कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि हालात ऐसे रहे तो अगला युद्ध पानी को लेकर ही होगा. संयोग है कि जब वाजपेयी ने यह बात कही थी, तब भी कावेरी का झगड़ा था और अब जो कर्नाटक की सड़कों पर दिख रहा है, उससे यही दिख रहा है कि वक्त बदल गया, हालात नहीं. और हालात बदले भी क्यों, समस्या को मुद्दे से हटाकर भावनात्मक और राजनीतिक ज्यादा बना दिया गया है.
हालात जो सड़कों पर दिखे, वो एक आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकते, ये स्पष्ट गुंडागर्दी है. लोगों को पकड़-पकड़ कर पीटा जा रहा है, उनके वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाले जा रहे हैं, बसों में आग लगाई गई, मैसेज-वीडियो वॉयरल कर माहौल को गरमाया जा रहा है. निजी वाहनों को नंबर प्लेट चेक कर टारगेट किया जा रहा है. तो क्या यह आग पानी के लिए है और जब सड़क पर हिंसा का नंगा नाच चल रहा है, तो पुलिस प्रशासन कहां है, यह किसकी जवाबदेही है.
सड़कों पर पसरी है हिंसा |
हर छोटे-मोटे मामले पर केंद्र पर सवाल खड़ा करने वाली कांग्रेस और उनका नेतृत्व क्या इस बात का जवाब देगा कि हिंसा में जिनका नुकसान हो रहा है, उनकी भरपाई कौन करेगा. अब आप खुद समझिए कि यह समस्या आजादी के पहले से चली आ रही है. देश के संसाधनों पर किसकी कितनी हिस्सेदारी हो और किस नियम के तहत हो, इस बारे में कभी गंभीरता से विचार तो हुआ नहीं. ले-देकर 1956 में एक अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद कानून बना, पर ऐसी स्थिति में उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए, पता नहीं चल पाता.
यह समस्या किसी एक राज्य विशेष से भी जुड़ी नहीं रही, लेकिन राजनैतिक हंगामा जितना कावेरी जल बंटवारे को लेकर देखने को मिल रहा है, उतना कहीं और देखने को नहीं...
कभी भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि हालात ऐसे रहे तो अगला युद्ध पानी को लेकर ही होगा. संयोग है कि जब वाजपेयी ने यह बात कही थी, तब भी कावेरी का झगड़ा था और अब जो कर्नाटक की सड़कों पर दिख रहा है, उससे यही दिख रहा है कि वक्त बदल गया, हालात नहीं. और हालात बदले भी क्यों, समस्या को मुद्दे से हटाकर भावनात्मक और राजनीतिक ज्यादा बना दिया गया है.
हालात जो सड़कों पर दिखे, वो एक आंदोलन का हिस्सा नहीं हो सकते, ये स्पष्ट गुंडागर्दी है. लोगों को पकड़-पकड़ कर पीटा जा रहा है, उनके वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाले जा रहे हैं, बसों में आग लगाई गई, मैसेज-वीडियो वॉयरल कर माहौल को गरमाया जा रहा है. निजी वाहनों को नंबर प्लेट चेक कर टारगेट किया जा रहा है. तो क्या यह आग पानी के लिए है और जब सड़क पर हिंसा का नंगा नाच चल रहा है, तो पुलिस प्रशासन कहां है, यह किसकी जवाबदेही है.
सड़कों पर पसरी है हिंसा |
हर छोटे-मोटे मामले पर केंद्र पर सवाल खड़ा करने वाली कांग्रेस और उनका नेतृत्व क्या इस बात का जवाब देगा कि हिंसा में जिनका नुकसान हो रहा है, उनकी भरपाई कौन करेगा. अब आप खुद समझिए कि यह समस्या आजादी के पहले से चली आ रही है. देश के संसाधनों पर किसकी कितनी हिस्सेदारी हो और किस नियम के तहत हो, इस बारे में कभी गंभीरता से विचार तो हुआ नहीं. ले-देकर 1956 में एक अंतर्राज्यीय नदी जल विवाद कानून बना, पर ऐसी स्थिति में उसकी भूमिका क्या होनी चाहिए, पता नहीं चल पाता.
