"सुरतिया का दिन सुबह चार बजे शुरू हो जाता है. दो से ढाई किलोमीटर ऊंचाई पर जाकर पहले जंगल से लकड़ी चुनना उनका गट्ठर बनाना फिर नीचे आकर साढ़े छह बजे की मानिकपुर पैसेंजर पकड़कर बाजार जाना, फिर उसी ट्रेन से लौटना. घर पहुंचते-पहुंचते 10.30 बज जाते हैं. आते ही सबसे पहले खाना बनाने में जुट जाना. खाना बनाकर फौरन पानी भरने के लिए लाइन लगाना. करीब दो घंटे लगातार पानी भरना. दोनों बेटिंया जिनकी उम्र 10-12 साल है, वह भी पानी भरने में मदद करती हैं. छह लोगों के परिवार में करीब 14-15 बाल्टी पानी लगता ही लगता है. बर्तनों की सफाई फिर झाड़ू-पोछा. उस पर अभी छह-सात महीने के बच्चे की देखभाल. हफ्ते में चार दिन कम से कम गोबर से कंडे-उपले बनाने की जिम्मेदारी भी सुरतिया की है."
यह कहानी चित्रकूट जिले में मानिकपुर निवासी सुरतिया की नहीं है बल्कि गांव-देहात में रहने वाली देश की हरेक औरत की है. सुरतिया से पूछने पर कि खुद के लिए कितना वक्त मिलता है तो वे जवाब में "केवल हंस देती हैं." शायद उनके पास इसका जवाब ही नहीं या उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि वक्त खुद के लिए भी होता है. सुरतिया ने भले ही हंसकर यह बात टाल दी हो लेकिन बनारस के मेंहदीपुर गांव की सुनीता कहती हैं, ‘अपना ही पैसा और समय हो तब भी ज्यादातर औरतें इसे अपने हिसाब से खर्च नहीं कर सकतीं.’वह आगे कहती हैं, पर ये हक औरतों को कोई दूसरा नहीं दे सकता खुद औरतों को ही इस हक की मांग करनी होगी.
ग्रामीण इलाकों में तो ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं. लेकिन शहरों में रहने वाली हर औरत की न सही मगर ज्यादातर औरतों की कहानी इससे मिलती जुलती है. बस काम बदल जाते हैं. दुनियाभर में ‘टाइम पावर्टी’ यानी समय की निर्धनता...
"सुरतिया का दिन सुबह चार बजे शुरू हो जाता है. दो से ढाई किलोमीटर ऊंचाई पर जाकर पहले जंगल से लकड़ी चुनना उनका गट्ठर बनाना फिर नीचे आकर साढ़े छह बजे की मानिकपुर पैसेंजर पकड़कर बाजार जाना, फिर उसी ट्रेन से लौटना. घर पहुंचते-पहुंचते 10.30 बज जाते हैं. आते ही सबसे पहले खाना बनाने में जुट जाना. खाना बनाकर फौरन पानी भरने के लिए लाइन लगाना. करीब दो घंटे लगातार पानी भरना. दोनों बेटिंया जिनकी उम्र 10-12 साल है, वह भी पानी भरने में मदद करती हैं. छह लोगों के परिवार में करीब 14-15 बाल्टी पानी लगता ही लगता है. बर्तनों की सफाई फिर झाड़ू-पोछा. उस पर अभी छह-सात महीने के बच्चे की देखभाल. हफ्ते में चार दिन कम से कम गोबर से कंडे-उपले बनाने की जिम्मेदारी भी सुरतिया की है."
यह कहानी चित्रकूट जिले में मानिकपुर निवासी सुरतिया की नहीं है बल्कि गांव-देहात में रहने वाली देश की हरेक औरत की है. सुरतिया से पूछने पर कि खुद के लिए कितना वक्त मिलता है तो वे जवाब में "केवल हंस देती हैं." शायद उनके पास इसका जवाब ही नहीं या उन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि वक्त खुद के लिए भी होता है. सुरतिया ने भले ही हंसकर यह बात टाल दी हो लेकिन बनारस के मेंहदीपुर गांव की सुनीता कहती हैं, ‘अपना ही पैसा और समय हो तब भी ज्यादातर औरतें इसे अपने हिसाब से खर्च नहीं कर सकतीं.’वह आगे कहती हैं, पर ये हक औरतों को कोई दूसरा नहीं दे सकता खुद औरतों को ही इस हक की मांग करनी होगी.
