अगर मैं कहूं कि आज लड़कियां सुरक्षित हैं तो क्या आप मान लेंगे? अगर मैं कहूं कि लड़कियों को रात को घर से बाहर निकलने दो, तो क्या आप मान लेंगे? अगर मैं कहूं कि लड़कियों के साथ अब कुछ भी गलत नहीं होगा तो क्या आप मान लेंगें? जवाब 'नहीं' ही होगा. क्योंकि दुनिया में भले ही कोई भी क्रांति हो जाए, लेकिन महिलाओं के साथ कुछ नहीं हो, ये तो खावाबों में ही संभव है. और हमारा समाज तो हमें ये खूबसूरत ख्वाब देखने की हिम्मत भी नहीं देता.
दिल्ली की सड़कों पर आधी रात को लड़कियों को दौड़ते देखना जाहिर तौर पर संभव नहीं, लेकिन दिल्ली पुलिस और यूनाइटेड सिस्टर फाउंडेशन की ओर से ‘Fearless Run’ नामक एक दौड़ का आयोजन किया गया. आधी रात को पांच किलोमीटर की इस पिंकाथॉन दौड़ में लगभग 200 महिलाओं ने हिस्सा लिया. इस दौड़ का मकसद महिलाओं में आत्मविश्वास भरना और पुरुषों की मानसिकता बदलना था कि रात को बाहर निकने वाली महिलाएं अच्छी नहीं होतीं.
ऐसे आयोजन दिखावा क्यों लगते हैं-
महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ या उनकी सुरक्षा के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं और वो कितने कारगर हैं इसपर तो अब क्या ही कहा जाए. क्योंकि खबरों में तो ऐसे प्रयासों का जिक्र बड़े जोर शोर के किया जाता है. ऐसे प्रयास कम से कम एचीवमेंट लिस्ट में तो सार्थक लगते ही हैं, असल में कारगर हों न हों. और निर्भया कांड के बाद से तो ऐसे कितने ही प्रयास आपको गूगल करने पर मिल जाएंगे. पर असल में कहां हैं वो दिखाई नहीं देते. दिखाई देती हैं तो इस तरह की दौड़, जो ये बताने का एक खोखला तरीका लगती है कि महिलाएं निडर हैं और वो रात को बाहर अकेली जा सकती हैं.
पिछले साल भी वर्णिका कुंडू मामले के बाद महिलाओं में जोश चढ़ा और सब इकट्ठी होकर रात को सड़कों पर उतरीं. ये आयोजन दिल्ली के अलावा दूसरे शहरों में भी किया गया था. समाज को...
अगर मैं कहूं कि आज लड़कियां सुरक्षित हैं तो क्या आप मान लेंगे? अगर मैं कहूं कि लड़कियों को रात को घर से बाहर निकलने दो, तो क्या आप मान लेंगे? अगर मैं कहूं कि लड़कियों के साथ अब कुछ भी गलत नहीं होगा तो क्या आप मान लेंगें? जवाब 'नहीं' ही होगा. क्योंकि दुनिया में भले ही कोई भी क्रांति हो जाए, लेकिन महिलाओं के साथ कुछ नहीं हो, ये तो खावाबों में ही संभव है. और हमारा समाज तो हमें ये खूबसूरत ख्वाब देखने की हिम्मत भी नहीं देता.
दिल्ली की सड़कों पर आधी रात को लड़कियों को दौड़ते देखना जाहिर तौर पर संभव नहीं, लेकिन दिल्ली पुलिस और यूनाइटेड सिस्टर फाउंडेशन की ओर से ‘Fearless Run’ नामक एक दौड़ का आयोजन किया गया. आधी रात को पांच किलोमीटर की इस पिंकाथॉन दौड़ में लगभग 200 महिलाओं ने हिस्सा लिया. इस दौड़ का मकसद महिलाओं में आत्मविश्वास भरना और पुरुषों की मानसिकता बदलना था कि रात को बाहर निकने वाली महिलाएं अच्छी नहीं होतीं.
