क्या महेश शर्मा और ओवैसी रुकवाएंगे दंगे?
दादरी की घटना दिखाती है कि हमारी सियासत को न राम की फिक्र है और न रहीम की बस उन्हें हर तरह से अपने राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि करनी है.
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इससे पहले कि पूरा देश अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर उनके अहिंसा, शांति, छुआछूत से मुक्ति के पाठों को दोहराता, उसके कुछ दिन पहले ही दादरी में एक मुस्लिम परिवार पर उन्मादी भीड़ हमला करके परिवार के मुखिया अखलाक को पीट-पीट कर मार डालती है. वजह उस परिवार पर बीफ खाने का आरोप है.
सियासत देखिए, इस घटना पर मीडिया की नजर पड़ते ही बड़े नेताओं ने दादरी का रुख कर लिया. इस तरह की किसी घटना या दंगे के बाद हमारे सियासतदान दौरा करने से चूकते भी कहां है. पहले केंद्रीय मंत्री और अपने कुछ बयानों के लिए विवादों में रहने वाले महेश शर्मा दादरी के उस गांव में पहुंचते हैं. फिर असदुद्दीन ओवैसी भी दस्तक देते हैं. दरअसल, हमारी सियासत को न राम की फिक्र है और न रहीम की बस उन्हें हर तरह से अपने राजनीतिक स्वार्थ की सिद्धि करनी है.
महेश शर्मा भीड़ द्वारा बेहरमी से मार दिए गए अखलाक के गांव जाते हैं उसके परिवार से हमदर्दी जताते हैं लेकिन यह कहना भी नहीं भूलते हैं कि इस हत्या के आरोप में जिन हिंदू युवकों को गिरफ्तार किया गया है उन्हें भी न्याय जरूर मिलेगा. साथ ही वह इस घटना को महज एक हादसा करार देते हैं. महेश शर्मा से पूछा जाना चाहिए कि कैसे किसी हादसे की साजिश गांव के मंदिर से बाकायदा लाउडस्पीकर से तैयार की जा सकती है और क्यों हिंदू बहुल इलाके में एक मुस्लिम ही इस हादसे का शिकार होता है. शर्मा को तो शायद ये भी नहीं पता होगा कि अखलाक की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने वाले पांच लोगों में से एक कथित तौर पर स्थानीय बीजेपी नेता का बेटा भी था. इतनी सुनियोजित हत्याकांड को हादसे का नाम नेता ही दे सकते हैं. क्योंकि नेता ऐसे हादसों का राजनीतिक फायदा लेना अच्छी तरह जानते हैं.
और फिर दादरी की ही बात क्यों करें. इस घटना के दो दिन बाद ही एक 90 वर्ष के दलित को सिर्फ इसलिए जला दिया जाता है क्योंकि उसने मंदिर में प्रवेश किया होता है. उस मंदिर में जिसके भगवान पर ऊंची जाति के लोगों का ही 'अधिकार' है. इस धर्मनिरपेक्ष देश में आजादी के 68 वर्षों के बाद भी किसी को सिर्फ इस संदेह में मार दिया जाना कि उसने बीफ खाया था या किसी दलित को इसलिए जला दिया जाना कि उसने मंदिर में कदम रख दिया था दिखाता है कि सिर्फ संविधान में ही किसी शब्द को लिख भर देने से वह देश के जनमानस का हिस्सा नहीं हो जाता है. आखिर क्या वजह है देश में धार्मिक असहिष्णुता के बढ़ते चले जाने और गंगा-जुमना तहजीब वाले देश में इस कदर एकदूसरे के प्रति नफरत की आग धधकने की. क्या यह किसी सोची-समझी साजिश का हिस्सा है, क्या कोई अपने स्वार्थ के लिए हमारा इस्तेमाल करना चाहता है, इसकी विवेचना जरूरी है.
68 वर्षों में आगे नहीं और पीछे गया है देश?
