रंगमंच के शुरुआती दौर में महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक नहीं थी. हर क्षेत्र की तरह यहां भी उन्हें इस विधा से दूर रखा गया और बाद में शोषण किया गया. ऐसे में हमारे लिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि मौजूदा स्थिति में रंगमंच और सिनेमा में जो स्थिति आज महिलाओं की है, उसके लिए किन-किन महिलाओं का सराहनीय योगदान रहा है. रंगमंच के शुरुआती दौर में हाशिये पर रहने वाली महिलाओं से लेकर बदनाम गलियों में गुजर बसर करने वाली महिलाओं का रंगमंच से जुड़ना एक बड़ी परिघटना के रूप में हमारे सामने दिखता है.
पितृसत्ता को चुनौती देते हुए इन महिलाओं ने दोहरी लड़ाई लड़ी है. एक तो वह अपने पारिवारिक माहौल से लड़ी, दूसरा इस दानव रूपी समाज से भी उन्होंने मोर्चा लिया. फिर भी इन समस्त महिलाओं की जीवन एवं रंगयात्रा को जानने-समझने के क्रम में यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों की उपस्थिति बतौर निर्देशिका, अभिनेत्री, समीक्षक पहले की अपेक्षा बढ़ी है. उन्होने यह मुकाम हासिल करने में अपना पूरा जीवन लगाया है, अपने कौशल और क्षमता से रूबरू कराया है.
रंगमंच में महिलाओं के आने से दुनिया भर में चल रहे आंदोलनों और प्रतिरोध के सहारे स्त्रियों के अपने मुद्दे भी उठाए जाने की एक कोशिश इन्हीं महिलाओं की वजह से बढ़ी है. स्त्री संघर्ष को खुद स्त्रियों ने जब इस माध्यम के सहारे अभिव्यक्त किया तो उसकी एक अलग छाप इस समाज पर पड़ी. महिलाओं द्वारा इस क्षेत्र में किए गए प्रयास को समझने के लिए जे शैलजा की 'थात्री', मीता वशिष्ठ की 'नीति मानकीकरण', बी जयश्री की 'मंथरा', उषा गांगुली की 'रूदाली', त्रिपुरारी शर्मा की 'महाभारत से', कीर्ति जैन की 'और कितने टुकड़े', अमाल अल्लाना की 'सोनाटा',...
रंगमंच के शुरुआती दौर में महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक नहीं थी. हर क्षेत्र की तरह यहां भी उन्हें इस विधा से दूर रखा गया और बाद में शोषण किया गया. ऐसे में हमारे लिए यह जानना जरूरी हो जाता है कि मौजूदा स्थिति में रंगमंच और सिनेमा में जो स्थिति आज महिलाओं की है, उसके लिए किन-किन महिलाओं का सराहनीय योगदान रहा है. रंगमंच के शुरुआती दौर में हाशिये पर रहने वाली महिलाओं से लेकर बदनाम गलियों में गुजर बसर करने वाली महिलाओं का रंगमंच से जुड़ना एक बड़ी परिघटना के रूप में हमारे सामने दिखता है.
पितृसत्ता को चुनौती देते हुए इन महिलाओं ने दोहरी लड़ाई लड़ी है. एक तो वह अपने पारिवारिक माहौल से लड़ी, दूसरा इस दानव रूपी समाज से भी उन्होंने मोर्चा लिया. फिर भी इन समस्त महिलाओं की जीवन एवं रंगयात्रा को जानने-समझने के क्रम में यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि रंगमंच की दुनिया में स्त्रियों की उपस्थिति बतौर निर्देशिका, अभिनेत्री, समीक्षक पहले की अपेक्षा बढ़ी है. उन्होने यह मुकाम हासिल करने में अपना पूरा जीवन लगाया है, अपने कौशल और क्षमता से रूबरू कराया है.
रंगमंच में महिलाओं के आने से दुनिया भर में चल रहे आंदोलनों और प्रतिरोध के सहारे स्त्रियों के अपने मुद्दे भी उठाए जाने की एक कोशिश इन्हीं महिलाओं की वजह से बढ़ी है. स्त्री संघर्ष को खुद स्त्रियों ने जब इस माध्यम के सहारे अभिव्यक्त किया तो उसकी एक अलग छाप इस समाज पर पड़ी. महिलाओं द्वारा इस क्षेत्र में किए गए प्रयास को समझने के लिए जे शैलजा की 'थात्री', मीता वशिष्ठ की 'नीति मानकीकरण', बी जयश्री की 'मंथरा', उषा गांगुली की 'रूदाली', त्रिपुरारी शर्मा की 'महाभारत से', कीर्ति जैन की 'और कितने टुकड़े', अमाल अल्लाना की 'सोनाटा', अनुराधा कपूर की 'एंटीगनी प्रोजेक्ट', माया कृष्ण राव की 'ए डीप फ्राइड जैम', वीणा पानी चावला की 'वृहन्नाला', नीलम मानसिंह चौधरी की 'किचन कथा' तथा मलयश्री हाशमी की 'वो बोल उठी' आदि नाटकों के सहारे समझा जा सकता है. यह भी सत्य है कि इनमें से कई महिलाएं अपने आपको निर्देशिका कहलाना पसंद नहीं करती. वह एक एक्टिविस्ट से तौर पर ताउम्र काम करते रहना चाहती हैं.