यह समस्या किसी एक राज्य विशेष से भी जुड़ी नहीं रही, लेकिन राजनैतिक हंगामा जितना कावेरी जल बंटवारे को लेकर देखने को मिल रहा है, उतना कहीं और देखने को नहीं मिला. कायदे से देखिए 802 किलोमीटर लंबी इस कावेरी नदी का 44 हजार किलोमीटर का बेसिन एरिया तमिलनाडु में और 32 हजार किलोमीटर का बेसिन क्षेत्र कर्नाटक में पड़ता है. आजादी से पहले जब मद्रास प्रेसीडेंसी हुआ करता था तब से बवाल जारी है और आजादी से पहले 1892 और 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी और मैसूर राज्य के साथ समझौता भी हुआ, पर तब से जारी बवाल थमने का नाम नहीं ले रहा.
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कर्नाटक का कहना है कि ये समझौते मद्रास प्रेसीडेंसी के पक्ष में ज्यादा थे और कर्नाटक के हितों की अनदेखी की गई और उधर तमिलनाडु की दलील है कि 12 हजार किलोमीटर क्षेत्र की खेती पूरी तरह से कावेरी पर निर्भर है और किसी भी परिवर्तन से हजारों किसानों की आजीविका पर बुरा असर पड़ेगा. कावेरी जल बंटवारे का मामला चूंकि चार राज्यों से जुड़ा है, जिसमें केरल औऱ पुडुचेरी भी शामिल हैं, लिहाजा 1990 में केंद्र ने एक ट्रिब्यूनल बनाया गया जो 16 साल तक सुनवाई करता रहा.
जाहिर है मकसद समस्या को सुलझाने से ज्यादा लटकाए रखने में रहा होगा. 2007 में ट्रिब्यूनल ने जो फैसला किया और जो उपाय सुझाया, वो भी राज्यों को मान्य नहीं था. मजे की बात यह थी कि तीन सदस्यीय ट्रिब्यूनल केंद्र ने खुद नहीं बनाया, सुप्रीम कोर्ट के दबाव में तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने बनाया था. इस ट्रिब्यूनल के सामने भी तमिलनाडु 1892 और 1924 समझौते की दुहाई देता रहा. बाद में ट्रिब्यूनल के सुझावों के खिलाफ कर्नाटक अध्यादेश लाया गया, जिसे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया.
1991 में आए ट्रिब्यूनल के फैसले को लेकर ही कर्नाटक में रोष है |
1991 में ट्रिब्यूनल ने जो फैसला सुनाया, तब से कर्नाटक में फैसले को लेकर रोष है. अब दिक्कत यह है कि मामला कानूनी से ज्यादा राजनीतिक हो चुका है. अगर कर्नाटक में बारिश कम हुई, तमिलनाडु से सहयोग की दरकार थी, तो यह कोई भारत-पाक का मसला नहीं था, जिसपर बातचीत नहीं की जा सकती थी. केंद्र को भी जरूर इस मसले की गंभीरता का अहसास रहा होगा, अब प्रधानमंत्री भी अपील कर रहे हैं. पर वक्त रहते दोनों राज्यों के बीच बातचीत होनी चाहिए थी और संविधान के अनुच्छेद 262 के तहत पूरी व्यवस्था भी है कि ऐसे मौकों पर केंद्र को दखल देना चाहिए.
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पहले सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक को 15,000 क्यूसेक पानी छोड़ने को कहा, कर्नाटक ने दोबारा सुप्रीम कोर्ट में अपील की और इसे कम करने को कहा, लेकिन इस बीच जिन घटनाओं की शुरूआत हुई, वो चिंताजनक था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने अगले आदेश में 15,000 क्यूसेक पानी की जगह 20 सिंतबर तक 12,000 क्यूसेक पानी रिलीज करने का आदेश दिया, लेकिन इस आदेश के देते वक्त बेंच की जो टिप्पणी थी, वह गौर करने लायक थी. बेंच ने कहा कि सिर्फ कानून-व्यवस्था का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अनदेखी नहीं की जा सकती. लोगों को कानून हाथ में लेने की इजाजत नहीं दी जा सकती और कानून-व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी प्रशासन की है. बेंच ने यहां तक कहा कि आंदोलन का महिमामंडन होना भी नहीं चाहिए.
पर पिछले दो दिनों से जो कुछ भी हो रहा है कि उसमें समाधान की उम्मीद कम, राजनीति की गंध ज्यादा है. दोनों राज्यों में सर्वदलीय बैठकें हो रही हैं, पत्र लिखे जा रहे हैं, अपील की जा रही है, सहयोग मांगा जा रहा है. हर छोटे-मोटे कानून-व्यवस्था से जुड़े मसले पर केंद्र पर हमला करने वाली कांग्रेस को क्या अब बेंगलुरू की सड़कों के दृश्यों से परेशानी नहीं हो रही.
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