केजरीवाल 'जय श्रीराम' बोल कर भी कभी मोदी जैसे नहीं बन पाएंगे
राजनीतिक विरोधियों की राय अलग होती है और वो अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) और नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) दोनों के केस में एक जैसा ही हो सकता है, लेकिन दोनों ही नेताओं के समर्थक जब सोचते होंगे तो जय श्रीराम (Jai Sriram) के नारे लगाना और लोकपाल को भुला देने का मलाल जरूर होगा.
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) को 2024 के आम चुनाव में चैलेंज करने के लिए विपक्षी दलों के नेता अपने अपने तरीके से तैयारी कर रहे हैं. ऐसी कुछ तैयारियां सामूहिक तौर पर तो कुछ नेता अकेले कर रहे हैं.
राहुल गांधी भी तैयारी कर रहे हैं और ममता बनर्जी भी जिनकी सबको साथ लेकर चलने की कोशिश है क्योंकि अलग अलग विपक्षी खेमे के किसी भी नेता की वैसी हैसियत नहीं बन पायी है. राहुल और ममता के अलावा जो तीसरा नाम प्रयासरत है वो अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) का ही सामने आता है.
अरविंद केजरीवाल की हालिया राजनीति को देख कर तो यही लगता है कि जैसे पहले वो कांग्रेस की रिप्लेस करने में जुटे थे, अब बीजेपी पर उनकी निगाह टिक गयी है. पहले अरविंद केजरीवाल की राजनीति में भी राम-नाम से पूरी तरह परहेज ही देखने को मिलता रहा, फिर भी वो कभी ममता बनर्जी की तरह रिएक्ट नहीं किये. जैसे ममता बनर्जी ने कोलकाता में नेताजी के कार्यक्रम में जय श्रीराम के नारे लगाने पर गुस्से का इजहार किया था. पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले नेताजी को लेकर हुए उस प्रोग्राम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद रहे.
बहरहाल, सबसे पहले हनुमान जी को पकड़ने के बाद अब अरविंद केजरीवाल श्रीराम तक पहुंच चुके हैं. एफ-एम और टीवी पर विज्ञापनों में जय श्रीराम (Jai Sriram) बोलते बोलते वो अयोध्या भी हो आये हैं और राजनीति में राम-नाम की कृपा पाने के लिए दिल्ली के बुजुर्गों खातिर श्रवण कुमार बनने का प्रयास भी कर रहे हैं.
2020 में दिल्ली विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद केजरीवाल ने मंच से कहा था, 'आज से नये तरीके की राजनीति होगी.' तब भले ये साफ तौर पर नहीं समझ आया हो, लेकिन धीरे धीरे समझ में आने लगा है. ये भी समझ में आने लगा है कि वो चुनावों के दौरान क्यों हनुमान चालीसा पढ़े थे और कनॉट प्लेस में नियमित तौर पर मंदिर जाने का जिक्र कर रहे थे.
लेकिन क्या अरविंद केजरीवाल राजनीति में जय श्रीराम बोलने ही आये थे? क्या दिल्ली में चुनावी जीत के बाद अरविंद केजरीवाल जिस नये तरीके की राजनीति का जिक्र किये, शुरुआत भी उसी राजनीति को लेकर हुई थी?
ब्रांड मोदी बनाम केजरीवाल का यू-टर्न
सबसे बुरा होता है उम्मीदों का टूट जाना - अगर इस पैमाने पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तुलना करें तो क्या हम किसी ऐसे नतीजे पर पहुंच सकते हैं जहां दोनों की राजनीति में साफ साफ फर्क नजर आये?
राजनीति ही नहीं आंदोलन और समाज के दूसरे क्षेत्रों में भी छवि बहुत मायने रखती है - और ये छवि ही जीवन भर की कमाई होती है. पूंजी. सरमाया. ये एक झटके में कब खत्म हो जाये, मालूम नहीं होता.
ये कोई लौह पुरुष कहे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी से पूछे. ये कोई आयरन लेडी कही जाने वाली इरोम शर्मिला से जाकर पूछे. शब्दों के मुंह से निकलने से पहले ही चेहरे के भाव से ही मन की बात समझी जा सकती है.
केजरीवाल और मोदी के राजनीति की नींव के हिसाब से ही इमारत खड़ी हो रही है!
पाकिस्तान जाकर लालकृष्ण आडवाणी का जिन्ना को सेक्युलर बता देना, उनकी हार्डलाइनर हिंदुत्व की राजनीति के लिए सबसे बड़ा झटका रहा. तत्काल प्रभाव से बीजेपी अध्यक्ष पद से उनके इस्तीफे के पांच साल बाद भले ही संघ ने बीजेपी को अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मंजूरी दी हो, लेकिन उस एक वाकये ने तो जैसे जिंदगी भर की राजनीति मिट्टी में ही मिला दी.
