मुझे सज-धज और आस्था ख़ूब पसंद है पर याद आ जाता है कि किस तरह प्रेगनेंसी और डिलिवरी के पांचवे महीने में जबरन निर्जला रहना पड़ा था. कभी-कभी जो हम प्रीविलेज्ड होने के नाते शौक़िया तौर पर करते हैं, कई लोगों के लिए बाध्यता का रूप धर लेता है.
यह बाध्यता पैरों में वापस वही ज़ंजीर डाल देती है, जिससे पीछा छुड़ाने की जी-तोड़ कोशिशें होती हैं.
अपनी सजी हुई सखियों को ख़ूब दाद देना चाहती हूं. उन्हें देखकर नयन जुड़ते हैं पर उसी वक़्त ख़याल आता है पूर्वांचल के कई घरों में कई बहुएं इसे जबरन रख रही होंगी. काश त्योहार केवल चमक-दमक और सौंदर्य होते. उनके गर्भ में ताड़ना का संसार और जबरन उपवासों की भूमिका नहीं होती.
आस्था अपनी इच्छा पर रखी जाने वाली चीज है, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की इच्छा गाहे-बगाहे गौण हो जाती है. कैसे मान लूं कि यह केवल आस्था की ही बात है. डर या ज़ोर-ज़बरदस्ती की नहीं.
चाहती थी कि कुछ सकारात्मक लिखूं. नहीं लिख पाई… नहीं कर पाई. उस दिन लिखूंगी जब लगभग सभी बहुओं को बिना उपवास रखे, तिस पर बिना ताना सुने तीज की सज-धज में शामिल होने का मौक़ा मिलेगा. औरतों की ग़ायब इच्छाओं के दौर में तमाम चीजें हैं जो न चाहते हुए कचोटती हैं.
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यह बाध्यता पैरों में वापस वही ज़ंजीर डाल देती है, जिससे पीछा छुड़ाने की जी-तोड़ कोशिशें होती हैं.
अपनी सजी हुई सखियों को ख़ूब दाद देना चाहती हूं. उन्हें देखकर नयन जुड़ते हैं पर उसी वक़्त ख़याल आता है पूर्वांचल के कई घरों में कई बहुएं इसे जबरन रख रही होंगी. काश त्योहार केवल चमक-दमक और सौंदर्य होते. उनके गर्भ में ताड़ना का संसार और जबरन उपवासों की भूमिका नहीं होती.
आस्था अपनी इच्छा पर रखी जाने वाली चीज है, पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की इच्छा गाहे-बगाहे गौण हो जाती है. कैसे मान लूं कि यह केवल आस्था की ही बात है. डर या ज़ोर-ज़बरदस्ती की नहीं.
चाहती थी कि कुछ सकारात्मक लिखूं. नहीं लिख पाई… नहीं कर पाई. उस दिन लिखूंगी जब लगभग सभी बहुओं को बिना उपवास रखे, तिस पर बिना ताना सुने तीज की सज-धज में शामिल होने का मौक़ा मिलेगा. औरतों की ग़ायब इच्छाओं के दौर में तमाम चीजें हैं जो न चाहते हुए कचोटती हैं.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.