मैं श्री नवीन जिंदल के शहर रायगढ़, छत्तीसगढ़ से हूं. वही नवीन जिंदल जो एक प्रसिद्ध उद्योगपति होने के अलावा एक और चीज के लिए जाने जाते हैं. वह है नवीन जिंदल द्वारा लड़ी गई सात सालों की लंबी कानूनी लड़ाई जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रत्येक नागरिक को आदर, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार दिया है और इस प्रकार यह प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार बना है.
इस फैसले के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फ्लैग कोड में संशोधन किया था. कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह इस विषय को गंभीरता से ले और 'फ्लैग कोड' में संशोधन भी करे. इससे पूर्व स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के अलावे किसी भी दिन भारत के नागरिकों को अपना राष्ट्रध्वज फहराने का अधिकार नहीं था, खास कर अपने घरों या कार्यालयों में. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 26 जनवरी 2002 से भारत सरकार फ्लैग कोड में संशोधन कर भारत के सभी नागरिकों को किसी भी दिन राष्ट्र ध्वज को फहराने का अधिकार दिया गया, बशर्ते, इस राष्ट्र ध्वज को फहराने के क्रम में 'राष्ट्र ध्वज की प्रतिष्ठा, गरिमा बरकरार रहे और किसी भी स्थिति में इसका अपमान ना होने पाए. यह राष्ट्र का प्रतीक है और सर्वोपरि है.'
नवीन जिंदल ने राष्ट्रध्वज के लिए सात सालों की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी |
अपने इसी तिरंगा प्रेम के नाते 2009 में गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर यह प्रस्ताव किया था कि देश में रात को भी विशाल ध्वज दंड पर राष्ट्रीय ध्वज यानी तिरंगा फहराने की अनुमति दी जाए. गृह मंत्रालय ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है. गृह मंत्रालय ने अपने जवाब में जिंदल के प्रस्ताव को मंजूरी देते हुए कहा कि...
मैं श्री नवीन जिंदल के शहर रायगढ़, छत्तीसगढ़ से हूं. वही नवीन जिंदल जो एक प्रसिद्ध उद्योगपति होने के अलावा एक और चीज के लिए जाने जाते हैं. वह है नवीन जिंदल द्वारा लड़ी गई सात सालों की लंबी कानूनी लड़ाई जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रत्येक नागरिक को आदर, प्रतिष्ठा एवं सम्मान के साथ राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार दिया है और इस प्रकार यह प्रत्येक नागरिक का मौलिक अधिकार बना है.
इस फैसले के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फ्लैग कोड में संशोधन किया था. कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार को आदेश दिया कि वह इस विषय को गंभीरता से ले और 'फ्लैग कोड' में संशोधन भी करे. इससे पूर्व स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के अलावे किसी भी दिन भारत के नागरिकों को अपना राष्ट्रध्वज फहराने का अधिकार नहीं था, खास कर अपने घरों या कार्यालयों में. सुप्रीम कोर्ट के आदेश से 26 जनवरी 2002 से भारत सरकार फ्लैग कोड में संशोधन कर भारत के सभी नागरिकों को किसी भी दिन राष्ट्र ध्वज को फहराने का अधिकार दिया गया, बशर्ते, इस राष्ट्र ध्वज को फहराने के क्रम में 'राष्ट्र ध्वज की प्रतिष्ठा, गरिमा बरकरार रहे और किसी भी स्थिति में इसका अपमान ना होने पाए. यह राष्ट्र का प्रतीक है और सर्वोपरि है.'
नवीन जिंदल ने राष्ट्रध्वज के लिए सात सालों की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी |
अपने इसी तिरंगा प्रेम के नाते 2009 में गृह मंत्रालय को पत्र लिखकर यह प्रस्ताव किया था कि देश में रात को भी विशाल ध्वज दंड पर राष्ट्रीय ध्वज यानी तिरंगा फहराने की अनुमति दी जाए. गृह मंत्रालय ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है. गृह मंत्रालय ने अपने जवाब में जिंदल के प्रस्ताव को मंजूरी देते हुए कहा कि प्रस्ताव को पूरी तरह से पढ़ने व समझने के पश्चात गृह मंत्रालय ने कहा है कि जिंदल को देश में राष्ट्रीय ध्वज रात को भी विशाल ध्वज दंड पर फहराने के लिए अनुमति देता है.
