Youtube पर कई बार कुछ देखना चाहो पर किसी और वीडियो पर अंगुली पड़ जाती है और किसी न किसी खड़े-कॉमेडियन के जोक्स शुरु हो जाते हैं. मैंने गौर किया कि इन कॉमेडियन्स के फेवरेट टारगेट कुछ अंकल्स होते हैं. वो अंकल्स जो हर करप्शन से जुड़े सवाल पर एक ही डायलॉग मारते हैं 'उधर सियाचिन में जो हमारे जवान माइनस टेम्परेचर में खड़े रहते हैं' सामने टिकट लेकर बैठे लोग ये लाइन आते ही जम कर हंसते हैं. एक कॉमेडियन को सुना था मैंने, कि 'अरे अंकल जवानों को कभी बैठा भी दिया करो, क्या हमेशा खड़े रहते हैं' लोग और ज़ोर से हंसते हैं... मैंने जानना चाहा कि सियाचिन में तैनात होना ऐसा क्या मुश्किल है. ठंड होती है मालूम है, तो क्या हुआ, हम लोग भी तो पहाड़ों में जाते हैं. अब जब पता करने लगा तो जाना सर्दियों में टेम्परेचर माइनस 50 चला जाता है. अब माइनस पचास क्या होता है? हम आप प्लेन्स में रहने वाले कैसे समझेंगे? टेम्परचर 15-16 हो जाए तो (कुछ मुझ जैसे पोलर बियर्स को छोड़कर) हल्की फुल्की ठंड लगने लगती है. यही दस से नीचे हो जाए तो 2 स्वेटर पहनने पड़ते हैं. टेम्परचर 0 से नीचे जाता है तो पानी जमाने लगता है. हमारे शरीर में भी 70% पानी ही है.
जो आप मनाली-शिमला ट्रिप पर स्नो फॉल देखते हैं न, वो इसी फ्रीज़िंग टेम्परचर की देन होती है. एटमॉस्फेयर की नमी जमने लगती है और बर्फ बनकर गिरने लगती है. मैं मिनिमम माइनस 17 में एक घंटे के लिए रहा हूं. हाथ पैर जमने लगते हैं, सिर भयंकर रूप से दर्द होने लगता है और लगातार पड़ती बर्फ और ठंडी हवा फ्रस्ट्रैट करने लगती हैं. पर मैं, हिमाचल के माइनस 17 में रहा था, सियाचिन में पेड़ नहीं हैं इसलिए वहां ठंड तो लगती ही है, साथ ही मैदानी इलाकों के मुकाबले कुल 10% ऑक्सीजन मिलती है.
बस, दस...
Youtube पर कई बार कुछ देखना चाहो पर किसी और वीडियो पर अंगुली पड़ जाती है और किसी न किसी खड़े-कॉमेडियन के जोक्स शुरु हो जाते हैं. मैंने गौर किया कि इन कॉमेडियन्स के फेवरेट टारगेट कुछ अंकल्स होते हैं. वो अंकल्स जो हर करप्शन से जुड़े सवाल पर एक ही डायलॉग मारते हैं 'उधर सियाचिन में जो हमारे जवान माइनस टेम्परेचर में खड़े रहते हैं' सामने टिकट लेकर बैठे लोग ये लाइन आते ही जम कर हंसते हैं. एक कॉमेडियन को सुना था मैंने, कि 'अरे अंकल जवानों को कभी बैठा भी दिया करो, क्या हमेशा खड़े रहते हैं' लोग और ज़ोर से हंसते हैं... मैंने जानना चाहा कि सियाचिन में तैनात होना ऐसा क्या मुश्किल है. ठंड होती है मालूम है, तो क्या हुआ, हम लोग भी तो पहाड़ों में जाते हैं. अब जब पता करने लगा तो जाना सर्दियों में टेम्परेचर माइनस 50 चला जाता है. अब माइनस पचास क्या होता है? हम आप प्लेन्स में रहने वाले कैसे समझेंगे? टेम्परचर 15-16 हो जाए तो (कुछ मुझ जैसे पोलर बियर्स को छोड़कर) हल्की फुल्की ठंड लगने लगती है. यही दस से नीचे हो जाए तो 2 स्वेटर पहनने पड़ते हैं. टेम्परचर 0 से नीचे जाता है तो पानी जमाने लगता है. हमारे शरीर में भी 70% पानी ही है.
जो आप मनाली-शिमला ट्रिप पर स्नो फॉल देखते हैं न, वो इसी फ्रीज़िंग टेम्परचर की देन होती है. एटमॉस्फेयर की नमी जमने लगती है और बर्फ बनकर गिरने लगती है. मैं मिनिमम माइनस 17 में एक घंटे के लिए रहा हूं. हाथ पैर जमने लगते हैं, सिर भयंकर रूप से दर्द होने लगता है और लगातार पड़ती बर्फ और ठंडी हवा फ्रस्ट्रैट करने लगती हैं. पर मैं, हिमाचल के माइनस 17 में रहा था, सियाचिन में पेड़ नहीं हैं इसलिए वहां ठंड तो लगती ही है, साथ ही मैदानी इलाकों के मुकाबले कुल 10% ऑक्सीजन मिलती है.
