बेहतर समाज के लिए सिनेमा और साहित्य दोनों ही जरूरी हैं. ये दोनों ही, समाज का वो आईना है. जिसमें जब व्यक्ति अपने आप को देखता है तो या तो वो अपने कर्मों पर गर्व करता है या फिर शर्मिंदा होकर आत्म सात करता है. व्यक्ति के जीवन में गर्व के कारण कम ही होते हैं, शर्मिंदा वो ज्यादा होता है. कहा ये भी जा सकता है कि शर्मिंदा व्यक्ति ज्यादा रचनात्मक होता है. शायद आप इस बात को न मानें, मगर जब आप इसे मशहूर व्यंगकार हरिशंकर परसाई के चश्मे से देखेंगे तो शायद ये बातें आपको सही लगेंगी.
हां वही परसाई जो 22 अगस्त के दिन हमारे सामज में, हमारे बीच आए और उसके बाद अपने बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से होते हुए बुढ़ापे तक, जो उन्होंने देखा उसे अपनी कलम से कागजों पर उतारा. आज हमारे बीच उनका लिखा किसी नजीर से कम नहीं है. परसाई ने जो अपने वक्त में लिखा था वो आज भी उतना ही बड़ा सत्य है जितना वो उस समय हुआ करता था.
परसाई को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वो तब जिन मुद्दों पर लिख रहे थे, आज भी हम उन्हीं मुद्दों से घिरे हैं. और लगातार उन्हीं मुद्दों के दलदल में और अन्दर तक धंसते चले जा रहे हैं. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि परसाई को पढ़ते हुए हमारे सामने कुछ प्रश्न उठते हैं. वो प्रश्न जो हमारे भूत, हमारे वर्तमान, हमारे भविष्य से जुड़े हैं.
परसाई ने भी भूत में, सड़क किनारे पन्नी खाती गाय देखी, मगर हमारी आपकी तरह उसे अनदेखा नहीं किया. बल्कि उसपर लिखा. 60 के दशक में उन्होंने गाय की स्थिति पर जो लिखा था, उसको पढ़कर हमें चुल्लू भर पानी में डूब के तभी मर जाना चाहिए था. तब की सड़कों पर घूमती गाय की स्थिति पर परसाई ने कहा था कि, 'विदेशों में जिस गाय का दूध बच्चों को पुष्ट कराने के काम...
बेहतर समाज के लिए सिनेमा और साहित्य दोनों ही जरूरी हैं. ये दोनों ही, समाज का वो आईना है. जिसमें जब व्यक्ति अपने आप को देखता है तो या तो वो अपने कर्मों पर गर्व करता है या फिर शर्मिंदा होकर आत्म सात करता है. व्यक्ति के जीवन में गर्व के कारण कम ही होते हैं, शर्मिंदा वो ज्यादा होता है. कहा ये भी जा सकता है कि शर्मिंदा व्यक्ति ज्यादा रचनात्मक होता है. शायद आप इस बात को न मानें, मगर जब आप इसे मशहूर व्यंगकार हरिशंकर परसाई के चश्मे से देखेंगे तो शायद ये बातें आपको सही लगेंगी.
हां वही परसाई जो 22 अगस्त के दिन हमारे सामज में, हमारे बीच आए और उसके बाद अपने बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से होते हुए बुढ़ापे तक, जो उन्होंने देखा उसे अपनी कलम से कागजों पर उतारा. आज हमारे बीच उनका लिखा किसी नजीर से कम नहीं है. परसाई ने जो अपने वक्त में लिखा था वो आज भी उतना ही बड़ा सत्य है जितना वो उस समय हुआ करता था.
परसाई को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वो तब जिन मुद्दों पर लिख रहे थे, आज भी हम उन्हीं मुद्दों से घिरे हैं. और लगातार उन्हीं मुद्दों के दलदल में और अन्दर तक धंसते चले जा रहे हैं. कुल मिलाकर कह सकते हैं कि परसाई को पढ़ते हुए हमारे सामने कुछ प्रश्न उठते हैं. वो प्रश्न जो हमारे भूत, हमारे वर्तमान, हमारे भविष्य से जुड़े हैं.
परसाई ने भी भूत में, सड़क किनारे पन्नी खाती गाय देखी, मगर हमारी आपकी तरह उसे अनदेखा नहीं किया. बल्कि उसपर लिखा. 60 के दशक में उन्होंने गाय की स्थिति पर जो लिखा था, उसको पढ़कर हमें चुल्लू भर पानी में डूब के तभी मर जाना चाहिए था. तब की सड़कों पर घूमती गाय की स्थिति पर परसाई ने कहा था कि, 'विदेशों में जिस गाय का दूध बच्चों को पुष्ट कराने के काम आता है, वही गाय भारत में दंगा कराने के काम में आती है'.
इस कथन की सच्चाई देखिये. आज भी कायम है. इस कथन को बार-बार पढ़िये, दोहरा-दोहरा के पढ़िये. पता चलेगा कि देश में गाय को लेकर तब भी ऐसे ही राजनीति होती थी, जैसी आज हो रही है. गाय पर हो रही राजनीति पर तब परसाई ने लिखा था, 'इस देश में गौरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है, मनुष्य रक्षा का मुश्किल से एक लाख का.