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अब आज के सबसे ज्यादा चर्चित व्यक्ति श्री श्याम नारायण चौकसे, ये वो व्यक्ति हैं जिनकी वजह से सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया गया है. भोपाल के बुज़ुर्ग चौकसे ने इसके लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी है. बुधवार को सुप्रीम कोर्ट ने चौकसे की याचिका पर ही फैसला सुनाया है कि हर सिनेमाघर में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजेगा और हर किसी को उसके सम्मान में खड़ा होना होगा. 77 वर्ष के चौकसे ये लड़ाई पिछले 16 साल से लड़ रहे थे, ये उनके लिए काफी भावनात्मक मामला है.
श्याम नारायण चौकसे की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमाघर में राष्ट्रगान बजाने का आदेश दिया है |
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय गान, यानी 'जन गण मन' से जुड़े एक अहम आदेश में बुधवार को कहा कि देशभर के सभी सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रीय गान जरूर बजेगा. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय गान बजते समय सिनेमाहॉल के पर्दे पर राष्ट्रीय ध्वज दिखाया जाना भी अनिवार्य होगा और सिनेमाघर में मौजूद सभी लोगों को राष्ट्रीय गान के सम्मान में खड़ा होना होगा.
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अब देश में एक ऐसा माहौल तैयार हो गया है कि कुछ भी निर्णय आता है तो कुछ लोग उसका विरोध अवश्य करते हैं. वैसे सकारात्मक पक्षों पर बहस और विरोध या असहमति जताना भी लोकतंत्र में एक स्वस्थ परंपरा है. कुछ लोगों को यह भय है कि इससे झंडे की अवमानना न होगी, वहीं कुछ लोगों को राष्ट्रीय गान के लिए सिनेमा हॉल उचित स्थान नहीं लग रहा. लोग बेहद छोटे छोटे मुद्दों पर आपत्ति जाता रहे हैं कि खड़ा होना क्यों अनिवार्य हो, उससे अच्छा है ये ना बजे. कुछ लोग दिव्यांगों की मिसाले दे रहें कि उन्हें कठिनाई होगी. वहीं देश में कुछ ऐसे भी हैं जो एक समुदाय विशेष की तुष्टिकरण की मद्देनजर बेवजह इसे उछाल रहे हैं.
यह एक प्रकार से अनावश्यक, निरर्थक और कलात्मक विवाद है. मुझे याद आता है जापान की कॉलोनियों में जब किसी म्यूजिकल कॉन्सर्ट में राष्ट्रगान होता था, तो गरीब-अमीर सब का जज्बा देखने लायक होता था. विश्वास करिये कुछ की आंखें भाव विभोर हो कर नम हो जाती थीं. तब मैं सोचती थी काश इस तरह की राष्ट्र प्रेम की भावना मेरे देश के हर व्यक्ति में भी होती. पिक्चर हॉल में यदि यह होता है तो सकारात्मक रुख से इसे देखा जाना चाहिए अपने दिल में यह भावना हिलौरे ले भले ही उस पल कुछ लोग हिल रहे हों या चल रहे हों. उनके मूवमेंट्स को राष्ट्र की अवमानना न समझें, वे भी कभी सुधरेंगे. देर-सवेर इससे लाभ ही होगा और फिलहाल हानि तो कुछ नहीं है. जब भगवान का नाम किसी कसाई घर, शराब घर, जेल आदि में भी लिया सकता है, राष्ट्रगान पिक्चर हॉल में ही सही, 52 सेकेण्ड ही सही दिन भर में कभी तो दिल में देश हित के अरमान मचलें. आज के राष्ट्र विरोधी माहौल में यह और भी प्रासंगिक हो जाता है. बार बार कानों में पड़ने पर कुछ तो असर होगा अपने क्रिया कलापों पर.