1950 के बाद जनवादी नाट्य समूहों द्वारा स्त्री विषयक मुद्दों को आम जन मानस तक पहुंचाया जाने लगा. धीरे धीरे इस समूह से महिलाओं का जुड़ाव एक नयी दिशा में काम करने जैसा था. आइये रूबरू होते हैं ऐसी कुछ महिलाओं से जिनका रंगमंच के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान रहा है. रंगमंच से जुड़ी सशक्त महिलाओ की अंतिम सूची तो नहीं बनाई जा सकती लेकिन निम्नलिखित नामों के बिना इस दिशा की शुरुआत भी नहीं की जा सकती.
शौकत कैफी
शौकत कैफ़ी कमाल की अदाकारा हैं. उन्होंने भारतीय जननाट्य संघ (इप्टा) और पृथ्वी थियेटर के नाटकों में लम्बे अरसे तक अदाकारी के जौहर दिखाए हैं. रंगमंच के अलावा उन्होंने बहुत-सी फ़िल्मों में अपनी एक्टिंग से दर्शकों का मन मोहा है. एम.एस. सथ्यू की फ़िल्म ‘गर्म हवा’, मीरा नायर की ‘सलाम बॉम्बे’ और मुज़फ़्फर अली की फ़िल्म ‘उमराव जान’ इसका सशक्त उदाहरण हैं. मशहूर उर्दू शायर और फिल्म लेखक स्वर्गीय कैफी आज़मी की पत्नी शौकत ने अपनी किताब ‘याद की रहगुज़र’ में इप्टा और पृथ्वी थियेटर से जुड़े हुए अपने दिनों के बारे में कई अनोखी बातें लिखी है. साथ ही अपने शौहर कैफ़ी आज़मी अपने बच्चों अभिनेत्री शबाना आज़मी और कैमरामैन बाबा आजमी के खूबसूरत और दिलचस्प किस्से हैं. रंगमंच और सिनेमा उन्हें शायद ही कभी भुला पाए.
शमा जैदी
पटकथा लेखिका, कास्ट्यूम डिजाइनर, कला निर्देशक, नाट्यकर्मी, कला आलोचक और वृत्तचित्र लेखिका शमा जैदी महिलाओं की आवाज को अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों के जरिये उठाने के लिए जानी जाती हैं. उल्लेखनीय है कि वह हिन्दी सिनेमा के मशहूर निर्देशक, कला निर्देशक, डिजाइनर एम. एस. सथ्यु की पत्नी हैं. शादी के बाद से ही शमा ने यूपी के रामपुर से दिल्ली आकर हिन्दुस्तानी थियेटर के लिए कास्ट्यूम डिजाइन करने का काम शुरू किया. बाद में मुंबई जाकर इप्टा से जुड़ी और लेखक निर्देशक और खुद एक कलाकार की तरह परफ़ोर्मेंस भी देने लगी. रंगमंच से लेकर सिनेमा और टीवी की दुनिया में उनका नाम आज भी चर्चित है.
उन्होंने हिन्दुस्तानी थियेटर जैसे शकुंतला, मिट्टी की गाड़ी, खालिद की खाला, मुद्रराक्षस, जैसे नाटकों का कास्ट्यूम डिजाइन किया है. बाद मे इप्टा से जुड़ उन्होंने कई नाटकों का अनुवाद तथा कई अन्य नाटकों को उन्होंने लिखा भी है. उनके लिखे नाटकों में स्त्री पक्ष हमें उभरा हुआ दिखता है.
डॉ. प्रतिभा अग्रवाल
1930 में बनारस में जन्मी डॉ. प्रतिभा अग्रवाल को उनके रंगमंच के क्षेत्र में दिये योगदान के लिए लाइफटाइम एचिवमेंट इन इंडियन थियेटर अवार्ड दिया जा चुका है. हम उन्हें उनकी 13 साल की उम्र में महाराणा प्रताप के पुरुष किरदार के निभाए रोल के लिए भी जानते हैं. शादी के बाद कोलकाता जाने से उनके थियेटर की चाव कम नहीं हुई. साहित्य से लगाव होने के नाते उन्होंने पीएचडी और डीलिट की उपाधि भी प्राप्त की.
