जबकि इनकी जरुरत ही नहीं है मामले में और वे निर्णय तक पहुंचने के लिए अनावश्यक भी थीं. विधिसम्मत भी नहीं थी तभी तो ऑर्डर में उनका समावेश नहीं किया गया. ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन आजकल ज्यादा हो रहा है. इन टिप्पणियों को हटाया भी गया है इस स्पष्टीकरण के साथ कि "Oral observations of Judges have no legal Sanctity!" कई बार टिप्पणियां अहमियत रखती हैं, वाजिब भी होती हैं लेकिन आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट होती हैं तो हटाई जाती हैं. कई बार पब्लिक परसेप्शन भी टिप्पणियों के आड़े आता है खासकर तब जब एक परसेप्शन के वश टिप्पणी हो जाती है और दूसरा परसेप्शन इग्नोर हो जाता है.
सीधी सी बात है जब आप "पंच परमेश्वर" की अवधारणा से ओतप्रोत न्यायपूर्ति हैं, आप ना तो "प्रो" रह सकते हैं और ना ही "एंटी" हो सकते हैं. दोनों ही पक्षों की बात आपको सुननी है, सवाल जवाब संदर्भ से बाहर नहीं हो सकते और ना ही ऑब्जर्वेशन. अमूमन वकील लिहाज करते हैं और पलटकर रियेक्ट नहीं करते, परंतु कई मौकों पर वे भी असंयत हो जाते हैं, स्वाभाविक भी है. पिछले दिनों ही हाल ही सेवानिवृत हुए जस्टिस शाह और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे के मध्य हुई तीखी नोंकझोंक सुर्खियां बनी थी.
इसके पहले भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अभद्र भाषा की घटनाओं के खिलाफ कदम उठाने की मांग करने वाली दलीलों के एक समूह की सुनवाई के दौरान संबंधित न्यायमूर्ति जोसेफ के सेलेक्टिव रवैये पर (उन्होंने महाराष्ट्र सरकार पर नपुंसक व्यवहार का आरोप लगा दिया लेकिन समान व्यवहार के लिए केरल सरकार को बख्श दिया) घोर आपत्ति जताते हुए तीखी बहस की थी. जजों के असंयत होने के और भी कई उदाहरण मिल जाएंगे.
भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने न्यायाधीशों से कोर्ट रूम की टिप्पणियों में अत्यधिक विवेक का प्रयोग' करने का आह्वान करते...
जबकि इनकी जरुरत ही नहीं है मामले में और वे निर्णय तक पहुंचने के लिए अनावश्यक भी थीं. विधिसम्मत भी नहीं थी तभी तो ऑर्डर में उनका समावेश नहीं किया गया. ऐसा पहले भी होता रहा है लेकिन आजकल ज्यादा हो रहा है. इन टिप्पणियों को हटाया भी गया है इस स्पष्टीकरण के साथ कि "Oral observations of Judges have no legal Sanctity!" कई बार टिप्पणियां अहमियत रखती हैं, वाजिब भी होती हैं लेकिन आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट होती हैं तो हटाई जाती हैं. कई बार पब्लिक परसेप्शन भी टिप्पणियों के आड़े आता है खासकर तब जब एक परसेप्शन के वश टिप्पणी हो जाती है और दूसरा परसेप्शन इग्नोर हो जाता है.
सीधी सी बात है जब आप "पंच परमेश्वर" की अवधारणा से ओतप्रोत न्यायपूर्ति हैं, आप ना तो "प्रो" रह सकते हैं और ना ही "एंटी" हो सकते हैं. दोनों ही पक्षों की बात आपको सुननी है, सवाल जवाब संदर्भ से बाहर नहीं हो सकते और ना ही ऑब्जर्वेशन. अमूमन वकील लिहाज करते हैं और पलटकर रियेक्ट नहीं करते, परंतु कई मौकों पर वे भी असंयत हो जाते हैं, स्वाभाविक भी है. पिछले दिनों ही हाल ही सेवानिवृत हुए जस्टिस शाह और वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे के मध्य हुई तीखी नोंकझोंक सुर्खियां बनी थी.