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थियेटर में भी वही अनुभूति होती है जो विशेष मौकों पर राष्ट्र गान सुन कर. एक त्वरित राष्ट्रीयता की भावना से मन भर उठता है. अंधेरे में सबके साथ भावविभोर हो उठता है मन गान कर. कोई एक अंत में यदि बोल उठता है भारत माता की जय तो सारे बोल उठते हैं "जय". अच्छा लगता है, कोई अवमानना नहीं महसूस होतीऔर न ही झंडे की बेइज्जती. छत्तीसगढ में बहुत सालों से फिल्म के शुरू में बजता रहा है. हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो सुबह की असम्बली में हर दिन राष्ट्रीय गान हुआ करता था. स्कूल छूटने के बाद ये सुख कभी कभी ही मिल पाया. खेल के मैदान में राष्ट्रीय धुनें हमेशा बजा करती हैं. फिर सिनेमा हॉल में ही आपत्ति क्यों?
साठ के दशक में जब भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ तब तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने द्वारका प्रसाद मिश्र की सलाह पर सिनेमाघरों में देश की जनता में देशभक्ति का जज्बा जगाने के लिए राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य किया था. उन दिनों में आम जन में देश के प्रति समर्पण का भाव जागृत करने की जरूरत थी. केंद्रीय नागरिक परिषद इसी उद्देश्य से बनाई गई थी. सिनेमाघर वह स्थान है जहां आम लोग नियमित रूप से एकत्रित होते हैं. द्वारका प्रसाद मिश्र को जनसमूह को देशभक्ति का संदेश देने के लिए सिनेमाघर सबसे उपयुक्त लगे और उन्होंने इन स्थानों पर राष्ट्रगान बजाने की सलाह सरकार को दी. चूंकि उस वक़्त ये सिनेमा के अंत में बजता था तो लोग बाद में हॉल से निकलने लगते थे. बाद में इसे तिरंगे के प्रति अवमानना समझ बंद करा दिया गया. ये एक अच्छी प्रथा थी.
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हाल के वर्षों में महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ समेत कुछ राज्यों में इस प्रथा को फिर से शुरू कर दिया गया है. लोग स्वेच्छा से अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं या रुक जाते हैं. 52 सेकंड्स देखा जाये तो बेहद छोटी इकाई है समय की. परन्तु उस समूह गान का सुख अवर्णनीय है. बच्चों के साथ बड़ों में भी एक जज्बा तरंगित हो जाता है. पर समूह में लोगो को यूं देश भक्ति की भावना से तरंगित कर देने से कहीं न कहीं अंतर्मन में स्वत: एक सकारात्मक भावना अंकुरित होने लगती है. वह धुन धड़कन बन दिल में धड़कने लगता है. आज कुछ लोगों ने कहा कि वो विरोध स्वरुप थिएटर नहीं जायेंगे. मुझे उनसे यही कहना है कि शायद यही बेहतर होगा कि कुढ़ने की जगह वो घर पर रहें. मुझे उनसे भी कहना है जिन्हें राष्ट्रीय गान के वक़्त खड़े होने में कोई व्यक्तिगत अहम् की क्षति होती है, बेहतर है वो हॉल के बाहर 52 सेकंड रहें. वैसे सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को जो नापसंद कर रहे हैं उनसे भी कोई शिकायत नहीं क्योंकि एक तरह से दोनों ही पक्ष झंडे, देश भक्ति और देशहित की ही बातें कर रहें न कि जातीयता, हिन्दू-मुस्लिम या ऊंच-नीच इत्यादि नकारात्मक मुद्दों की. आपका विरोध प्रशंसनीय है क्योंकि इस में राष्ट्रप्रेम और उसके मान सम्मान की भावना निहित है.
यूं देखा जाए तो इस आदेश के बाद से ही सकारात्मकता की लहर बह निकली है. सोचिये कि थोड़े थोड़े दिन पर उस जादूई धुन को सुनने के बाद कितनी सुखद बदलाव होगी विचारों में.
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