1981 में उन्होने नाट्य शोध संस्थान की स्थापना के साथ नाटक के क्षेत्र में अकादमिक रुचि को बढ़ाने की ओर काम किया है. उन्हें यूपी संगीत नाटक एकेडमी द्वारा 1975 में रत्न सदस्य, उनकी किताब ‘दस्तक ज़िंदगी के लिए मध्य प्रदेश साहित्य परिषद अवार्ड, उनके द्वारा किए अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद अवार्ड, और थियेटर विधा के लिए दिये गए उनके सराहनीय योगदान के बाबत 2005 में संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड दिया गया.
अरुंधति नाग
गुजराती, मराठी और हिन्दी थियेटर की जानी मानी अभिनेत्री अरुंधति नाग किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं. थियेटर के प्रति उनके लगाव ने उन्हें इन तीन भाषाओं के इतर कन्नड, मलयालम, तमिल और इंगलिश थियेटर तक में पहुंचाया है. कन्नड फिल्मों के निर्देशक शंकर से शादी के बाद उन्होंने बंगलौर में भी थिएयर की यात्रा को जारी रखा. इनके पति शंकर नाग को हम आर के नारायण की मालगुड़ी डेज के नाम से बनी टीवी सीरीज के लिए जानते हैं.
ज्ञात हो कि अरुंधति ने गिरीश कर्नाड के प्ले, ‘संध्या छैया’ ‘नागमण्डल’ ‘अंजु मल्लिगे’ के अलावा कुछ प्रमुख कन्नड फिल्मों जैसे एक्सीडेंट 1984, परामेषी प्रेमा प्रसंगा 1984, नोदीस्वामी, नवीरोदु हीगे 1987 में बतौर अभिनेत्री के रूप में जानते हैं. हिन्दी फिल्मों पा, सपने, दिल से, अंदर बाहर में भी काम किया हैं.
उन्हें थियेटर के प्रति रुझान और कई प्रयोगों के लिए 2008 में संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड, 2010 में पद्म श्री, और 2010 में ही राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार भी मिल चुका है. उनका जीवन थियेटर और सिनेमा से पूरी तरह लिप्त रहा है वर्तमान में वह पति की मृत्यु के बाद संकेत ट्रस्ट के जरिये थियेटर के माध्यम से अपने शहर को तत्कालीन विषयों के साथ पुरजोर तरीकों से संप्रेषित करती हुई दिखती हैं.
ज़ोहरा सहगल
ज़ोहरा सहगल यानि 100 साल की बच्ची. शुरुआत से ही विद्रोही स्वभाव की ज़ोहरा सहगल का पूरा जीवन रंगमंच और सिनेमा को समर्पित रहा. अपने आखिरी दिनों तक उन्होंने इस विधा से जी भर प्यार किया. पढ़ी लिखी ज़ोहरा स्नातक होने के पश्चात वे उदय शंकर की नृत्य-मंडली में सम्मिलित हो गईं और कई जगहों की यात्रा की.
अपनी इसी यात्रा के दौरान उन्होंने अपने से आठ वर्ष छोटे कामेश्वर सहगल से प्रेम-विवाह भी किया. जो उन दिनों किसी आंदोलन से कम नहीं रहा. ज़ोहरा सहगल का भी मानना था कि अगर आप निष्क्रिय होकर घर पर बैठ गए तो समझ लीजिए आप खत्म हो गए. उनकी इसी सक्रियता से उनके जीवन संघर्ष को जाना जा सकता है.
त्रिपुरारी शर्मा
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से निर्देशन में डिप्लोमा और दिल्ली यूनिवर्सिटी की इंगलिश ग्रेजुएट प्रोफेसर त्रिपुरारी शर्मा का नाम रंगमंच की सशक्त महिलाओं के रूप में लिया जाता है. उन्होंने बहू और काठ की गाड़ी जैसी नाटकों के लेखन से नाटक विधा में अपनी मजबूत उपस्थिती दर्ज की है. काठ की गाड़ी को उन्होंने फ्रेंच में भी अनूदित किया है.
अंधा युग और ओथेलोन जैसे वेस्टर्न पेल का भारतीय भाषाओं में अनुवाद भी उनकी बड़ी उपलब्धि है. मिर्च मसाला और हजार चौरासी की माँ जैसी फिल्मों से भी वो जुड़ी रही. 1986 में यूएसए में हुई पहली इंटरनेशल विमेन प्ले राइटर्स कोन्फ्रेंस की वो भारतीय प्रतिनिधि के तौर पर भी गयी थी.
