दर्जनों संवादों के बावजूद समाज इस बात को स्वीकार नहीं सका है कि धरा पर जन्म लेती हैं ऐसी स्त्रियां भी जिन्हें मातृत्व में दिलचस्पी नहीं होती. इसके ढेरों वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं लेकिन बच्चा न जनने वाली स्त्री होती है सांत्वना की अधिकारी और दिलासे में कहा जाता है - कोशिश करो, सब ठीक हो जाएगा. कोई नहीं करता समझने की कोशिश कि क्या बिगड़ा है जो ठीक होगा. प्रजनन शक्ति को स्त्री की परिभाषा बनाकर उसे विभूषित किया जाता रहा है विभिन्न अलंकारों से जिनमें उसे ढाला गया, कभी उसने सांचे में यूं ही उतर जाना चुना कभी वह कोफ़्त में जीती रही.
लॉकडउन और कोविड-19 जब चरम पर था तो बिहार के किसी ज़िले में एक महिला सिपाही को कड़कती धूप में अपने अबोध बच्चे के साथ ड्यूटी पर देखा गया और समूचे समाज में मीडिया द्वारा स्पॉन्सर्ड (प्रायोजित) वाहवाही होती रही. वह महिला सीआरपीएफ़ में है, कोरोना वॉरियर कहलायी. कुछ दिनों बाद बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डेय ने उनसे बात की, हाल पूछा, समझाया कि बच्चे को वहां लेकर ड्यूटी देना सही नहीं है. कॉल रिकॉर्डिंग मीडिया के गलीयारों तक पहुंची.2020 के अंत में एक सिविल ऑफ़िसर की तस्वीर वायरल हुई थी. वे अपने कार्यालय में बैठकर शिशु को संभाल रही थीं और ज़िम्मेदारी निभाने का एहसास दिला रही थीं. उनके पास यह सुविधा थी कि वे घर के सारे काम हेल्पर्स से करा सकें, बहुतों के पास नहीं होती और फिर उनसे उम्मीद की जाती है कि वो इतनी बड़ी ऑफ़िसर होकर घर-बाहर-बच्चा-ड्यूटी सब संभाल रही हैं तो तुम कौन-सी तोप हो?
एक अनावश्यक अनकहा दबाव बनता है महिलाओं पर कि उन्हें भी वर्किंग विमेन होते हुए भी सब समेटना है क्योंकि ये सारे काम उनके ही हैं. चंडीगढ़...
दर्जनों संवादों के बावजूद समाज इस बात को स्वीकार नहीं सका है कि धरा पर जन्म लेती हैं ऐसी स्त्रियां भी जिन्हें मातृत्व में दिलचस्पी नहीं होती. इसके ढेरों वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं लेकिन बच्चा न जनने वाली स्त्री होती है सांत्वना की अधिकारी और दिलासे में कहा जाता है - कोशिश करो, सब ठीक हो जाएगा. कोई नहीं करता समझने की कोशिश कि क्या बिगड़ा है जो ठीक होगा. प्रजनन शक्ति को स्त्री की परिभाषा बनाकर उसे विभूषित किया जाता रहा है विभिन्न अलंकारों से जिनमें उसे ढाला गया, कभी उसने सांचे में यूं ही उतर जाना चुना कभी वह कोफ़्त में जीती रही.
लॉकडउन और कोविड-19 जब चरम पर था तो बिहार के किसी ज़िले में एक महिला सिपाही को कड़कती धूप में अपने अबोध बच्चे के साथ ड्यूटी पर देखा गया और समूचे समाज में मीडिया द्वारा स्पॉन्सर्ड (प्रायोजित) वाहवाही होती रही. वह महिला सीआरपीएफ़ में है, कोरोना वॉरियर कहलायी. कुछ दिनों बाद बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पाण्डेय ने उनसे बात की, हाल पूछा, समझाया कि बच्चे को वहां लेकर ड्यूटी देना सही नहीं है. कॉल रिकॉर्डिंग मीडिया के गलीयारों तक पहुंची.2020 के अंत में एक सिविल ऑफ़िसर की तस्वीर वायरल हुई थी. वे अपने कार्यालय में बैठकर शिशु को संभाल रही थीं और ज़िम्मेदारी निभाने का एहसास दिला रही थीं. उनके पास यह सुविधा थी कि वे घर के सारे काम हेल्पर्स से करा सकें, बहुतों के पास नहीं होती और फिर उनसे उम्मीद की जाती है कि वो इतनी बड़ी ऑफ़िसर होकर घर-बाहर-बच्चा-ड्यूटी सब संभाल रही हैं तो तुम कौन-सी तोप हो?