करीब डेढ़ दशक तक इरोम शर्मिला विरोध की आवाज बनी रहीं और पूरी दुनिया में उनकी मिसाल दी जाती रही, लेकिन अभी वो कहां गुमनाम जिंदगी जी रही है, कम लोगों को ही पता होगा. जैसे ही इरोम शर्मिला ने आंदोलन से पीछे हटने का फैसला किया, उनके घर वाली गली में ही उनको एंट्री नहीं मिल पायी - और चुनाव नतीजे आये तो 99 वोटों के लिए लोगों को थैंक यू बोलना पड़ा था.
ऐसा भी नहीं कह सकते कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात से बाहर निकलने के लिए और फिर देश से बाहर अपनी इमेज सुधारने के लिए कोई कोशिश नहीं की है. बहुत कुछ बदल चुका है. सबका साथ, सबका विकास का नारा भी ऐसे ही इमेज बिल्डिंग प्रोग्राम का हिस्सा रहा जिसमें 2019 के आम चुनाव में 'विश्वास' और 15 अगस्त के भाषण के दौरान 'प्रयास' जोड़ा जा चुका है.
मोदी के पुराने नारे का अपडेटेड वर्जन है - सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास.
बदलाव की निरंतर प्रक्रिया से गुजरने के बावजूद कभी नरेंद्र मोदी ने वो इरादा नहीं बदला जिसके साथ अपनी राजनीति की शुरुआत की थी. हिंदुत्व की राजनीति, राष्ट्रवाद की राजनीति - बीजेपी इसे ही ब्रांड मोदी के तौर पर पेश करते हुए चुनाव दर चुनाव जीतती आ रही है.
क्या अरविंद केजरीवाल को कभी ये ख्याल आता है कि उनके ब्रांड वैल्यू का क्या हाल हो रखा है - सबसे बड़ा फर्क ये है कि मोदी ने अपनी राजनीति के जरिये लोगों में जो उम्मीद पैदा की उसे लगातार सींचते और पालते पोसते रहे, लेकिन केजरीवाल के ट्रैक रिकॉर्ड को देखें तो लगता है पहले झटके में ही तौबा कर लिया.
1. जैसे सपनों का मर जाना: सोनिया गांधी भले ही नरेंद्र मोदी को 'मौत का सौदागर' बता चुकी हों, राहुल गांधी 'खून की दलाली' का इल्जाम लगा चुके हों और खुद केजरीवाल भी 'कायर' और 'मनोरोगी' बता चुके हों - लेकिन मोदी के समर्थकों पर ऐसी बातों का फर्क क्यों नहीं पड़ता.
ऐसा इसलिए क्योंकि मोदी तो शुरू से ही अपने रास्ते पर चलते रहे और कभी बदले नहीं. बरसों पहले अयोध्या पहुंच कर भी मोदी ने एक दिन भव्य राम मंदिर निर्माण होने का ही सपना देखा था - और वो दिन भी आया जब वो देश के प्रधानमंत्री बन कर भूमि पूजन में भागीदार भी बने.
गुजरात से दिल्ली तक का सफर पूरा कर लेने के बाद भी नरेंद्र मोदी अपने समर्थकों को याद दिलाते रहते हैं कि श्मशान और कब्रिस्तान की राजनीति कैसी होती है - और ये भी कि कुछ लोगों के कैसे उनके कपड़ों से भी पहचाना जा सकता है.
लेकिन अरविंद केजरीवाल तो भूल ही गये कि कभी वो देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के वादे किया करते थे. वो देश में लोकपाल लाने की बातें करते थे. लोकपाल को लेकर तो तब की कांग्रेस सरकार भी तैयार हो गयी थी - और अब तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश से ही सही देश में लोकपाल है भी, लेकिन क्या मौजूदा लोकपाल का रूप वही है जैसी केजरीवाल एंड कंपनी की कल्पना रही या जैसा वे आम आदमी को समझाते रहे. वे तो अपनी तरफ से नाम भी जन लोकपाल दे रखे थे.
क्या अब वास्तव में देश से भ्रष्टाचार खत्म हो चुका है - क्योंकि मोदी सरकार और बीजेपी की बाकी सरकारों का दावा तो ऐसा ही ही, लेकिन जब भी बीजेपी के बड़े नेता उन राज्यों में चुनाव लड़ने जाते हैं जहां उनकी सरकार नहीं होती - सबसे पहले भ्रष्टाचार के ही इल्जाम लगाये जाते है. पश्चिम बंगाल ताजातरीन मिसाल है.