भारत में प्रमुख लोक कलाओं जैसे नौटंकी, खयाल, पंडवानी को भी उन्होने समृद्ध करने की कोशिश की है. उन्हें दिल्ली नाट्य संघ द्वारा 1986 में संस्कृति पुरस्कार, संगीत नाटक एकेडमी द्वारा सफदर हाशमी पुरस्कार, और 20013 में संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है. फिलहाल वह राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में एक्टिंग की प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं.
नादिरा बब्बर
हिन्दी थियेटर में महिलाओं की बात करते हुए नादिरा बब्बर को भुला पाना आसान नहीं है. रंगमंच और सिनेमा में एक अभिनेत्री के तौर पर वह उतनी ही सशक्त दिखती है जितनी उनके किए गए नाटक और फिल्म की कहानी. रंगमंच और सिनेमा में दिये योगदान के लिए उन्हे 2011 में संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड भी दिया जा चुका है. 1981 में उनके द्वारा शुरू किया मुंबई बेस्ड थियेटर ग्रुप ‘एकजुट’ आज सफलता की ओर अग्रसर दिखता है.
नादिरा जी को हम सभी गुरिंदर चड्ढा की फिल्म ब्राइड एंड प्रिज्युडिस, एम एफ हुसैन की मीनाक्षी: ए टेल ऑफ थ्री सिटीज, सोहेल खान की फिल्म जय हो, और सनी देओल की हाल ही मे रिलीज हुई फिल्म घायल वांस अगेन तक में देख चुके हैं. इससे यह कहा जा सकता है की नादिरा जी का शुरुआत से लेकर वर्तमान तक में रंगमंच और सिनेमा से जुड़ाव बरकरार रहा है. नादिरा एनएसडी से ग्रेजुएट हैं.
ज्ञात हो कि उनकी फैमिली इप्टा और प्रोगेसिव राइटर एशोसिएशन से जुड़ी रही जिसके कारण उसका असर उन पर भी खूब पड़ा. अपने पहले प्ले यहूदी की लड़की 1981 से उन्होंने शुरुआत की. इसके बाद भवई, शाबास अनारकली, बेगम जान, भरम के भूत, सुमन और सना, जी जैसी आपकी मर्जी, बात लाट की और हालत की, आओ पिकनिक चलें, जैसे प्ले के लिए सराही जाती हैं. उनका बनाया थियेटर ग्रुप आज भी समकालीन मुद्दों को उठाने के लिए जाना जाता है. गौरतलब है कि नादिरा जी हिन्दी सिनेमा के मशहूर अदाकार राज बब्बर की पत्नी हैं.
उषा गांगुली
मौजूदा समय में जहां कहीं भी थियेटर और प्रोटेस्ट का नाम लिया जाता है उषा गांगुली का उससे जुड़ाव होना एक आवश्यक सी बात हो गयी है. जोधपुर में जन्मी उषा गांगुली ने भरतनाट्यम सीख एक नए शहर कोलकाता में जीवन के लम्बे समय गुजारे हैं. कोलकाता की गलियों में हिन्दी थिएटर को पहुंचाने वाली उषा जी अपने को निर्देशक कम, थिएटर एक्टिविस्ट कहलाना ज्यादा पसंद करती हैं.
उनके 1976 में बनाए रंगकर्मी ग्रुप ने अब तक सैकड़ों प्रस्तुतियों से सामाजिक मुद्दों की ओर दर्शकों का ध्यान खींचा हैं. महाभोज, रुदाली, कोर्ट मार्शल, अंतरयात्रा जैसे प्ले आज भी सफलता के परिचायक माने जाते हैं. उन्हें थियेटर के लिए किए गए प्रयोग और उसके विस्तार के लिए संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड दिया जा चुका है.
उनके नाटकों में स्त्री पक्ष का उभर कर आना एक जरूरी तत्व की तरह हमें दिखता है. उनका जीवन संघर्ष उनके नाटकों से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने महिलाओं की पीड़ा का साचित्र उदाहरण प्रस्तुत किया है.
कुसुम कुमार
प्ले सुनो शैफाली के लिए मशहूर कुसुम कुमार को महिला विषयक थिएयर में अधिकतर रुचि शुरुआत से ही रही है. सुनो शैफाली में भी उन्होंने अपर कास्ट, लो कास्ट महिलाओं की व्यथा को मारक तरीके से प्रस्तुत किया है. इसके अलावा कन्यादान, राम लीला की तर्ज पर रावण लीला जैसे प्ले से उन्होंने थियेटर की ही चली आ रही पुरानी धारा और सामाजिक धारणाओं को चुनौती दी है. कुसुम जी ने 1975 में पंजाब यूनिवर्सिटी से नाट्य चिंतन में अपनी पीएचडी पूरी की है. उनके लेखन में दलित महिला, मजदूरों, शोषितों की आवाज प्रमुखता से होती है.
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