उन्होंने ये भी लिखा कि, 'अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गौरक्षा आंदोलन का नेता जूतों की दुकान खोल लेता है'. आज के वक्त में तब के परसाई के इस व्यंग्य को समझिये तो मिलेगा कि तब के परसाई भारतीय समाज के अरस्तु थे. शायद परसाई तब ही ये देख चुके थे कि आने वाले समय में भारत की दशा क्या और कैसी होगी.
विश्वास करिए, परसाई ने सब कुछ लिखा है. उन्होंने झील, पोखर, नदी, नाले, घूस, चंदे, भ्रष्टाचार हर उस विषय पर लिखा है. जिनको देखकर हम और आप केवल सोच ही पाते हैं. और हाय, उफ या हे-भगवान करते रह जाते हैं.
अपने समय में परसाई ने व्यवस्था पर एक बहुत व्यंग्य लिखा था. उस व्यंग्य का अंश है कि-
'एक छोटी-सी समिति की बैठक बुलाने की योजना चल रही थी. एक सज्जन थे जो समिति के सदस्य थे, पर काम कुछ करते नहीं गड़बड़ पैदा करते थे और कोरी वाहवाही चाहते. वे लंबा भाषण देते थे. वे समिति की बैठक में नहीं आवें ऐसा कुछ लोग करना चाहते थे, पर वे तो बिना बुलाए पहुंचने वाले थे. फिर यहां तो उनको निमंत्रण भेजा ही जाता, क्योंकि वे सदस्य थे. एक व्यक्ति बोला, 'एक तरकीब है, सांप मरे न लाठी टूटे. समिति की बैठक की सूचना 'नीचे यह लिख दिया जाए कि बैठक में बाढ़-पीड़ितों के लिए धन-संग्रह भी किया जाएगा. वे इतने उच्चकोटि के कंजूस हैं कि जहां चंदे वगैरह की आशंका होती है, वे नहीं पहुंचते.' आज देश में बहुतेरे नेता ऐसे दिखेंगे, जो अपनी रोटी सेंकने के लिए पराई आग का भरपूर उपयोग करते हैं.
आज भारत में हर व्यक्ति या तो इंजीनियर बनना चाहता है या फिर लेखक. नए उभरते लेखकों पर भी परसाई ने कटाक्ष किया था. इस पर परसाई ने लिखा था कि, 'उस दिन एक कहानीकार मिले. कहने 'लगे, 'बिल्कुल नयी कहानी लिखी है, बिल्कुल नयी शैली, नया विचार, नयी धारा. ' हमने कहा ' क्या शीर्षक है? '' वे बोले, 'चांद सितारे अजगर सांप बिच्छू झील.'
परसाई के व्यक्तित्व को देखें तो मिलता है कि वो एक ऐसे पेंटर थे जिसने हमेशा पेंटिंग के लिए बड़े कैनवास का इस्तेमाल किया. हिन्दी के तमाम साहित्यकारों और लेखकों में ये गुण केवल परसाई के पास था कि केवल वही भारत के राजनीतिक - सामाजिक परिदृश्य को देख पाए और उसे हू-ब-हू हमारे सामने पेश किया.
आज हमारा समाज तमाम तरह के पाखंड और दकियानूसी बातों से पटा पड़ा है. समाज के ऐसे पाखंडियों पर परसाई ने अपनी स्थिति साफ कर दी थी. इस पर परसाई ने कहा था कि. 'मानवीयता उन पर रम की किक की तरह चढ़ती है. उन्हें मानवीयता के 'फिट' आते हैं. परसाई भारत के प्रत्येक नागरिक को अद्भुत सहनशीलता और भयानक तटस्थता का प्रतीक मानते थे. अपनी कई रचनाओं में परसाई ने ये बात मानी थी कि. इस देश में आप आदमी ने जन्म ही केवल शोषण करने और शोषण सहने के लिए लिया है.
हाल के दिनों में लोगों को धर्म के नाम पर भीड़ द्वारा मारा जा रहा है. इस पर भी परसाई के अपने अलग लॉजिक थे. इसपर परसाई ने कहा था कि 'दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है.
यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.'
परसाई ने ये बात 1991 में कही थी, हम 2017 में रह रहे हैं, आज उस बात को कहे हुए 26 वर्ष हो चुके हैं मगर इस बात का कोई असर नहीं हुआ है. हां बस भीड़ के स्वभाव में फर्क आया है. कह सकते हैं कि पूर्व की अपेक्षा आज की भीड़ ज्यादा उग्र और हिंसक है. आवारा भीड़ के खतरों को देखें तो मिलता है कि परसाई सही हैं. सही इसलिए क्योंकि, 'जो अपने युग के प्रति इमानदार नहीं है, वह अनंत काल के प्रति क्या इमानदार होगा'.
अंत में इतना ही कि दुनिया के पागलों को शुद्ध पगला और भारत के पागलों को आध्यात्मिक मानने वाले हरिशंकर परसाई के बर्थ डे पर ईश्वर से यही कामना है कि वो पारसाई जी की आत्मा को 'हेवन' मतलब स्वर्ग में स से सेब, अ से अनार और अंग से अंगूर खाने का मौका दे. हेवन में खजूर मैंडेटरी है तो कामना ये भी है कि वहां उन्हें प्लेट भर के खजूर मिले. परसाई के बारे में ये कहना अतिश्योक्ति न होगा कि, भूत से लेकर वर्तमान तक न इनके जैसा कोई था और शायद भविष्य में भी कोई इनका स्थान न ले पाए.
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