हाफ पैंट, संघी, माफीवीर जैसे नाजाने कितने शब्द हैं. शब्दों के मायने को समझने की जरूरत नहीं कि असल में अमुख कहना क्या चाहता है. चलिए कोई बात नहीं. भारतीय लिबरल्स को भी 'लिरबरास्टिक' कहा जा सकता है.
अब ये लिरबरास्टिक होता क्या है- इनके गुण-दोष को कर्नाटक में लिंगायत समाज के एक मठ से जुड़े मामले के जरिए बेहतर समझा जा सकता है. लिरबरास्टिक, असल में अमीबा अवस्था है. अमीबा का शरीर बदलता रहता है. यह निश्चित शेप में नहीं होता. यानी वह क्या थी, क्या है और आगे किस तरह दिखेगी- एकदम सटीक-सटीक नहीं बताया जा सकता. लेकिन इससे होने वाले नुकसान का ज्ञान पहले से होता है. जैसे अमीबा शरीर को बीमार करती है बिल्कुल वैसे ही लिरबरास्टिक भी समाज के दिल दिमाग से जुड़ी तमाम बीमारियों की इकलौती वजह है. सामाजिक राजनीतिक बीमारियों को जन्म देने में इनका कोई सानी नहीं. बस, अमीबा की तरह इनका रूप तरंग समझने में कन्फ्यूजन है.
धार्मिक सुधार आंदोलन से निकले हैं लिंगायत
कर्नाटक में लिंगायत एक ताकतवर समुदाय है. यह सनातन की शाखा से निकला है जिसकी बुनियाद कर्मकांड और बहु ईश्वर पूजा का विरोध है. वीर शैव के रूप में भी इनका परिचय दिया जाता है. 12वीं शताब्दी में बासवन्ना के आध्यात्मिक नेतृत्व में धार्मिक आंदोलन ने जोर पकड़ा और कर्नाटक में बदलाव का नेतृत्व किया. उन्होंने तमाम तरह के कर्मकांड का विरोध किया और लिंगायत के रूप में एक आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यवस्था बनाई. लिंगायत, शिव के 'एकलिंग' की पूजा करते हैं. यह सनातन शैव सम्प्रदाय की ही एक शाखा है. एक ऐसी व्यवस्था जिसमें मंदिर और पुजारी की भी जरूरत नहीं पड़ती. ये लोग सनातन हैं बावजूद वेद से नहीं बंधे हैं. लोग गले में माला के रूप में शिव का पवित्र लिंग भी धारण करते हैं और उसी की पूजा करते हैं.
चूंकि लिंगायत राज्य की आबादी में 17 फीसदी हैं. यही वजह है कि कर्नाटक का हर राजनीतिक धड़ा इनका समर्थन लेने की कोशिश में दिखता है. और जब राज्य में विधानसभा चुनाव होने को हों तब तो यह उफान पर रहता ही है. वैसे लिंगायतों का बेस सपोर्ट भाजपा के साथ हैं. कर्नाटक के मौजूदा भाजपाई मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई भी शामिल हैं. शायद इसी ताकत को साथ बनाए रखने के की मजबूरी में ही भाजपा ने पूर्व सीएम येदियुरप्पा को हाल ही में संसदीय बोर्ड में जगह देकर संदेश देने की कोशिश की थी. कर्नाटक में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं. भला यह कैसे हो सकता है कि कर्नाटक में चुनाव हैं और लिंगायतों पर लिबरल्स का 'लिरबरास्टिक' रवैया ना दिखे. याद ही होगा कि साल 2017 में कर्नाटक में किस तरह मामले को तूल पकड़ाया गया था.
पहले कहा कि लिंगायत हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं, संत पर रेप का आरोप लगते ही फिर हिंदू बना दिया
असल में तब लिंगायतों ने खुद को अलग धर्म के रूप में मान्यता देने की मांग की थी. कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने लिंगायतों के अलग धर्म के मुद्दे को जमकर हवा दी. उन्होंने उनकी मांग का खुलेआम समर्थन किया अथा. समूचे देश में एक बहस खड़ी हो गई. बहस ऐसी कि एक पल को यह भी लगने लगा कि लिंगायत और हिंदू आमने-सामने ही आ जाएंगे. यह भाजपा के हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के खिलाफ सिद्धारमैया की कोशिश थी. भाजपा ने आरोप भी लगाया था कि कांग्रेस सनातनियों को बांटकर सत्ता बरकरार रखने की कोशिश में है. उस बहस में लिबरल्स ने साबित ही कर दिया कि लिंगायत हिंदू धर्म का कभी हिस्सा नहीं हो सकते हैं. लिंगायतों के बहाने हिंदुओं की धार्मिक परंपरा पर खूब निशाना साधा गया. रैलियां तक हुईं जिसमें हजारों लाखों की संख्या में लिंगायत समाज के लोग जुटे थे.
लिंगायत पर खड़ी हुई बहस ने कर्नाटक से बाहर तक सफ़र तय किया. उदाहरण के लिए झारखंड में भी 'सरना' (आदिवासियों का एक धार्मिक सम्प्रदाय) ने खुद के लिए पृथक धार्मिक व्यवस्था की मांग की. खैर. लिंगायत पर लिबरल्स का 'लिरबरास्टिक' रवैया अब फिर दिख रहा है. कर्नाटक में लिंगायतों का सबसे प्रभावशाली और प्रसिद्ध मठ के रूप में मशहूर मुरुगाराजेंद्र मठ है. यह लिंगायत के संस्थापक गुरु बासवन्ना के मूल दर्शन को मानता है. इसके मुखिया डॉ. शिवमूर्ति मुरुगा शरणरु हैं. मठ का असर पिछड़ी, दलित और आदिवासी समुदायों में बहुत गहरी है. कई शैक्षणिक और आध्यात्मिक संस्थाएं संचालित की जाते हैं. किनमें कई संस्थाएं आवासीय हैं. मठ के ऐसे ही एक हॉस्टल में रहने वाली दो नाबालिग लड़कियों ने डॉ. शिवमूर्ति मुरुगा समेत कुछ लोगों पर यौन शोषण के आरोप लगाए हैं.
