कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया में इंसानी जान की कोई कीमत नहीं है. लोग बीच चौराहे काट दिए जाते हैं, लेकिन रास्ते में चलते अन्य लोग कुछ नहीं करते. हाल ही में भारत में ऐसे दो मामले सामने आए हैं जिनके बारे में सोचकर ही दिल बैठ जाए. पहला मामला हैदराबाद का है जहां एक ऑटोड्रायवर ने किराए को लेकर एक मटन शॉप के मालिक से बहस की और फिर उसे बीच सड़क पर काट दिया. आते-जाते लोगों में से एक ने सिर्फ 'ऐ' चिल्लाया. दूसरा मामला है दिल्ली का जहां पर एक 23 साल के लड़के को 25 लोगों की भीड़ ने दौड़ा-दौड़ा कर मारा. वो बचने के लिए एक ट्रैवल एजेंसी में घुस गया तो उसके सिर पर टीवी फोड़ दिया और उसे मार डाला. उसके बचाव में आए 21 साल के लड़के को भी चाकुओं से गोद दिया. दोनों लड़कों की मौत हो गई.
दोनों ही मामलों में आस-पास भीड़ मौजूद थी. वो चाहते तो ये सब कुछ रोक सकते थे, लेकिन किसी ने रोका नहीं. पर क्यों? एक लाइन में जवाब तो ये हो सकता है कि लोग डर जाते हैं कि कहीं वो न फंस जाएं. लेकिन क्या वाकई ये सिर्फ डर ही है?
जवाब उससे काफी बड़ा है जो हम सोचते हैं. हर बार इस बात पर बहस होती है और पूछा जाता है कि आखिर क्यों?
इस क्यों का जवाब देने के लिए कई स्टडी की गई है. एक बहुत ही फेमस एक्सपेरिमेंट इस मामले में अमेरिका में किया गया था जब किटी जिनोविस मर्डर केस में 32 पड़ोसियों ने कत्ल होते हुए देखा था और कुछ नहीं किया था. उसके बाद इस स्टडी को किया गया था. इसमें कुछ चौंकाने वाले मामले सामने आए थे. इस स्टडी में जो बात सामने आई थी वो ये थी कि अगर लोग किसी के साथ होते हैं तो वो किसी की मदद करने जल्दी नहीं आते.
कभी-कभी ऐसा लगता है कि दुनिया में इंसानी जान की कोई कीमत नहीं है. लोग बीच चौराहे काट दिए जाते हैं, लेकिन रास्ते में चलते अन्य लोग कुछ नहीं करते. हाल ही में भारत में ऐसे दो मामले सामने आए हैं जिनके बारे में सोचकर ही दिल बैठ जाए. पहला मामला हैदराबाद का है जहां एक ऑटोड्रायवर ने किराए को लेकर एक मटन शॉप के मालिक से बहस की और फिर उसे बीच सड़क पर काट दिया. आते-जाते लोगों में से एक ने सिर्फ 'ऐ' चिल्लाया. दूसरा मामला है दिल्ली का जहां पर एक 23 साल के लड़के को 25 लोगों की भीड़ ने दौड़ा-दौड़ा कर मारा. वो बचने के लिए एक ट्रैवल एजेंसी में घुस गया तो उसके सिर पर टीवी फोड़ दिया और उसे मार डाला. उसके बचाव में आए 21 साल के लड़के को भी चाकुओं से गोद दिया. दोनों लड़कों की मौत हो गई.
दोनों ही मामलों में आस-पास भीड़ मौजूद थी. वो चाहते तो ये सब कुछ रोक सकते थे, लेकिन किसी ने रोका नहीं. पर क्यों? एक लाइन में जवाब तो ये हो सकता है कि लोग डर जाते हैं कि कहीं वो न फंस जाएं. लेकिन क्या वाकई ये सिर्फ डर ही है?
जवाब उससे काफी बड़ा है जो हम सोचते हैं. हर बार इस बात पर बहस होती है और पूछा जाता है कि आखिर क्यों?
इस क्यों का जवाब देने के लिए कई स्टडी की गई है. एक बहुत ही फेमस एक्सपेरिमेंट इस मामले में अमेरिका में किया गया था जब किटी जिनोविस मर्डर केस में 32 पड़ोसियों ने कत्ल होते हुए देखा था और कुछ नहीं किया था. उसके बाद इस स्टडी को किया गया था. इसमें कुछ चौंकाने वाले मामले सामने आए थे. इस स्टडी में जो बात सामने आई थी वो ये थी कि अगर लोग किसी के साथ होते हैं तो वो किसी की मदद करने जल्दी नहीं आते.
