चुनावी साल में अन्ना हज़ारे को फिर अनशन की याद आई
यह देखने की बात होगी कि अन्ना इस आंदोलन को कैसा रूप देते हैं. विपक्षी दल इस आंदोलन को अपने फ़ायदे में प्रयोग करना चाहेंगे. क्या इस बार भी कोई अरविंद केजरीवाल, अन्ना के संघर्ष का लाभ लेकर राजनीतिक रोटियां सेंक लेगा?
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केंद्र की पिछली कांग्रेस सरकार के खिलाफ़ हवा बनाने में अन्ना हज़ारे की बहुत बड़ी भूमिका रही थी. 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन' की मुहिम ने मनमोहन सिंह सरकार की नींद उड़ा दी थी. देश में ऐसा माहौल बन गया था कि मानो पूरा देश किसी आक्रांता से अपने हक के लिए लड़ाई लड़ रहा हो. मनमोहन सरकार को भारत की सबसे भ्रष्ट सरकारों में गिना जाता है. यही कारण है कि अन्ना आंदोलन को भारत ने सिर आंखों पर बिठा लिया था.
अन्ना हज़ारे एक बार फिर से अपने पसंदीदा काम- 'आंदोलन' करने के लिए दिल्ली आ रहे हैं. 23 मार्च 2018 से लोकपाल और किसानों के मुद्दों को लेकर अन्ना का आंदोलन दिल्ली में प्रस्तावित है. पिछले साल अक्तूबर के आस-पास से ही अन्ना दिल्ली में अनशन की बात कर रहे थे, लेकिन जानबूझकर या अनजाने में यह आंदोलन 2018-19 के चुनावी साल में ही हो रहा है.
ऐसे में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि आख़िर अन्ना हज़ारे को 2018-19 के चुनावी साल में आंदोलन की क्या ज़रूरत पड़ गई? अन्ना हज़ारे को इसी वर्ष ही राष्ट्रीय स्तर पर आंदोलन करने की क्या आवश्यकता आन पड़ी? पिछले चार सालों में अन्ना ने राष्ट्रीय स्तर पर कभी लोकपाल और किसानों के लिए आंदोलन करने के बारे में क्यों नहीं सोचा?
चुनावी साल में आंदोलन का पासा फेंककर क्या कमाना चाहते हैं अन्ना हजारे?
मनमोहन सरकार में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम भारतीय में स्वाभाविक रोष था. आम जनता उस समय के भ्रष्ट वातावरण से त्रस्त थी. अन्ना आंदोलन ने उस जन भावना को खूब अच्छी तरह दिशा दी थी, परंतु आज देश में वैसे रोष की स्थिति बिल्कुल नहीं है. उस समय और आज के समय में ज़मीन-आसमान का अंतर है. सच्चाई तो यह है कि अन्ना आंदोलन ने एक प्रकार से मनमोहन सरकार को 'ब्लैकमेल' किया था. वह इसलिए संभव हुआ था क्योंकि मनमोहन सरकार अपने भ्रष्टाचार और शिथिलता के नीचे दबी पड़ी थी. मनमोहन सरकार अंदर से कमज़ोर और डरपोक हो गई थी. आज देश में वैसी समस्या नहीं है. इसलिए देश में पुनः उस स्तर के 'ब्लैकमेल' करने वाले आंदोलन की आवश्यकता नहीं है.
अपना विरोध करने और सरकार को सुझाव देने का अधिकार प्रत्येक भारतीय के पास है. अन्ना को भी विरोध व्यक्त करने और असहमत होने का पूरा हक है. यदि अन्ना आंदोलन सार्थक बहस के द्वारा अपनी असहमति जताती है और अपने सुझावों को सरकार तक ले जाती है तो यह स्वागतपूर्ण होगा. इसके विपरीत यदि 'ब्लैकमेल' का मार्ग चुना गया तो यह कदम स्वयं अन्ना हज़ारे की साख को नुकसान पहुंचाएगा.
यह देखने की बात होगी कि अन्ना इस आंदोलन को कैसा रूप देते हैं. विपक्षी दल इस आंदोलन को अपने फ़ायदे में प्रयोग करना चाहेंगे. क्या इस बार भी कोई अरविंद केजरीवाल, अन्ना के संघर्ष का लाभ लेकर राजनीतिक रोटियां सेंक लेगा? इन सब प्रश्नों के जवाब आने वाला समय देगा.
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