एक अनावश्यक अनकहा दबाव बनता है महिलाओं पर कि उन्हें भी वर्किंग विमेन होते हुए भी सब समेटना है क्योंकि ये सारे काम उनके ही हैं. चंडीगढ़ में ट्रैफ़िक पुलिस में तैनात एक महिला अपने बच्चे को गोद में लेकर ड्यूटी कर रही थी, ठीक एक वर्ष पहले की ख़बर है. तस्वीर वायरल हुई और वाहवाही हो गयी.
कोई सोचने की ज़हमत नहीं उठाता कि बीच चौराहे पर धूल-धुआं-धूप और शोरगुल के बीच वह बच्चा कैसे रहेगा, उसके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा. नहीं किये जाते सवाल कि क्यों एक महिला पुलिसकर्मी को अपना बच्चा लेकर उतरना पड़ा सड़क पर, घर से कोई सपोर्ट क्यों नहीं है और कैसे वो यह सब 6-8 घंटे तक लगातार मैनेज कर सकेगी.
आसान है एक बच्चे को गोद में लेकर चौराहे पर तैनात रहना! ड्यूटी और बच्चे की भूख-प्यास में बैलेंस बनाकर दिन गुज़ारना! लेकिन अपने हिस्से कुछ न आये इसलिए ज़िम्मेदारियों में गुँथी उस महिला की प्रशंसा के पुल बाँध देने चाहिए, महिला अपने कार्यभार के साथ अब आपके महिमा-मंडन का बोझ भी उठाती चले.
समाज को बुरा तब लगता है जब भारत बनाम ऑस्ट्रेलिया की टेस्ट सीरीज़ चलती है और विराट कोहली पैटर्निटी लीव लेकर आ जाते हैं. सभ्य-शिक्षित समाज आग-बबूला हो पड़ता है कि नेशनल ड्यूटी छोड़कर खिलाड़ी बच्चे का जन्म देखने कैसे आ गया! शील समाज धिक्कारता है पिता को कि उसने संवेदनशील होना चुना, घर-परिवार-पत्नी के बारे में ज़रा सोच सका.
वर्किंग महिलाएं यूं भी घर को समेटकर बाहर पहुंच रही हैं. इससे उनपर अतिरिक्त दबाव पड़ रहा है, अतिरिक्त ज़िम्मेदारी संभाल रही हैं वो जिसे बांटकर उनका रूटीन सहज किया जा सकता है लेकिन आज दिनभर अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बधाइयों के ढेर लगाने वाले भी इस ओर कम ही सोचते हैं. पेरेंटहुड को मदरहुड मानकर समाज अपने कार्यभार से मुक्त हो चुका है और औरत का क्या है!
वह संभालती ही तो आयी है आज तक वह सबकुछ जो उसके हिस्से पड़ा है. पता नहीं कैसी होड़ है स्त्रियों में बेहतरीन बनने की, युटोपियन विज़न में फ़िट होने को कितनी बेक़रार हैं महिलाएं जो सब झोंक देती हैं कि यह सुन सकें कि उन-सा कोई नहीं. वे ऐसा करती रहें इसलिए समाज उन्हें बहलाते हुए अष्टभुजाओं वाली देवी सिद्ध करता है.
देखो, कितनी महान हैं ये! एक हाथ में बेलन, दूसरे में वाइपर, तीसरे में लैपटॉप, चौथे में बच्चा, पांचवें में दूध की बॉटल, छठे में पति का लंचबॉक्स, सातवें में डॉक्युमेंट्स, आठवें में दवाएं... बस हो गया काम, इनसे महान कोई क्या होगा. कोई त्रिनेत्र देखने नहीं आता कि भुजाएं सिर्फ़ दो ही हैं और काम सच में इतने सारे और इसमें गौरवांवित होने जैसा कुछ नहीं है.
कोई स्त्री मल्टीटास्किंग के नाम पर मिले इस गरिमामयी शोषण से प्रफुल्लित नहीं होती. No woman gets orgasm by shining the kitchen floor!लेकिन यह बात समझने के लिये अपने हिस्से की ज़िम्मेदारी समझनी पड़ेगी तो इतना ज़हीन क्यों ही बना जाए. स्त्रियों को समझना होगा कि शेरावाली माता बनकर सबकुछ पर्फ़ेक्ट्ली करने की प्रतिस्पर्धा से बाहर निकलकर सांस लेना है और समझना है कि जीने के लिये ऑक्सिज़न के अलावा भी बहुत कुछ ज़रूरी है.
पैरेंटहुड अकेले उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है. I repeat, don't misunderstood parenthood with motherhood! आज अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है, आज और बाकी के सभी दिन भी, एक स्त्री एक मां के अतिरिक्त बहुत कुछ है. मातृत्व एक सुखद अनुभूति हो सकती है, स्वयं का चयन हो सकता है और ठीक इसी तरह इसे न चुनने की स्वतंत्रता भी हो सकती है लेकिन स्त्री को अलंकृत होने के लिये मातृत्व के संज्ञा-सर्वनाम-विशेषण की कदापि आवश्यकता नहीं.
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