अभी हाल ही मुझे लंदन के नेशनल थियेटर में एक पाकिस्तानी लेखक का नाटक 'दारा' देखने का मौका मिला. यह दो भाईयों के बारे में था, जिसमें एक भाई दूसरे की हत्या करके भारत का बादशाह औरंगजेब बन जाता है. जबकि मारा गया उसका बड़ा भाई दारा शिकोह मुगल सिंहासन के उत्तराधिकारी होता है. भारतीय इतिहास में भुला दिया गया यह शख्स शाही मुगल परिवार में अनोखा और अद्भुत व्यक्तित्व था.
मैं खुद को उनकी सोच से अलग नहीं रख पाया और उनके जीवन के बारे में पता किया. दारा को सूफियों, मनीषियों और सन्यासियों की संगत अच्छी लगती थी. अलग-अलग धर्मों में गहरी रुचि थी. वे विश्व बंधुत्व, हिंदू और इस्लाम धर्म के बीच शांति और विभिन्न धर्मों, संस्कृति और फिलॉसफी में मेलजोल चाहते थे. दारा शिकोह अकबर और हुमायूं से प्रभावित थे. प्रारंभिक शिक्षा-दिक्षा के बाद उन्होंने एक शानदार किताब लिखी- मजमा-उल-बहरीन (दो सागरों का मिलन). यह सूफी मत और हिन्दू एकेश्वरवाद के बीच समानता पता लगाने का एक बेहतरीन प्रयास था. दारा मानते थे कि उपनिषदों का "सबसे बड़ा रहस्य" एकेश्वरवाद के संदेश में है. यह बिलकुल वैसा ही है, जिस पर कुरान आधारित है. उन्होंने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था, लेकिन वे एक सच्चे मुसलमान थे और नियमित रूप से नमाज पढ़ते थे और अल्लाह के नाम की तस्बी पढ़ा करते थे.
इस नाटक को ढाई घंटे में काफी दायरा कवर करना था. जिसमें इतिहास, धार्मिक तर्क और रोमांस, जिसमें औरंगजेब और उसकी हिंदू प्रेमिका "हीराबाई" के बीच एक दृश्य शामिल था. नाटक इस्लाम (सलाफी) के सख्त नजरिए और सूफी मत के बीच एक विवाद से भी घिरा है. और चरमपंथी विचारधारा की असलियत भी सामने लाता है. नाटक को आईएसआईएस, लश्कर-ए-तैयबा और ऐसे अन्य आतंकी संगठनों के मुद्दों से कोई झिझक नहीं है, जिनका अरब और एश्िायाई मुस्िलम दुनिया में खासा दबदबा है. नाटक में कई दौर दिखाई देते हैं. शाहजहाँ के बीमार हो जाने पर बेटों के बीच सत्ता संघर्ष दिखाई देता है. एक सीन में तो "दारा" 1658 में औरंगजेब से सामुगढ़ में हार के बाद भाग...
अभी हाल ही मुझे लंदन के नेशनल थियेटर में एक पाकिस्तानी लेखक का नाटक 'दारा' देखने का मौका मिला. यह दो भाईयों के बारे में था, जिसमें एक भाई दूसरे की हत्या करके भारत का बादशाह औरंगजेब बन जाता है. जबकि मारा गया उसका बड़ा भाई दारा शिकोह मुगल सिंहासन के उत्तराधिकारी होता है. भारतीय इतिहास में भुला दिया गया यह शख्स शाही मुगल परिवार में अनोखा और अद्भुत व्यक्तित्व था.
मैं खुद को उनकी सोच से अलग नहीं रख पाया और उनके जीवन के बारे में पता किया. दारा को सूफियों, मनीषियों और सन्यासियों की संगत अच्छी लगती थी. अलग-अलग धर्मों में गहरी रुचि थी. वे विश्व बंधुत्व, हिंदू और इस्लाम धर्म के बीच शांति और विभिन्न धर्मों, संस्कृति और फिलॉसफी में मेलजोल चाहते थे. दारा शिकोह अकबर और हुमायूं से प्रभावित थे. प्रारंभिक शिक्षा-दिक्षा के बाद उन्होंने एक शानदार किताब लिखी- मजमा-उल-बहरीन (दो सागरों का मिलन). यह सूफी मत और हिन्दू एकेश्वरवाद के बीच समानता पता लगाने का एक बेहतरीन प्रयास था. दारा मानते थे कि उपनिषदों का "सबसे बड़ा रहस्य" एकेश्वरवाद के संदेश में है. यह बिलकुल वैसा ही है, जिस पर कुरान आधारित है. उन्होंने 50 उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था, लेकिन वे एक सच्चे मुसलमान थे और नियमित रूप से नमाज पढ़ते थे और अल्लाह के नाम की तस्बी पढ़ा करते थे.
