महात्मा गांधी ने कभी कामना की थी कि वो सवा सौ साल जीना चाहते हैं. उनकी कामना को इस कल्पना से जोड़ दीजिए कि गांधी डेढ़ सौ साल जीवित होते, तो इस वक्त हमारे बीच होते. अगर वो हमारे बीच होते तो क्या करते? क्या वो देश भर में चल रहे स्वच्छता ही सेवा है वाले अभियान का हिस्सा बनते और किसी पोरबंदर में झाड़ू लगा रहे होते? या वो सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ते? सत्य और अहिंसा के अपने आग्रह को इस देश के लिए निर्णायक सत्य बनाने की लड़ाई लड़ते या उनकी लड़ाई का दायरा कुछ और होता?
आप कह सकते हैं कि गांधी जैसे 'अराजक' व्यक्तित्व के बारे में ये कयास लगाना मुश्किल है कि वो किस घड़ी में क्या करते. खुद उनकी जिंदगी के तमाम फैसले ऐसे ही चौंकाते रहे हैं. 1922 में जिस वक्त उनका असहयोग आंदोलन चरम पर था, उसी वक्त उत्तर प्रदेश के चौरीचौरा में उत्तेजित लोगों ने जब 22 पुलिसकर्मियों को जिंदा जला दिया तो अपना आंदोलन वापस ले लिया.
जिस वक्त कांग्रेस ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपना अध्यक्ष बनाने की ठान ली, उस वक्त वो पट्टाभि सीतारमैया के पक्ष में अड़ गए और उनकी हार पर सार्वजनिक बयान दिया कि सीतारमैया की हार मेरी हार है. और दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जिस वक्त देश सोच नहीं पा रहा था कि करना क्या है, गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का अलख जगाकर देश के सामने एक नई चुनौती उछाल दी- करो या मरो.
जिस आजादी के वो सबसे बड़े योद्धा, सबसे बड़े नायक थे, उसी आजादी की घड़ी में वो सबसे ज्यादा दुखी, हताश-निराश और फिर से एक नई लड़ाई का तानाबाना बुन रहे थे. ये सारे घटनाक्रम बताते हैं कि गांधी के कदम किसी अनुमान की सड़क पर नहीं, बल्कि अपनी अंतरात्मा की बनायी पगडंडी पर बढ़ते थे. अकेले हों तब भी....
महात्मा गांधी ने कभी कामना की थी कि वो सवा सौ साल जीना चाहते हैं. उनकी कामना को इस कल्पना से जोड़ दीजिए कि गांधी डेढ़ सौ साल जीवित होते, तो इस वक्त हमारे बीच होते. अगर वो हमारे बीच होते तो क्या करते? क्या वो देश भर में चल रहे स्वच्छता ही सेवा है वाले अभियान का हिस्सा बनते और किसी पोरबंदर में झाड़ू लगा रहे होते? या वो सरकार की आर्थिक नीतियों के खिलाफ लड़ाई छेड़ते? सत्य और अहिंसा के अपने आग्रह को इस देश के लिए निर्णायक सत्य बनाने की लड़ाई लड़ते या उनकी लड़ाई का दायरा कुछ और होता?
आप कह सकते हैं कि गांधी जैसे 'अराजक' व्यक्तित्व के बारे में ये कयास लगाना मुश्किल है कि वो किस घड़ी में क्या करते. खुद उनकी जिंदगी के तमाम फैसले ऐसे ही चौंकाते रहे हैं. 1922 में जिस वक्त उनका असहयोग आंदोलन चरम पर था, उसी वक्त उत्तर प्रदेश के चौरीचौरा में उत्तेजित लोगों ने जब 22 पुलिसकर्मियों को जिंदा जला दिया तो अपना आंदोलन वापस ले लिया.
जिस वक्त कांग्रेस ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस को अपना अध्यक्ष बनाने की ठान ली, उस वक्त वो पट्टाभि सीतारमैया के पक्ष में अड़ गए और उनकी हार पर सार्वजनिक बयान दिया कि सीतारमैया की हार मेरी हार है. और दूसरे विश्वयुद्ध के साए में जिस वक्त देश सोच नहीं पा रहा था कि करना क्या है, गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का अलख जगाकर देश के सामने एक नई चुनौती उछाल दी- करो या मरो.