इस एक्सपेरिमेंट में एक महिला को जानबूझ कर ऐसी परिस्थिती में लाया गया था जैसे उसके साथ कोई एक्सिडेंट या घटना हो गई हो और उसे किसी अन्य की मदद की जरूरत हो. उस समय लोगों का जो रिस्पॉन्स रहा वो चौंकाने वाला है.
अकेले रहते हैं तो क्या करते हैं-
अगर किसी के सामने ऐसी हरकत हो रही है या किसी अन्य को मदद चाहिए तो जो लोग मदद के लिए आते हैं वो अक्सर अकेले होते हैं. ये मदद करने भी लगभग 1 मिनट बाद आते हैं. जो लोग अकेले होते हैं और भीड़ में उनके साथ कोई नहीं होता वो अक्सर मदद के लिए आ जाते हैं. करीब 70% लोग जो अकेले होते हैं वो आते हैं.
किसी के साथ रहते हैं तो क्या करते हैं-
जो लोग किसी अन्य करीबी व्यक्ति के साथ थे उनमें से सिर्फ 40% लोग ही साथ देने आए और अन्य ऐसे निकल गए जैसे कुछ हुआ ही न हो.
अगर मदद मांगने वाले के साथ कोई है तो-
एक केस में लड़की के साथ किसी व्यक्ति को रखा गया और तब जितने भी लोग मौके पर मौजूद थे उनमें से सिर्फ 7% लोग ही आए मदद के लिए. भारत की ही बात ले लीजिए. Quora पर एक सवाल है जिसमें पूछा गया है कि, 'अगर मैं किसी एक्सिडेंट विक्टिम को अस्पताल लेकर जाऊंगा तो मुझे किस तरह की समस्याएं झेलनी पड़ेंगी?'. ये तो आलम है. किसी की मौत से बढ़कर लोग अपनी परेशानी रखते हैं.
शहर में रहने वालों की सोच-
बड़े शहरों में तो अक्सर ऐसा ही होता है, पड़ोसी भी मदद के लिए नहीं आते. अक्सर ऐसे मामलों में लोग आंखें मूंद लेते हैं. साथ ही रिसर्च में ये भी सामने आया अगर दोस्तों का कोई ग्रुप है तो वो मदद के लिए सामने आ सकता है. साथ ही, अगर कोई ऐसा इंसान है जो मदद मांगने वाले को कैसे भी जानता है तो मदद की गुंजाइश बहुत बढ़ जाती है.
इस तरह की रिसर्च किसी भी तरह से बुरी नहीं हो सकती क्योंकि ये मानव संबंधों और उनके व्यवहारों के बारे में बहुत कुछ बता जाते हैं.
तो इस पूरे मामले से ये निष्कर्ष निकल सकता है कि लोग अपनी जिम्मेदारी तब ज्यादा समझते हैं जब जिसे मदद चाहिए वो भी अकेला हो और जिसे मदद करनी हो वो भी. अन्य मामलों में मदद करने से पहले ये देखा जाता है कि किसी और की जिम्मेदारी तो नहीं. इसका एक कारण ये भी माना गया है कि घटना को देखने वाले सभी लोग एक ही जैसी परिस्थिती में होते हैं और ये देखते हैं कि बगल वाले क्या कर रहे हैं. साथ ही अगर, मदद मांगने वाले के साथ कोई होता है और वो किसी वजह से मदद नहीं कर पाया तब तो स्थिती और बुरी हो जाती है क्योंकि आस-पास वाले लोग ये सोचने लगते हैं कि मदद करना उनकी जिम्मेदारी नहीं है. एक और कारण ये है कि लोगों को ये डर होता है कि कहीं वो न फंस जाएं या फिर किसी अंजान के कारण उन्हें किसी तरह की कोई भी परेशानी उठानी पड़े.
पर सोचने वाली बात ये है कि क्या वाकई हमारी तकलीफ के बारे में तब सोचना जब सामने किसी की जान जा रही हो ये सही है? अगर कोई 20 लोग किसी एक इंसान को मार रहे हैं तो 200 की भीड़ यकीनन उसे बचा सकती है.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.