अगर दिल्ली को लेकर केजरीवाल भी ऐसे दावे करें तो कोई बात नहीं, लेकिन क्या वो ये भी मान चुके हैं कि कांग्रेस शासन वाली और न ही बीजेपी सरकारों वाले राज्यों में भी भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस वास्तव में है?
अरविंद केजरीवाल ने अपनी 49 दिन की पहली सरकार से इस्तीफा देकर ये समझाने की कोशिश की थी कि जब लोकपाल बना ही नहीं सकते तो सरकार चलाने का क्या फायदा - लेकिन साल दर साल बीत जाने के बाद भी क्या केजरीवाल के मुंह से ये कहते सुना गया कि वो अगर केंद्र में सरकार बना पाये तो उन सभी बातों को अमल में लाने का प्रयास करेंगे जिन वादों के साथ राजनीति में कदम रखे थे.
अरविंद केजरीवाल कभी नरेंद्र मोदी की तरह लोगों की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे, लेकिन मोदी जिस हिंदुत्व के प्रभाव की उम्मीद जगाये रखे उस पर हमेशा कायम रहे. आज हर मोदी समर्थक कट्टर मुस्लिम विरोध के मुद्दे पर मोदी के साथ है - क्या अरविंद केजरीवाल के साथ भी तब के लोग हैं?
असल बात तो ये है कि केजरीवाल की राजनीति का समर्थन करने वाले अब बस पाश की कविता याद कर संतोष कर लेते हैं - 'सबसे खतरनाक होता है सपनों का मर जाना!'
2. जैसे उम्मीदें जगाये रखना: अब तो लगता है जैसे अरविंद केजरीवाल की राजनीति भी स्टॉकहोम सिंड्रोम की शिकार हो चुकी हो - मोदी का विरोध करते करते मोदीमय हो जाना आखिर क्या कहलाता है? अब तो यही लगता है जैसे अरविंद केजरीवाल भी किसी दिन 'फकीर' बन जाने जैसा महसूस करने से पहले ब्रांड मोदी में ही हिस्सेदारी का दावा ठोक रहे हों.
अरविंद केजरीवाल का हनुमान चालीसा तक पढ़ना एक आम इंसान या आम हिंदू के भक्ति भाव जैसा ही लगा था, लेकिन उनका जय श्रीराम बोलना तो हिंदुत्व के राजनीतिक इस्तेमाल की बात करता है. वो अयोध्या जाते हैं - और लोगों को ये जताने की कोशिश करते हैं कि वो भी हिंदुत्व की राजनीति के रास्ते आगे बढ़ने का प्लान कर चुके हैं. हो सकता है वो कांग्रेस से अलग दिखाने की कोशिश कर रहे हों, जिसमें सोनिया गांधी के कांग्रेस को मुस्लिम पार्टी की छवि से निकालने की कोशिश से कॉन्ट्रास्ट दिखाने की भी कोशिश हो.
लेकिन क्या 26 नवंबर 2012 को आम आदमी पार्टी की स्थापना के वक्त उससे जुड़ चुके या जुड़ने को लेकर खुशी से झूम रहे लोगों को अरविंद केजरीवाल का लोकपाल या भ्रष्टाचार का जिक्र तक नहीं करना और जय श्रीराम के नारे लगाने शुरू करना दुखी नहीं कर रहा होगा.
अगर अरविंद केजरीवाल आने वाले दिनों में नरेंद्र मोदी की जगह लेने की सोच रहे हैं तो ये नहीं भूलना चाहिये कि मंजिल की तरफ दोनों के रास्ते में बड़ा फर्क रहा है. अरविंद केजरीवाल की जो भी सीक्रेट रणनीति रही हो, लेकिन उम्मीदें तो वो बदलाव की राजनीति की ही जगायी थी - और वो जय श्रीराम वाली राजनीति तो कतई नहीं थी.
अरविंद केजरीवाल के मुंह से अब कभी भी लोकपाल या करप्शन खत्म करने की बातें सुनने को नहीं मिलतीं, लेकिन नरेंद्र मोदी को तो उनका हर सपोर्टर अयोध्या में राम मंदिर बनवाते हुए देख रहा है - असल में अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोंदी की राजनीति में बुनियादी और सबसे बड़ा फर्क भी यही है.
सपने दोनों दिखाते हैं, लेकिन...
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल में एक कॉमन बात जरूर है, दोनों ही अच्छे सपने अच्छी तरह दिखाते हैं - कुछ ऐसे कि सपनों की दुनिया में खोकर लोग मस्त हो जायें. ऐसे सपने जिसके हकीकत में तब्दील न होने को लेकर लोगों के मन में कोई शक-शुबहा न रहे.