केसरिया बाने पर हमला करने का मौका नहीं चूकते लिबरल, उसके लिए म्यांमार तक चले जाएंगे
आरोप बहुत गंभीर हैं और फिलहाल कानूनी प्रक्रिया में हैं. मामले में दोषसिद्ध आरोपियों को सख्त से सख्त नजीर पेश करने वाली सजा मिलनी ही चाहिए. उसमें गुंजाइश भारतीय समाज व्यवस्था के लिए उचित तो नहीं ही कहा जा सकता. लेकिन लिबरल्स का लिरबरास्टिक रवैया गौर करने लायक है. कांग्रेस की सरकार में उन्हें पांच साल पहले जो लिंगायत हिंदुओं से अलग एक पृथक धर्म नजर आ रहा था अब वह सनातन का अनादी अनंत हिस्सा बन गया है. हमले कुछ इस तरह किए जा रहे कि केसरिया बाना ओढ़े साधु संन्यासी धर्म गुरु असल में व्यभिचारी, आततायी और ना जाने क्या क्या हैं. कुछ यहां तक सलाह दे रहे कि ऐसे संन्यासियों से बच कर रहें.
इसी तरह कुछ साल पहले जब म्यांम्यार में बौद्ध जनता ने वहां के अल्पसंख्यक रोहिंग्या समुदाय पर हमले शुरू किए तो बौद्ध संत विराथू को इसकी वजह बताया गया था. यह सच है कि विराथू ने धार्मिक आधार पर रोहिंग्याओं के खिलाफ आपत्तिजनक अपील की थी. तब भी कहा गया कि केसरिया बाना ओढ़े संत हकीकत में ऐसे ही होते हैं. केसरिया बाने को नीचा दिखाने के लिए लिबरल्स के समूह विराथू को म्यांम्यार से भारत घसीट लाए. अब भला रोहिंग्याओं पर हुए यातनापूर्ण हमले में भगवान बुद्ध और उनके दर्शन की भूमिका कैसे निर्धारित की जा सकती है? लेकिन यही लिबरल समूह उइगर के लिए ना तो चीन पहुंच पाता है और ना ही दलित हिंदुओं या सिखों के लिए पाकिस्तान.
डॉ. शिवमूर्ति मुरुगा हों या विराथू- इनके बहाने धर्म और उसकी व्यवस्था की जमकर निंदा की गई. मानों वे जिन धार्मिक मान्यताओं सम्रदायों का प्रतिनिधित्व करते हैं उसकी शिक्षा के मूल में ही उत्पीड़न और व्यभिचार का दर्शन छिपा है. जबकि उनकी धार्मिक किताबों में दुनिया के उच्चतम मानवीय मूल्य हैं. मगर लिरबरास्टिक रवैये ने कुछ फौरी घटनाओं से सनातन का अवगुण स्थापित करने में कोई कसर नहीं बाकी रखी. डॉ. शिवमूर्ति मुरुगा पर जो आरोप लगे हैं- हो सकता है कि वे दोषी हों मगर कोई यह कैसे भूल सकता है कि गुरु बासवन्ना और लिंगायत इसके लिए दोषी कैसे हो सकता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि लिबरल्स लिंगायत धर्मगुरु के खिलाफ लगे आरोपों को विपक्षी धार्मिक राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल तो नहीं कर रहे हैं.
असल में कर्नाटक में धार्मिक वर्चस्व की गतिविधियां दिखती हैं. और वह हर धर्म की तरफ से है. ईसाई और इस्लाम धर्मांतरण की कोशिश में लगे हैं. जवाब में लिंगायतों की भूमिका भी धर्मांतरण में महत्वपूर्ण हो गई है. शिक्षा जैसे समाज से जुड़े सेवाकार्यों को फोकस करने की वजह से लिंगायत पहले से जारी धर्मांतरण के खिलाफ एक चुनौती की तरह खड़े हुए हैं. लिंगायतों के एकेश्वरवाद ने कई भारतवंशी मुसलमानों को आकर्षित किया है और हाल के कुछ वर्षों में बड़े पैमाने पर भारतवंशी मुसलमनों ने दीक्षा भी ले ली है. हो सकता है कि आरोपों में सच्चाई हो मगर एक बात तो साफ़ साफ़ दिखती है कि लिबरल्स को केसरिया बाने से बहुत दिक्कत है. वह चाहे कोई बौद्ध पहने, सिख पहने या लिंगायत.
लिबरल्स के निशाने पर केसरिया क्यों है इसको ऐसे भी समझें कि लिंगायत उत्तर के क्षेत्रों में कोई मसला नहीं. बावजूद यहां बौद्धिक धड़ उनपर खूब बात करता है. जबकि दक्षिणी राज्यों केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से पादरियों और मौलवियों से जुड़े कई दर्जन से ज्यादा व्यभिचार और उत्पीड़न के मामले आए हैं. उन्हें कभी बहस का विषय नहीं बनाया गया. लगता तो यही है कि कुछ लोग लिंगायत धर्मगुरु पर लगे आरोपों का धार्मिक राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश में हैं. अब लिंगायतों पर वे चाहे समर्थन करें या विरोध, एजेंडा एक ही दिखता है- सनातन के अध्यात्म और दर्शन को नीचा दिखाना.
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