इसके पहले भी सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अभद्र भाषा की घटनाओं के खिलाफ कदम उठाने की मांग करने वाली दलीलों के एक समूह की सुनवाई के दौरान संबंधित न्यायमूर्ति जोसेफ के सेलेक्टिव रवैये पर (उन्होंने महाराष्ट्र सरकार पर नपुंसक व्यवहार का आरोप लगा दिया लेकिन समान व्यवहार के लिए केरल सरकार को बख्श दिया) घोर आपत्ति जताते हुए तीखी बहस की थी. जजों के असंयत होने के और भी कई उदाहरण मिल जाएंगे.
भूतपूर्व महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने न्यायाधीशों से कोर्ट रूम की टिप्पणियों में अत्यधिक विवेक का प्रयोग' करने का आह्वान करते हुए ताकीद किया था कि अविवेकपूर्ण टिप्पणी, भले ही अच्छे इरादे से की गई हो, न्यायपालिका को नीचा दिखाने के लिए संदिग्ध व्याख्याओं के लिए जगह देती है. राष्ट्रपति महोदय ने अपनी बात के लिए एक अमेरिकी जज के सारगर्भित कथन को भी कोट किया था, "History teaches that the independence of the judiciary is jeopardised when courts become embroiled in the passions of the day, and assume primary responsibility in choosing between competing political, economic and social pressures.'' बिल्कुल हालिया तीन तीन मामले हैं. संयोग कहें या दुर्योग सबों में जस्टिस गवई कॉमन है. एक मामला है जिसमें प्राथमिकी दर्ज कराने में लगभग दो महीने की देरी और साथ ही शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत दर्ज कराने से पहले अपने ट्वीट्स और मीडिया को दिए इंटरव्यू में याचिकाकर्ता के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों का जिक्र ना करने को आधार बनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपीलकर्ता भारतीय युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास को पार्टी से निष्कासित सदस्य(शिकायतकर्ता) की यौन उत्पीड़न की शिकायत पर असम में दर्ज FIR के संबंध में अंतरिम अग्रिम जमानत दे दी. निःसंदेह दोनों ही आधार अपीलकर्ता के फेवर में हैं और उन्हें राहत देकर शीर्ष अदालळत की पीठ ने न्यायोचित फैसला दिया.
परंतु सुनवाई के दौरान जस्टिस बी आर गवई के कुछ वन लाइनर सरीखे पंच नागवार गुजरते हैं. एक तो उन्होंने जब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल राजू ने दलीलें देना चालू किया, तंज कसा कि क्या वह सीबीआई या ईडी के लिए पेश हो रहे हैं? राजू ने संयमित उत्तर दिया कि वह असम राज्य के लिए उपस्थित हुए हैं. तब जस्टिस गवई कहते हैं, "सीबीआई, ईडी अभी तक नहीं आए हैं?" आगे अपनी दलीलों के क्रम में ही मिस्टर राजू ने स्पष्ट किया कि श्रीनिवास ने दुसरे नोटिस का जवाब भी यह कहकर नहीं दिया कि वे अस्वस्थ हैं. उन्होंने ये भी जोड़ा कि क्या वे इसलिए नोटिस की अवहेलनना कर रहे हैं क्योंकि वे सदा अस्वस्थ रहते हैं.
इस पर एक बार फिर जस्टिस गवई ने हल्की और अवांछित टिप्पणी कर दी और कहा कि आपकी रेपुटेशन तो हवाई अड्डे पर किसी को गिरफ्तार कर लेने की है. क्या कोई कॉमेडी शो चल रहा था जिसमें माननीय गवई को लीड लेनी थी इस प्रकार के आउट ऑफ़ कॉन्टेक्स्ट बेतुके कमैंट्स कर के ? तारीफ़ करनी होगी मिस्टर राजू की, उन्होंने माननीय नायायमूर्ति की गरिमा का ख्याल रखते हुए कोई पलट जवाब नहीं दिया. शायद जस्टिस भी मुंह देखकर टीका काढ़ते हैं. कहने का मतलब जस्टिस गवई हरगिज इन टिप्पणियों को नहीं करते अगर स्वयं सॉलिसिटर जनरल या कोई दूजा भारी भरकम साल्वे सरीखा एडवोकेट दलीलें रख रहा होता.
