पूरा दिन स्किनी जींस पहनकर रहने के बाद शाम को घर आकर पजामा/ शॉर्ट्स/ नाईटी पहनने के बाद की राहत का एक अलग एहसास होता है. अब जरा सोचिए कि एक दिन आपको कहा जाए आज से आपको सिर्फ स्किनी जींस ही पहनकर रहना है. चाहे घर में रहें या बाहर. सुनकर ही बेचैनी होने लगी ना?
लेकिन अभी जब आप आराम से अपने कमरे में बैठकर ये पढ़ रहे हैं तो दुनिया के किसी कोने में महिलाएं अपनी पूरी जिंदगी गले में पीतल के छल्ले पहनकर बीता रही हैं. इतनी असुविधाजनक हालत क्यों? तो ये सारी कवायद होती है अपने समुदाय के 1000 साल पुरानी मान्यता को आगे बढ़ाने और सुंदर दिखने के नाम पर.
यहां बात हो रही है पाडुंग जनजाति के कयानी औरतों की. ये समुदाय बर्मा और उत्तर-पश्चिमी थाईलैंड की पहाड़ों में पाया जाता है. अगर आपको अभी भी नहीं समझ आया कि ये कौन हैं तो समान्यतया लोग इन्हें 'जिराफ औरत' के नाम से जानते हैं. अब शायद आप समझ गए होंगे कि हम किसकी बात कर रहे हैं.
आखिर ये बेतुकी प्रथा शुरू कैसे हुई?
इस प्रथा के बारे में कई बातें कही-सुनी जाती हैं. 11वीं शताब्दी में शुरू हुई इस प्रथा के बारे में एक ये बात प्रचलित है कि उस समय औरतों की लंबी गर्दन और पीतल के ये छल्ले पाडुंग जनजाति के पुरुषों को आकर्षित करते हैं. तो समझ गए ना आप इस जनजाति की औरतें इतना टार्चर सिर्फ पुरुषों को खुश करने या कहें एक 'सुयोग्य' पति पाने के लिए सहती हैं.
कुछ लोगों का ये भी कहना है कि पाडुंग जनजाति की औरतें पीतल के ये छल्ले बाहर से आए व्यापारियों को खुद से दूर रखने और अपने महिलाओं को कोई खरीद ना पाए इसलिए पहने जाते थे. एक और थ्योरी के अनुसार पाडुंग समुदाय की औरतों के छल्ले पहनने का अर्थ...
पूरा दिन स्किनी जींस पहनकर रहने के बाद शाम को घर आकर पजामा/ शॉर्ट्स/ नाईटी पहनने के बाद की राहत का एक अलग एहसास होता है. अब जरा सोचिए कि एक दिन आपको कहा जाए आज से आपको सिर्फ स्किनी जींस ही पहनकर रहना है. चाहे घर में रहें या बाहर. सुनकर ही बेचैनी होने लगी ना?
लेकिन अभी जब आप आराम से अपने कमरे में बैठकर ये पढ़ रहे हैं तो दुनिया के किसी कोने में महिलाएं अपनी पूरी जिंदगी गले में पीतल के छल्ले पहनकर बीता रही हैं. इतनी असुविधाजनक हालत क्यों? तो ये सारी कवायद होती है अपने समुदाय के 1000 साल पुरानी मान्यता को आगे बढ़ाने और सुंदर दिखने के नाम पर.
यहां बात हो रही है पाडुंग जनजाति के कयानी औरतों की. ये समुदाय बर्मा और उत्तर-पश्चिमी थाईलैंड की पहाड़ों में पाया जाता है. अगर आपको अभी भी नहीं समझ आया कि ये कौन हैं तो समान्यतया लोग इन्हें 'जिराफ औरत' के नाम से जानते हैं. अब शायद आप समझ गए होंगे कि हम किसकी बात कर रहे हैं.
आखिर ये बेतुकी प्रथा शुरू कैसे हुई?