जिस आजादी के वो सबसे बड़े योद्धा, सबसे बड़े नायक थे, उसी आजादी की घड़ी में वो सबसे ज्यादा दुखी, हताश-निराश और फिर से एक नई लड़ाई का तानाबाना बुन रहे थे. ये सारे घटनाक्रम बताते हैं कि गांधी के कदम किसी अनुमान की सड़क पर नहीं, बल्कि अपनी अंतरात्मा की बनायी पगडंडी पर बढ़ते थे. अकेले हों तब भी. बल्कि यह कहिए कि अकेले ही.
70 साल पहले गांधी ने अपनी सालगिरह नहीं मनायी क्योंकि आजाद भारत की विकृतियां उनकी आत्मा को इसकी इजाजत नहीं दे रही थीं. आज तो समाज और सभ्यता की विकृतियां कहीं ज्यादा बढ़ गई हैं. उस वक्त तो फिर भी एक संभावना बनी हुई थी कि समाज बदलेगा और सदियों की गुलामी में डूबा रहा एक देश जनतंत्र की सारी अच्छाइयों और उम्मीदों के साथ सामने आएगा. इसीलिए आज गांधी होते तो संभव है कि वो अपने गृह प्रदेश गुजरात के आणंद जिले के छोटे से गांव भादरिया में होते, जहां एक दलित युवक की हत्या इसलिए कर दी गई कि उसने गरबा नृत्य देखने का 'जुर्म' किया था.
हो सकता है कि गांधी वहीं से उन हुक्मरानों को आईना दिखाते, जिनको तन की स्वच्छता तो दिखती है लेकिन मन की वो स्वच्छता नहीं दिखती, जिसके बगैर कोई निर्मल समाज नहीं बनता. एक साफ-सुथरा समाज बनाने के लिए वो खड़ा होते, जिसमें हाशिए पर खड़ा आदमी भी महसूस करे कि ये देश उसका है, इस देश के लोग उसके हैं और गांधी का ये देश उसके रंग-नस्ल-लिंग-भाषा के आधार पर उससे भेदभाव नहीं करेगा.
गांधी को हमने भौतिक और वैचारिक दोनों तरीके से मार डाला, इसलिए ये सपना यूटोपिया ही बना रहा. 70 साल पहले गांधी ने कल्पना की थी कि कोई दलित महिला राष्ट्रपति बने. 50 साल पहले एक दलित देश का राष्ट्रपति बना और 70वें साल में दूसरी बार ये मौका एक दलित को मिला. लेकिन इससे दलितों की जिंदगी में क्या फर्क आया? और खुद गांधी के ही गुजरात में ही क्या बदला, जिसको चमकाने और बनाने का दावा आज तो बहुत से बड़े बड़े लोग करते हैं? दलितों के यथार्थ की चौखट पर सारे दावे दम तोड़ देते हैं.
ऊना की घटना भूली नहीं जब गोरक्षा के नाम पर उनकी खाल उधेड़ दी गई थी कि अब गरबा नृत्य देखना किसी के लिए मौत का परवाना ले आया. 30 जनवरी 1948 को गांधी की हत्या के पीछे हत्यारों का तर्क ये था कि गांधी मुसलमानों और पाकिस्तान का नाहक पक्ष ले रहे हैं.
आज गांधी होते तो उनके राज्य में दलितों का उत्पीड़न उनको नए आंदोलन के लिए मजबूर करता और तब शायद फिर से उनके सीने में तीन नहीं, तीन सौ गोलियां उतार दी जातीं क्योंकि तब वो इस 'राष्ट्रवादी' समाज के लिए सबसे बड़ा खतरा नजर आते. गांधी रस्मों-कसमों में ही अच्छे लगते हैं, आचरण में नहीं! अगर गलत कह रहा हूं तो उनसे पूछ लीजिए जिनके मुंह में गांधी होते हैं और बगल में नफरत की छूरी.
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