एक और मामला है. पीठ में जस्टिस गवई ही हैं. संक्षिप्त सा एक प्रेम विवाह के जोड़े के आपसी विवाद से तलाक के मामले से उत्पन्न ट्रांसफर पेटिशन का मामला था. कोर्ट ने मध्यस्थता का प्रस्ताव दिया, जिसका पति ने विरोध किया. हालांकि, कोर्ट ने कहा कि हाल के एक फैसले के मद्देनजर वह उसकी सहमति के बिना तलाक दे सकती है. यहाँ तक तो बिलकुल ठीक था, केस से संबंधित बात थी. लेकिन जब एक वकील ने न्यायालय के संज्ञान में प्रेम विवाह की बात लाई, तब जस्टिस गवई टिप्पणी कर बैठे कि "ज्यादातर तलाक लव मैरिज से ही हो रहे हैं." उन्हें कदापि नहीं करना चाहिए था क्योंकि ऐसा कर उन्होंने पितृसत्तात्मक सोच का आभास दे दिया.
एक अन्य मामला बिलकुल ताजा ताजा है. कूनो नेशनल पार्क, मध्यप्रदेश में दो महीनों के दौरान 3 चीतों की मौत पर सुप्रीम चिंता जताते हुए पता नहीं क्यों जस्टिस गवई राजनीतिक हो गए? केंद्र सरकार को फटकार लगा बैठे कि इतने सारे चीतों को एक ही जगह कूनो में ही रखने की बजाय राजस्थान में भी स्थांतरित करने का निर्णय क्या इसलिए नहीं लिया जा रहा है कि वहां विपक्षी पार्टी की सरकार है? सुप्रीम कोर्ट का यहां तक कहना तो ठीक था कि केंद्र सरकार को चीतों को अन्य अभयारण्यों में स्थानांतरित करने पर विचार करना चाहिए चूंकि विशेषज्ञों की राय और मीडिया में लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि कूनो इतने सारे चीतों के लिए पर्याप्त नहीं है.
पीठ राजस्थान के अभयारण्य का सुझाव भी दे सकती थी, निर्देश भी दे सकती थी, लेकिन सुझाव या निर्देश देने के लिए सरकार पर राजनीति करने का आरोप लगाना क्या जज के राजनीतिक होने का द्योतक नहीं है? माननीय न्यायाधीशों से हमेशा विवेकपूर्ण आचरण अपेक्षित है, उन्हें कोर्ट रूम में हो रहे वार्तालाप के दौरान अतिरिक्त सावधानी रखनी ही चाहिए क्योंकि अक्सर वो कमैंट्स ना भी किये जाते तो फैसलों पर कोई फर्क नहीं पड़ना था. याद करें तो न्यायमूर्तियों के विवेकपूर्ण आचरण की परिकल्पना ही तो थी मुंशी प्रेमचंद की कहानी "पंच परमेश्वर". व्यक्ति की मंशा कुछ और होते हुए भी जब वो न्याय की कुर्सी पर बैठता है, निहित अभिप्राय या उद्देश्य को भूलकर तटस्थ बात करना ही उसका दायित्व है.
लगता है माननीय जजों का बेवजह ही टिप्पणियां करने का दौर सा चल रहा है; उनके अहम को संतुष्टि मिलती होगी लेकिन न्याय व्यवस्था के लिए निश्चित ही सेटबैक होती हैं.कुल मिलाकर हालिया दो तीन मामलों में सुनवाई के दौरान जस्टिस बी आर गवई के कुछ वन लाइनर सरीखे पंच नागवार गुजरते हैं. क्या कोई कॉमेडी शो चल रहा था जिसमें माननीय गवई को लीड लेनी थी इस प्रकार के आउट ऑफ कॉन्टेक्स्ट बेतुके कमेंट्स करके?
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