आज 'साइकिल दिवस' (World Bicycle Day) है पर ये बात हमें पहले से पता नहीं थी. वो तो भला हो गूगल कैलेंडर का जो आंख खुलते ही सारी सूचनाएं सामने रख देता है. बहुमुखी प्रतिभा की धनी हमारी साइकिल एकमात्र ऐसा वाहन है जिसने अमीरी-ग़रीबी का भेद मिटा रखा है. हमारे आसपास कितने ही ऐसे हेल्पर्स हैं जो इस पर बैठ आते हैं. तो वहीं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में निकलने वाले लोगों के घरों में भी एक कोना साइकिल को समर्पित होता है. इनका कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता है तो पहले का आर्थिक मजबूरी. जब आप अपने बचपन की यादों में भ्रमण करते हैं तो ये दुपहिया वाहन अचानक ही घूमता-इठलाता साथ-साथ चलने लगता है. कितना कुछ याद आ जाता है. वो घर में पहली साइकिल का आना, डरते-डरते उसे सीखना, घुटनों का छिलना और पापा का हंसकर कहना कि 'गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले'. समय के पहिये संग, कैंची चलाते हुए कब उचककर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए, पता ही न चला.
देखा जाए तो इन दो पहियों ने ही हमारे 'आत्मनिर्भर' होने की पहली नींव रखी है. याद है न वो पहली बार इस पर बैठ घर से निकलना. कैसे हवा से बातें करते हुए चलते थे हम लोग. कॉलेज के शरारती स्टूडेंट्स का इसके पहियों की हवा निकाल देना और फिर मदद के बहाने आकर कैरियर में फंसे प्रेमपत्र की तरफ़ इशारा करना ही उस समय का एकमात्र रोमांस हुआ करता था.
कई बार लड़के इम्प्रेस करने के चक्कर में हाथ छोड़कर साइकिल चलाने लगते थे. उसके बाद का दृश्य भी बड़ा यादगार बनता था. वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि उन्हीं दिनों एक गीत आया था 'चांदी की साइकिल सोने की सीट, आओ चले डार्लिंग चले डबल सीट' गोविंदा और जूही चावला पर...
आज 'साइकिल दिवस' (World Bicycle Day) है पर ये बात हमें पहले से पता नहीं थी. वो तो भला हो गूगल कैलेंडर का जो आंख खुलते ही सारी सूचनाएं सामने रख देता है. बहुमुखी प्रतिभा की धनी हमारी साइकिल एकमात्र ऐसा वाहन है जिसने अमीरी-ग़रीबी का भेद मिटा रखा है. हमारे आसपास कितने ही ऐसे हेल्पर्स हैं जो इस पर बैठ आते हैं. तो वहीं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में निकलने वाले लोगों के घरों में भी एक कोना साइकिल को समर्पित होता है. इनका कारण स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता है तो पहले का आर्थिक मजबूरी. जब आप अपने बचपन की यादों में भ्रमण करते हैं तो ये दुपहिया वाहन अचानक ही घूमता-इठलाता साथ-साथ चलने लगता है. कितना कुछ याद आ जाता है. वो घर में पहली साइकिल का आना, डरते-डरते उसे सीखना, घुटनों का छिलना और पापा का हंसकर कहना कि 'गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में, वो तिफ्ल क्या गिरे जो घुटनों के बल चले'. समय के पहिये संग, कैंची चलाते हुए कब उचककर ड्राइविंग सीट पर बैठ गए, पता ही न चला.
देखा जाए तो इन दो पहियों ने ही हमारे 'आत्मनिर्भर' होने की पहली नींव रखी है. याद है न वो पहली बार इस पर बैठ घर से निकलना. कैसे हवा से बातें करते हुए चलते थे हम लोग. कॉलेज के शरारती स्टूडेंट्स का इसके पहियों की हवा निकाल देना और फिर मदद के बहाने आकर कैरियर में फंसे प्रेमपत्र की तरफ़ इशारा करना ही उस समय का एकमात्र रोमांस हुआ करता था.
कई बार लड़के इम्प्रेस करने के चक्कर में हाथ छोड़कर साइकिल चलाने लगते थे. उसके बाद का दृश्य भी बड़ा यादगार बनता था. वैसे आपकी जानकारी के लिए बता दें कि उन्हीं दिनों एक गीत आया था 'चांदी की साइकिल सोने की सीट, आओ चले डार्लिंग चले डबल सीट' गोविंदा और जूही चावला पर फ़िल्माया यह गीत आशिक़ समाज में बड़ा लोकप्रिय हुआ करता था.
क्यों चलाई जाए साइकिल?
एक तरफ़ पेट्रोल-डीज़ल के बढ़ते रेट जहां सबकी हवाइयां उड़ा रहे वहां साइकिल का होना बजट को संतुलन में रखना है. यह जीरो मैन्टेनेंस वाला वाहन है जिसमें बस हवा ही तो भरनी है. इससे सस्ती यात्रा और क्या होगी.
पर्यावरण को बचाने के लिए भी साइकिल से बेहतर कुछ नहीं.
अच्छे स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए भी ये आवश्यक है. रोज़ cycling की जाए तो फ़िटनेस बनी रहती है.
ध्वनि प्रदूषण से मुक्ति मिलेगी.
ट्रैफिक जाम और दुर्घटनाओं से मुक्ति का भी यही उपाय है.
सोशल डिस्टेंसिंग बनी रहेगी.
आम आदमी की पहुंच के भीतर है.
इम्यून सिस्टम ठीक रहता है.
घुटने और जोड़ों के दर्द की परेशानियां नहीं होतीं.
दिक्क़त यहां हैं -
साइकिल परिवहन के लिए यह एक सस्ता, अच्छा और टिकाऊ विकल्प है. लेकिन हमारी सड़कें इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं. अलग लेन की व्यवस्था होनी चाहिए.
परेशानी ये भी है कि हमने तो पर्यावरण बचाने की ठान ली लेकिन जब चारों तरफ़ से धुएं के थपेड़े पड़ेंगे तो अपनी जान को ही न बचा पायेंगे.
इसे चलाते समय हेलमेट पहनने के लिए लोगों में अभी भी अवेयरनेस की कमी है.
कोरोना वायरस के क़हर के कारण लोग अब पब्लिक ट्रांसपोर्ट और कार पूलिंग से कन्नी काटने ही वाले हैं, ऐसे में जरुरी हो जाता है कि हमारी प्यारी साइकिल हम सबके जीवन में बहार बन लौट आये. इसके प्रति जनता में जागरूकता फैलाने के लिए एक 'साइकिल चलाओ दिवस' भी मनाया जाना चाहिए. यही उचित समय है 'साइकिल क्रांति' के आह्वान का और कोरोना के मुंहतोड़ जवाब का.
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