भले ही भारत को दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती आर्थिक महाशक्ति कहा जाता हो वह चीन से आगे निकलने की होड़ में लगा हो लेकिन अपने देश में ही बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता और धार्मिक द्वेष की घटनाएं दिखाती हैं कि वह आधुनिकता और प्रगतिवादी सोच के मामले में मीलों पीछे छूटता जा रहा है. कहने को तो भारत मंगल पर पहुंच गया है लेकिन खुद अपने ही देश को अपनों के रहने लायक भी नहीं बना पाया है. दादरी जैसी घटनाएं दिखाती हैं कि कैसे 21वीं सदी में भी इंसान जानवर बनने पर आमादा है.
विकास के बजाय बीफ पर चर्चा?
पिछले कुछ महीनों के दौरान देश में बीफ पर बैन और उस पर हुई चर्चाओं ने देश की बाकी जरूरी समस्याओं को पीछे छोड़ दिया है. ऐसा लगता है कि ऐसा किसी सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है, ताकि इस मुद्दे के बहाने दो संप्रदायों के बीच नफरत फैलाकर अपने राजनीतिक हित साधे जा सकें. फिर चाहे वह महाराष्ट्र में बीफ बैन का मुद्दा हो या दादरी में बीफ के नाम पर एक मुस्लिम की पीट-पीटकर हत्या, इन दोनों ही घटनाओं से किसी धर्म का भला नहीं हुआ उलटा इससे लोगों के बीच नफरत और धार्मिक उन्माद ही बढ़ा है. जिस देश में 40 करोड़ लोगों को दो वक्त की रोटी न नसीब हो और जहां दुनिया के सबसे ज्यादा कुपोषित बच्चे रहते हों उस देश में विकास के बजाय बीफ पर बहस और इसे ही देश का सबसे बड़ा मुद्दा बना देना घटिया राजनीतिक सोच का ही परिचायक है. ऐसी सोच से कुछ दलों और नेताओं का भला तो हो सकता है लेकिन देश का भला कभी नहीं होगा.
फिर तो अधूरा है गांधी जयंती मनाना
महात्मा गांधी ने अपनी पूरी जिंदगी लोगों को सत्य, अहिंसा, धर्मनिरपेक्षता और छुआछूत के खिलाफ जंग का पाठ पढ़ाया. लेकिन उनके 154वें जन्मदिन पर भी किसी दलित को मंदिर जाने पर जलाने और बीफ के विवाद में किसी मुस्लिम को मार दिए जाने की घटनाएं दिखाती हैं कि गांधी के देशवासी हर साल उनकी जयंती मनाना की रस्म अदायगी तो जरूर करते हैं लेकिन उनके विचारों और सिद्धांतों की सबसे ज्यादा अवहेलना भी यही लोग करते हैं.
कहने को तो हमारा देश अहिंसा और धार्मिक निरपेक्षता में यकीन करने वाला देश है लेकिन यहां आज भी जाति के नाम पर छुआछूत और धर्म के नाम पर नफरत की भावना विद्यमान है. गांधी के देश में उनके ही विचारों के साथ ऐसा खिलवाड़ शर्मनाक है. ऐसा करके हम आने वाली पीढ़ी को क्या संदेश देना चाहते हैं और ऐसे में अगर भारत विकसित हो भी जाए तो एकदूसरे के खून के प्यासे और नफरत की आग में जलते देश का हम क्या करेंगे. प्यार, भाईचारे और सद्भाव के बिना हमारा देश अधूरा है, इसलिए इसे जीवित रखने के लिए जरूरी है सभी धर्मों के बीच परस्पर प्रेम और सौहार्द होना. अन्यथा गांधी के सपनों का भारत हम कभी नहीं बना पाएंगे.
अनेकता में एकता ही इस देश की आत्मा रही है. इसलिए हमें इस देश की आत्मा की रक्षा के लिए मुट्ठी भर राजनेताओं की कुत्सित कोशिशों को सफल होने से रोकना है. इस देश को सभी के लिए सुरक्षित बनाकर ही हम गांधी जी के सपनों को पूरा कर पाएंगे और यही बापू के लिए सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी.
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