बस, दस प्रतिशत. सियाचिन में तैनात सैनिक गुरप्रीत सिंह का इंटरव्यू देखा, उन्होंने बताया कि यहां 160kmh की रफ़्तार से हवाएं चलने लगती हैं, तब वही माइनस 20 डिग्री, माइनस 70 डिग्री तक चला जाता है. अपन लोग जब घूमने जाते हैं, तब ज़्यादा हवा लगे तो किसी रेस्टोरेंट में घुस जाते हैं न? या कोई टेंट में मैगी बनाता तो मिल ही जाता है.
पर यहां क्या होता है कि अगर अकेले दुकेले बेस पहुंचने से रह गए और रात गुज़ारनी पड़ी और टेंट भी नहीं है तो इग्लू बनाना पड़ता है. नहीं नहीं वो हमटा वाला नहीं, जिसमें 10 हज़ार पर नाइट देकर बाकायदा हनीमून सूइट मिलता है. यहां शेल्टर बनाने के लिए कोई समतल जगह ढूंढकर, वहां की बर्फ को जूते से दबाते रहना पड़ता है. जब एक डेढ़ घंटे की मेहनत के बाद वो बर्फ टाइट हो जाए, जब उसे खुखरी से काटकर कुछ टुकड़ों को निकालना पड़ता है.
ये टुकड़े ईंट की तरह इस्तेमाल कर, सॉफ्ट पड़ी बर्फ को सेमेन्ट की तरह यूज़ कर छोटा सा, एक-दो आदमी के छुपने लायक घरौंदा बनाना पड़ता है. आग जलाना तो अपने आप में चैलेंज है ही क्योंकि हर चीज़ ठंड से जमी पड़ी होती है. ऊपर से पीने के पानी की दिक्कत, बिना आग जलाए सुलझ नहीं सकती है. खाने की तो बात छोड़िए, पाइन ट्री मिल जाए, तो उसकी पत्तियों से चाय बनाना ही डेढ़ से दो घंटे का टास्क होता है.
मुझे तो याद आया कि मैं ऐसे बर्फ से खेलने के बाद, होटल आते ही सबसे पहले कॉफ़ी ऑर्डर करता था. खैर... सियाचिन में सामान पहुंचाने के लिए सिर्फ चीता हेलिकाप्टर्स मौजूद होते हैं. इनके पायलट्स भी स्पेशल तैयार होते हैं जो ग्लेशियर में उड़ान भर सकें. इनफ्लाइट्स की स्पेशलिस्ट स्कुअड्रेन लीडर खुशबू गुप्ता के जूते ऐसे होते हैं जिनमें बैटरी लगी होती है जो जूतों को गर्म रखती है ताकि पैर न जम जाएं.
अब एक अनोखी समस्या भी जानिए, पायलट्स अपनी मशीन में थोड़ी बहुत गड़बड़ हो जाए तो उसे सुधारना भी जानते हैं जो कि खराब मौसम के कारण होती ही रहती है. पर इसे सुधारने के लिए कई बार हाथ से कोई बोल्ट, कोई नट, कोई कलपुर्ज़ा छूना पड़ता है, ग्लव्स हटाने पड़ते हैं और ये मेटल इतना ठंडा होता है कि कई बार यहां अंगुली चिपक जाती है और खींचते वक़्त खाल उसी कलपुर्जे से चिपकी रह जाती है.
पर ये इंडियन आर्मी है, ये उधड़ी खाल में भी तैनात रहती है. ग्लेशियर्स में जवान ड्यूटी भरते हैं. पायलट्स इम्पॉसिबल वेदर में रसद दवा पहुंचाते हैं, ब्रेन हेमरेज, मेमरी लॉस, फटीग जैसे लक्षण तो आम पाए जाते हैं, फिर भी हर सैनिक यहां ड्यूटी करना अपना फख्र समझता है.
मुझे नहीं पता कि हर बात पर आर्मी का गुणगान करना ज़रूरी है या नहीं, पर मुझे इतना 100% पता है कि ऐसी एक्सट्रीम सिचुएशन में खड़ा जवान रिस्पेक्ट का हक़दार बराबर है. सिर्फ इसलिए नहीं कि ऐसी सिचुएशन में सरवाइव कर रहा है, बल्कि इसलिए भी कि ऐसी सिचुएशन में, जीवित रहकर, चौकन्ना हो बॉर्डर्स को सिक्योर भी रख रहा है ताकि हम जीवित रह सकें.
मुझे ऐसे किसी भी जोक पर हंसी नहीं आती जिसमें सियाचिन में खड़े जवानों का ज़िक्र होता है. उम्मीद है अब शायद आपको भी नहीं आयेगी. जय हिन्द. 75 वर्ष, आज़ादी का अमृत महोत्सव.
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