ग्रामीण इलाकों में तो ऐसी कहानियां भरी पड़ी हैं. लेकिन शहरों में रहने वाली हर औरत की न सही मगर ज्यादातर औरतों की कहानी इससे मिलती जुलती है. बस काम बदल जाते हैं. दुनियाभर में ‘टाइम पावर्टी’ यानी समय की निर्धनता मनोवैज्ञानिकों के बीच चर्चा का मुद्दा है. हालांकि इस शब्द का इस्तेमाल जिंदगी की आपाधापी के बीच अपने और अपनों के लिए घटते समय के लिए किया जा रहा है. लेकिन यह शब्द सबसे ज्यादा सटीक बैठता है तो औरतों पर. हाल ही में हुआ एक अध्ययन भी इस ओर साफ तौर पर इशारा करता है.
‘औरतें अपनी जिंदगी का एक चौथाई हिस्सा घर के कामो में बिता देती हैं. इसके लिए उन्हें न तो वेतन ही मिलता है और न ही परिवार उनके इस योगदान के लिए शुक्रगुजार होता है.’ कंसल्टिंग कंपनी एफएसजी ने ‘टाइम पावर्टीः द की टू एड्रेसिंग जेंडर डिसपैरिटी’ नाम से एक रिसर्च रिपोर्ट पेश की. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रामीण औरतें टइम पॉवर्टी यचानी समय की गरीबी से लगातार जूझती हैं. ग्रामीण औरतें दिन का करीब साढ़े चार घंटे तो खाना बनाने और उससे संबंधी कामों में बिता देती हैं. ईंधन इकट्ठा करना, उपले बनाने से लेकर खाना बनाने तक का काम इसमें शामिल है. इस रिपोर्ट में भले ही आंकड़े ग्रामीण औरतों का किस्सा बयां करते हों लेकिन यह सच्चाई शहरी इलाकों की भी है.
अहमदाबाद के जीआईपीएस साइकियाट्रिक अस्पताल डीएडिक्शन सेंटर की सीनियर मनोवैज्ञानिक प्रतिभा यादव कहती हैं ‘औरतों की आर्थिक आजादी के मुद्दे को तो कई बार उठाया गया. लेकिन टाइम पॉवर्टी यानी समय की निर्धनता के मुद्दे पर न के बराबर चर्चा हुई. इतना ज्यादा प्रोडक्टिव काम करने के बावजूद घरेलू औरतों के साथ नॉन प्रोडक्टिव असेट्स की तरह व्यवहार किया जाता है. इसकी वजह उनका काम के बदले वेतन न मिलना है. घर से लेकर समाज तक यह सोच बन गई है कि यह घरेलू काम तो औरतों की जिम्मेदारी हैं. इतना ही नहीं घरेलू काम के पीछे लगने वाली मेहनत को कम करके भी आंका जाता है. और तो और औरतें खुद भी यही सोचती हैं.’
डॉ. प्रतिभा आगे कहती हैं, नौकरी के तो घंटे तय होते है. काम के बदले वेतन का मिलना तो दिखने वाला मोटिवेशन है लेकिन समाज में इससे इज्जत भी मिलती है. घरेलू काम करने वाली औरतें इन दोनों ही चीजों से महरूम रहती हैं. उन्होंने हाल ही में हुए एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा कुछ महीने पहले ही एक रिसर्च आई थी कि समस्याएं सुलझाने में लड़कियां-लड़कों से ज्यादा दक्ष होती हैं. लेकिन उनकी ये कुशलता घरेलू काम के बोझ तले दबा दी जाती है.'
‘टाइम पॉवर्टी’ शब्द भले ही भारत के लिए अभी नया हो लेकिन समय की गरीबी या कहें समय की निर्धनता का शिकार सबसे ज्यादा औरतें ही होती हैं. खुद के समय को खुद पर खर्च करने की मोहलत न तो उन्हें घर देता और न समाज. और तो और औरतें खुद भी अपने ही समय पर खुद का हक नहीं समझतीं. डा. प्रतिभा कहती हैं भी बनारस की सुनीता की बात से इत्तेफाक रखती हैं, व कहती हैं समाज की सोच को बदलने से पहले औरतों को खुद के लिए अपनी सोच बदलनी होगी.
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