पांच साल पहले 16 दिसंबर 2012 को जब राजधानी दिल्ली की सड़कों पर दिल दहला देने वाला निर्भया काण्ड हुआ था, तो पूरा देश बहुत गुस्से में था. अभी हाल ही में हरियाणा के हिसार में एक पांच साल की बच्ची के साथ निर्भया कांड जैसी ही बर्बरता की गई. देश एक बार फिर गुस्से में है. 3 नवंबर 2017 को भोपाल में एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म की वारदात हुई थी, तो देश में चारों ओर गुस्सा था. उससे पहले जब एक अस्पताल की नर्स अरूणा शानबाग, उसी अस्पताल के चपरासी की हवस के कारण कौमा में चली गई थीं, तो भी देश गुस्से में था.
जब हमारी दस बारह साल की अबोध और नाबालिग बच्चियां, किसी इंसान के पशुत्व के कारण मां बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं, तो भी देश में बहुत गुस्सा होता है. जब हमारी बच्चियों का मासूम बचपन स्कूल में पढ़ाने वाले उनके गुरु ही के द्वारा रौंद दिया जाता है, तो देश भर में गुस्से की लहर दौड़ जाती है. अभी हाल ही में लखनऊ में ब्लड कैंसर से पीड़ित एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ. बाद में एक राहगीर से जब उसने मदद मांगी तो वह भी उसे अपनी हवस का शिकार बनाकर चलता बना. जाहिर है, देश गुस्से में है.
इस देश के लोग अनेकों बार ऐसी घटनाओं पर क्रोधित हुए हैं. अपना यह क्रोध आम लोग सोशल मीडिया पर, पत्रकार लोग न्यूज़ चैनलों पर और नेता अपने भाषणों में निकालते आए हैं. चलो देश को कोई मुद्दा तो मिला जिसमें सभी एकमत हैं और पूरा देश साथ है. लेकिन इस गुस्से के बाद क्या? केवल कुछ दिनों की बहस, कुछ कानूनों के वादे!
लेकिन क्या ऐसी घटनाएं होना बन्द हो गईं? क्या कभी नारी को गुस्सा आया है? आया है तो उसने ऐसा क्या किया कि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो? क्यों हर बार वो मदद के लिए पुरुष की ही ओर देखती है. वही पुरुष जो बार बार उसकी आत्मा को छलनी करता है? क्यों इंसाफ के लिए हर बार वह उसी समाज की ओर देखती है, जो आज तक उसे इंसाफ नहीं दिला पाया? क्यों बार बार वह उन कानूनों का मुंह ताकती है, जो इन मुकदमों के फैसले तो दे देते हैं लेकिन उसे "न्याय" नहीं दे...
पांच साल पहले 16 दिसंबर 2012 को जब राजधानी दिल्ली की सड़कों पर दिल दहला देने वाला निर्भया काण्ड हुआ था, तो पूरा देश बहुत गुस्से में था. अभी हाल ही में हरियाणा के हिसार में एक पांच साल की बच्ची के साथ निर्भया कांड जैसी ही बर्बरता की गई. देश एक बार फिर गुस्से में है. 3 नवंबर 2017 को भोपाल में एक लड़की के साथ सामूहिक दुष्कर्म की वारदात हुई थी, तो देश में चारों ओर गुस्सा था. उससे पहले जब एक अस्पताल की नर्स अरूणा शानबाग, उसी अस्पताल के चपरासी की हवस के कारण कौमा में चली गई थीं, तो भी देश गुस्से में था.
जब हमारी दस बारह साल की अबोध और नाबालिग बच्चियां, किसी इंसान के पशुत्व के कारण मां बनने के लिए मजबूर हो जाती हैं, तो भी देश में बहुत गुस्सा होता है. जब हमारी बच्चियों का मासूम बचपन स्कूल में पढ़ाने वाले उनके गुरु ही के द्वारा रौंद दिया जाता है, तो देश भर में गुस्से की लहर दौड़ जाती है. अभी हाल ही में लखनऊ में ब्लड कैंसर से पीड़ित एक युवती के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुआ. बाद में एक राहगीर से जब उसने मदद मांगी तो वह भी उसे अपनी हवस का शिकार बनाकर चलता बना. जाहिर है, देश गुस्से में है.