ऐसे आयोजन दिखावा क्यों लगते हैं-
महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ या उनकी सुरक्षा के लिए क्या प्रयास किए जा रहे हैं और वो कितने कारगर हैं इसपर तो अब क्या ही कहा जाए. क्योंकि खबरों में तो ऐसे प्रयासों का जिक्र बड़े जोर शोर के किया जाता है. ऐसे प्रयास कम से कम एचीवमेंट लिस्ट में तो सार्थक लगते ही हैं, असल में कारगर हों न हों. और निर्भया कांड के बाद से तो ऐसे कितने ही प्रयास आपको गूगल करने पर मिल जाएंगे. पर असल में कहां हैं वो दिखाई नहीं देते. दिखाई देती हैं तो इस तरह की दौड़, जो ये बताने का एक खोखला तरीका लगती है कि महिलाएं निडर हैं और वो रात को बाहर अकेली जा सकती हैं.
पिछले साल भी वर्णिका कुंडू मामले के बाद महिलाओं में जोश चढ़ा और सब इकट्ठी होकर रात को सड़कों पर उतरीं. ये आयोजन दिल्ली के अलावा दूसरे शहरों में भी किया गया था. समाज को ये दिखाया गया था कि महिलाएं भी पुरुषों की तरह रात में सड़कों पर निकल सकती हैं. लेकिन महज एक रात को ऐसा करके महिलाएं नडर हो जाती हैं?? और वो भी तब जब आप अकेली नहीं पूरे ग्रुप के साथ हों. जाहिर है तब किसी भी पुरुष ने उन महिलाओं को गंदी निगाह से नहीं देखा होगा और न ही कोई अभद्र टिप्पणी की होगी. छेड़छाड़ का तो सवाल ही पैदा नहीं होता क्योंकि वहां एक महिला नहीं बल्कि महिलाएं थीं. जब महिलाओं के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ होगा तो वो सशक्त तो महसूस कर रही रही होंगी. लेकिन ये सब करना सिर्फ मन को बहलाने जैसा ही है. क्योंकि इसके बाद शर्तिया कोई भी महिला अकेली सड़कों पर टहलने नहीं निकली होंगी.
दिल्ली पुलिस ने भी 'फियरलेस रन' का आयोजन कर खानापूर्ती कर दी. हालांकि ज्वाइंट कमिश्नर अजय चौधरी और डीसीपी मधुर वर्मा का नाम जरूर हुआ. लेकिन मेरा सवाल दिल्ली पुलिस से यही है कि क्या एक अकेली महिला दिल्ली की सड़कों पर उतनी ही सुरक्षित है जितनी ये दौड़ती महिलाएं नजर आ रही हैं. जाहिर है ये पूरी दौड़ दिल्ली पुलिस की निगरानी में रही होगी. क्या रोज रात को सड़कों पर इतनी ही सिक्योरिटी रहती है? नहीं. तो क्यों इसे दिखावा न कहा जाए.
लोग भी यही कह रहे हैं
लेकिन ऐसे आयोजन होते रहने चाहिए-
ऐसी दौड़ें भले ही कुछ समय के लिए महिलाओं में जोश भरती हों, ऐसे आयोजन भले ही सार्थक न दिखाई देते हों लेकिन ऐसा नहीं है कि ये व्यर्थ हैं. व्यर्थ तब हैं जब साल में एक बार हों, व्यर्थ तब हैं जब उद्देश्य कुछ और हो और दिखाया कुछ और जाए, व्यर्थ तब हैं जब कराकर खानापूर्ती कर ली जाए. लेकिन ये सार्थक तभी होंगे जब ऐसे आयोजन होते रहें. बल्कि ये किसी आयोजन के रूप में हो ही क्यों. दिल्ली पुलिस अपनी सड़कों को महिलाओं के लिए हमेशा सुरक्षित रखे, जैसे दिन में वैसै ही रात में, तो महिलाओं को वहां चलने में डर लगे ही क्यों.
'बेटियां सुरक्षित देखना चाहते हैं तो उन्हें बाहर अकेले जाने दें'
ये बात सुनकर भले ही लोगों की त्योरियां चढ़ जाएं. लेकिन सच यही है क्योंकि हमला उन्हीं पर होता है जो अकेली हैं, आप सशक्त तभी हैं जब आप जैसी सैकड़ों हैं. सड़कें लड़कियों के लिए सुरक्षित इसलिए नहीं हैं क्योंकि लड़कियां सड़कों पर दिखती ही नहीं हैं. रात में सड़क तभी सुरक्षित होगी जब लड़की नहीं लड़कियां होंगी. और लड़कियां हों, उसके लिए सरकार बस सुरक्षा के इंतजाम कर दे. और ये प्रयास केवल एक रात तक सीमित न रहें बल्कि हमेशा के लिए हों. लड़कियां निडर दिखाई देती रहेंगी तो लोगों की सोच बदलेगी.
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