इस नाटक को ढाई घंटे में काफी दायरा कवर करना था. जिसमें इतिहास, धार्मिक तर्क और रोमांस, जिसमें औरंगजेब और उसकी हिंदू प्रेमिका "हीराबाई" के बीच एक दृश्य शामिल था. नाटक इस्लाम (सलाफी) के सख्त नजरिए और सूफी मत के बीच एक विवाद से भी घिरा है. और चरमपंथी विचारधारा की असलियत भी सामने लाता है. नाटक को आईएसआईएस, लश्कर-ए-तैयबा और ऐसे अन्य आतंकी संगठनों के मुद्दों से कोई झिझक नहीं है, जिनका अरब और एश्िायाई मुस्िलम दुनिया में खासा दबदबा है. नाटक में कई दौर दिखाई देते हैं. शाहजहाँ के बीमार हो जाने पर बेटों के बीच सत्ता संघर्ष दिखाई देता है. एक सीन में तो "दारा" 1658 में औरंगजेब से सामुगढ़ में हार के बाद भाग रहे हैं. वह एक अफगान सरदार मलिक जीवन के यहां शरण लेना चाहते हैं. दारा ने एक से ज्यादा बार शाहजहां के गुस्से से मलिक की जान बचाई थी.
(दारा सामुगढ़ में इसलिए हार गए थे क्योंकि लड़ाई के दौरान वह अपने हाथी से गिर गए थे. यह सोचकर कि उनकी मृत्यु हो गई है, दारा की सेना ने औरंगजेब के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.)
दारा को दिल्ली लाया जाता है और एक गंदी जगह में रखा जाता है. उन्हें जंजीरों में जकड़कर राजधानी की सड़कों पर एक बीमार हाथी के साथ घुमाया जाता है. उनके भाग्य का ये फैसला आम जनता के बीच उनकी लोकप्रिय राजकुमार वाली छवि की वजह से किया गया क्योंकि वे राजनीतिक तौर पर खतरा हो सकते थे. औरंगजेब रईसों और उलेमाओं का एक समारोह बुलाकर दिल्ली में विद्रोह के कथित खतरे से आगाह करता है. दारा को इस्लाम का त्याग करने वाला बताकर उन्हें सार्वजनिक शांति के लिए एक खतरा घोषित किया जाता है.
नाटक का केंद्रीय और बेहतरीन एक्ट है "नकली मुकदमा". दारा कोशिश करते हैं लेकिन एक शरीयत अदालत में उन्हें उनकी मान्यताओं और लेखन के लिए सजा सुनाई जाती है. वे अदालत में एक बेहद भावुक कर देने वाला भाषण देते हैं कि धर्म कैसे भगवान तक पहुंचने का रास्ता ही बताते हैं: "कौन परवाह करता है कि तुम रोशनी में आने के लिए कौन सा दरवाजा खोलते हो" चमकती आंखें के साथ दारा सहिष्णुता, प्रेम और हमारी साझा मानवता की समझ का उपदेश देते हैं. यह एक स्फूर्तिदायक दृश्य और अद्भुत संदेश है. दारा कैद है और उसके बाद 30 अगस्त 1659 की रात औरंगजेब के चार गुर्गे उनके घबराए हुए बेटे के सामने ही उनकी हत्या कर देते हैं. उनका कटा हुआ सिर जेल में अपनी बेटी बेगम जहांआरा के साथ बंद सम्राट शाहजहां को एक थाली में परोसा जाता है. औरंगजेब ने 1659 से 1707 तक शासन किया. भारत में हिंसा और विभाजन का दौर था जो मुगल साम्राज्य को पतन की और ले जाता है.
नाटक की पटकथा इसके साथ पर्याप्त न्याय नहीं करती और यह एक निराशाजनक तरीके से अचानक समाप्त होता है. निर्देशन अच्छा है, शानदार वेशभूषा और शानदार लाइटिंग के साथ लाइव म्यूजिक, "जाली" वाली स्क्रीन का सेट डिजाइन और कलाकारों के लिए मंच पर पर्याप्त जगह सभी दृश्यों को तेजी के साथ बदलने में मदद करती है. संगमरमर मेहराब के कोनों से मुगल काल के स्थापत्य का पता चलता है. नाटक ने भारत-पाकिस्तान की इस कहानी को दिखाने की कोशिश की. इस प्रयास का श्रेय नेशनल थिएटर को जाता है. क्या यह भारत के इतिहास में बड़ा टर्निंग पॉइंट था? मुगल साम्राज्य की कामयाबी विभिन्न धर्मों के लोगों को अपनाने के कारण थी. क्या होता अगर दारा अपने कट्टरपंथी भाई औरंगजेब की बजाय सम्राट जाता? क्या पूरे भारत में इस्लाम की सूफी विचारधारा फैल जाती, इस विचार के साथ कि सभी धर्म भगवान की तरफ जाने वाले रास्ते के बारे में ही जागरूकता करते हैं? क्या हिंदु गीता और कुरान पढ़ना सीख सकते हैं. और क्या मुसलमान एक सार्वभौमिक भगवान के आने की अवधारणा को सराहेंगे?
अगर मुगल साम्राज्य बना रहता तो क्या अंग्रेज भारत को उपनिवेश बना पाते? अगर औरंगजेब पाकिस्तान में जगह नहीं बना पाया तो क्या तालिबान या लश्कर इतिहास में याद रखे जाएंगे? क्या भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजन रोका नहीं जा सकता था, यदि अंग्रेजों के साथ बातचीत जमीनी नेताओं ने की होती, न कि वकीलों ने जिन्हें जीत ही अच्छी लगती है? क्या जमीनी राजनेता लोगों की इच्छाओं का ज्यादा ख्याल नहीं रखते, बजाए उनके जो पश्चिमी तौरतरीकों में पढ़े, जिनके साथ अंग्रेज अधिक सहज महसूस करते?
क्या भारत और पाकिस्तान धार्मिक आधार पर विभाजित होते?
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