इस देश के लोग अनेकों बार ऐसी घटनाओं पर क्रोधित हुए हैं. अपना यह क्रोध आम लोग सोशल मीडिया पर, पत्रकार लोग न्यूज़ चैनलों पर और नेता अपने भाषणों में निकालते आए हैं. चलो देश को कोई मुद्दा तो मिला जिसमें सभी एकमत हैं और पूरा देश साथ है. लेकिन इस गुस्से के बाद क्या? केवल कुछ दिनों की बहस, कुछ कानूनों के वादे!
लेकिन क्या ऐसी घटनाएं होना बन्द हो गईं? क्या कभी नारी को गुस्सा आया है? आया है तो उसने ऐसा क्या किया कि इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो? क्यों हर बार वो मदद के लिए पुरुष की ही ओर देखती है. वही पुरुष जो बार बार उसकी आत्मा को छलनी करता है? क्यों इंसाफ के लिए हर बार वह उसी समाज की ओर देखती है, जो आज तक उसे इंसाफ नहीं दिला पाया? क्यों बार बार वह उन कानूनों का मुंह ताकती है, जो इन मुकदमों के फैसले तो दे देते हैं लेकिन उसे "न्याय" नहीं दे पाते? क्यों उसने अपने भीतर झांकने की कोशिश नहीं की कि ऐसा क्यों होता है? क्यों अपने आप को उसने इतना कमजोर बना लिया और खुद को अबला मान लिया? क्यों वह सबला नहीं है?
क्यों वह यह भूल गई कि जिस देश की संस्कृति में शक्ति की अधिष्ठात्री देवियां हैं, बुद्धि की देवी- सरस्वती, धन की देवी- लक्ष्मी, शक्ति की देवी- दुर्गा, उस देश की औरत कमजोर हो ही नहीं सकती, उसे कमजोर बनाया गया है? इसलिए सबसे पहले तो वह यह समझे कि यह लड़ाई उसकी ही है. जो उसे "सिर्फ लड़ना ही नहीं जीतना भी है." वह अबला नहीं सबला है. इस बात को समझना ही नहीं चरितार्थ भी करना होगा. स्वयं को अपनी देह से ऊपर उठकर सोचना ही नहीं प्रस्तुत भी करना होगा. खुद को वस्तु नहीं बल्कि व्यक्तित्व के रूप में संवारना होगा. अपने आचरण से पुरुष को समझाना होगा कि उसका पुरुषत्व नारी के अपमान में नहीं सम्मान में है. और स्वयं समझना होगा कि उसका सम्मान मर्यादाओं के पालन में है. क्योंकि जब वह स्वयं मर्यादा में रहेगी तो ही पुरुष को भी उसकी सीमाओं का एहसास करा पाएगी.
जब तक नारी स्वयं अपना सम्मान नहीं करेगी और उसकी रक्षा नहीं करेगी, उसे पुरुष समाज से अपने लिए सम्मान की अपेक्षा करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है. और स्त्री को स्वयं के प्रति सम्मान का यह बीज बचपन से ही डालना होगा. मां के रूप में उसे समझना होगा कि आज हमारी बच्चियों को उनकी रक्षा के लिए सफेद घोड़े पर सवार होकर आने वाले किसी राजकुमार की परिकथा की नहीं बल्कि एक नई कहानी की जरूरत है. वो कहानी जिसमें घोड़ा और उसका कमान दोनों राजकुमारी के हाथ में है. वो राजकुमारी जो जितनी नाजुक है, उतनी ही कठोर भी है. वो कार भी चलाती है, कम्प्यूटर भी. वो लक्ष्मी है तो दुर्गा भी. कुल मिलाकर वह अपनी रक्षा खुद करना जानती है.
इतिहास गवाह है कि सम्मान कोई भीख में मिलने वाली चीज़ नहीं है. इसलिए अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए उसे खुद ही जागरूक भी होना होगा और काबिल भी. जैसा कि कॉमनवेल्थ खेलों में देश को कुश्ती का पहला स्वर्ण पदक दिलाने वाली हरियाणा की फोगाट बहनों ने कहा कि, "असली जिंदगी में भी धाकड़ बनो."
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.