इस प्रथा के बारे में कई बातें कही-सुनी जाती हैं. 11वीं शताब्दी में शुरू हुई इस प्रथा के बारे में एक ये बात प्रचलित है कि उस समय औरतों की लंबी गर्दन और पीतल के ये छल्ले पाडुंग जनजाति के पुरुषों को आकर्षित करते हैं. तो समझ गए ना आप इस जनजाति की औरतें इतना टार्चर सिर्फ पुरुषों को खुश करने या कहें एक 'सुयोग्य' पति पाने के लिए सहती हैं.
कुछ लोगों का ये भी कहना है कि पाडुंग जनजाति की औरतें पीतल के ये छल्ले बाहर से आए व्यापारियों को खुद से दूर रखने और अपने महिलाओं को कोई खरीद ना पाए इसलिए पहने जाते थे. एक और थ्योरी के अनुसार पाडुंग समुदाय की औरतों के छल्ले पहनने का अर्थ है कि उन्हें सिर्फ पाडुंग समुदाय के पुरुष ही अपना सकते हैं. दूसरे समुदाय के लोग उनकी तरफ आंख न उठाएं.
ये तो वो थ्योरियां थी जिसमें पुरुषों के बारे में बात की गई. लेकिन इस प्रथा के बारे में कुछ और बातें भी प्रचलित हैं. जैसे कि- ये पीतल के छल्ले एक ड्रैगन की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं. पाडुंग महिलाओं को मदर ड्रैगन का वंशज माना जाता है, इसलिए उन्हें छल्ले पहनाए जाते हैं. दरअसल कुछ लोग तो ये कहते हैं कि महिलाओं को छल्ले बाघ से बचाने के लिए पहनाएं जाते हैं. जैसे बाघ गर्दन के अलावा कहीं और हमला नहीं कर सकता!
ये कैसे किया जाता है?
ये प्रथा बचपन से ही शुरू हो जाती है. सबसे पहले छोटी बच्ची को एक पीतल का छल्ला पहनाया जाता है. इस समय बच्चियों की हड्डियां नाजुक होती हैं. लड़कियों की उम्र और उनके द्वारा पहने गए छल्ले समानुपाती होते हैं. जैसे-जैसे लड़की बड़ी होती जाती है उसके गले में पड़े छल्लों की संख्या बढ़ती जाती है ताकि वो जिराफ जैसी गर्दन पा सके. इन्हें कुल 25 छल्ले पहनाए जाते हैं.
क्या सच में गर्दन लंबी होती है?
अगर पाडुंग जनजाति के लोग सोचते हैं कि औरतों के गले में पीतल के छल्ले डालने से उनकी गर्दन जिराफ जैसी लंबी हो जाती है तो वो गलतफहमी में हैं. क्योंकि पीतल के छल्ले पहनने से औरतों की गर्दन लंबी नहीं होती बल्कि उनके कंधे की हड्डी नीचे झुक जाती है. जी हां. सच यही है. असलियत में गर्दन कभी लंबी नहीं होती बल्कि कंधों की हड्डियां झुक जाती हैं, जिसके कारण गर्दन लंबी दिखने लगती है.
प्रकृति से खिलवाड़ करना इंसान की फितरत है. लेकिन सिर्फ अपनी कुंठा को पूरा करने के लिए औरतों के साथ इस तरह का पागलपन कराना हैरान करने वाला है. संस्कृति का चोला ओड़कर इस तरह का टॉर्चर शर्म की बात है. दुख तो इस बात का है कि औरतें भी इस पागलपन को पूरी खुशी के साथ अपनाती हैं. ताकि पुरुषों को खुश कर सकें. उन्हें इस प्रथा से कोई दिक्कत भी नहीं होती क्योंकि बचपन से ही उन्हें इसके जीवन का हिस्सा बना दिया जाता है.
इतना ही नहीं इस समुदाय की महिलाओं को ये पता ही नहीं है कि बगैर के छल्लों के अपना खुद का शरीर कितना हल्का और प्यारा लगता है. उम्मीद यही है कि किसी दिन इनके जीवन में भी बदलाव का सूरज उगेगा और ये भी इन छल्लों के बगैर जी पाएंगी. बिना किसी बंधन के.
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