मोदी, केजरीवाल और कॉमेडी: स्टैंड अप कॉमेडियन वरुण ग्रोवर ने अपने अंदाज में दोनों नेताओं की तुलना की है. एक शो में वरुण ग्रोवर किस्सा सुनाते हैं, 'बचपन में... हमें एक जूसर बेचने वाला इम्प्रेस करता था, अपने जूसर में एक संतरे से पांच कप जूस निकाल के. तो हम वो जूसर खरीद लेते थे. जब हम घर जाके एक संतरे का जूस निकालते थे तो हमसे तो एक ही कप जूस निकलता था. 2014 में पूरे भारत ने ये जूसर खरीद लिया है - 2015 में दिल्ली वालों ने भी वो जूसर खरीद लिया है!'
मोदी और केजरीवाल की राजनीति में भले ही अब भी जमीन आसमान जैसा ही अंतर लगे, लेकिन दोनों अपने लोगों से कनेक्ट होकर अपनी बात समझा ही लेते हैं - जैसे देश में मोदी लोगों को अपनी बातें समझा कर वोट हासिल कर लेते हैं, केजरीवाल भी दिल्ली विधानसभा चुनाव में ये बात साबित कर चुके हैं. लोक सभा चुनाव में केजरीवाल हमेशा ही मोदी से मात खाते रहे हैं, चाहे वो वाराणसी संसदीय सीट पर सीधा मुकाबला हो या फिर दिल्ली की सात लोक सभा सीटों पर बीजेपी और आम आदमी पार्टी का मुकाबला.
1. अरविंद केजरीवाल आंदोलन के रास्ते राजनीति में आये थे. अन्ना हजारे को चेहरा बना कर अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ ऐसा आंदोलन खड़ा किया कि राजनीति से निराश हो चुके लोगों के मन में भी उम्मीदें जाग उठीं. वो दौर भी ऐसा रहा जब केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की मनमोहन सिंह सरकार थी - और अक्सर ही भ्रष्टाचार की खबरें आया करती थीं. ये महज संयोग हो या अरविंद केजरीवाल का प्रयोग मगर वक्त बिलकुल माकूल था. सही समय पर सही शुरुआत का पूरा फायदा भी मिला.
2. तब अरविंद केजरीवाल ने राजनीति को बदल डालने का महज वादा ही नहीं किया था, बल्कि वो लोगों में राजनीति के जरिये बदलाव की उम्मीद जगाने में भी पूरी तरह सफल भी रहे - और रामलीला आंदोलन के मंच से जब केजरीवाल ने मुख्यधारा की राजनीति में आने की घोषणा की तो राजनीति को बदलने और देश के लिए कुछ कर गुजरने की लोगों के मन में तमन्ना जाग उठी.
3. देखते ही देखते विदेशों में अपनी अच्छी खासी नौकरी और काम छोड़ कर लोग अरविंद केजरीवाल से जुड़ने की कोशिश करने लगे, लेकिन गुजरते वक्त के साथ तकरीबन सभी का एक जैसा ही अनुभव रहा. जैसा शुरुआती अनुभव योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और आनंद कुमार को हुआ, आगे चल कर कुमार विश्वास, आशुतोष, आशीष खेतान, कुमार विश्वास और आदर्श शास्त्री तक सभी एक जैसा ही महसूस करने को मजबूर हुए. हो सकता है कुछ लोगों के अपनी राह बदल लेने की निजी वजहें भी हों, जैसे आंदोलन की अगुवाई करने वाले अन्ना हजारे या फिर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ ही बीजेपी की तरफ से दिल्ली में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार रहीं किरण बेदी.
4. 2021 में अरविंद केजरीवाल वही नारा लगा रहे हैं जिसे 90 के दशक में संघ, वीएचपी और बीजेपी न सिर्फ गढ़ा बल्कि समय के साथ धार भी तेज करते गये - जय श्रीराम. हो सकता है अरविंद केजरीवाल का आम-आदमी-भाव बीजेपी के नारे में आम हिंदू का जुड़ाव खोज लिया हो क्योंकि 'राम राम जी' काफी पहले से प्रचलन में रहा है - और कहीं न कहीं जय श्रीराम भी उसी का परिष्कृत स्वरूप जो लोगों में 'गर्व से कहो हम हिंदू है' वाले भाव को भी अंदर तक भर देता है.
5. आम आदमी पार्टी की तरफ से शुरू किये गये तिरंगा यात्रा या दिल्ली के स्कूली पाठ्यक्रम में देशभक्ति का पाठ शुमार किया जाना अरविंद केजरीवाल की निंरतर बदलती राजनीति के छोटे छोटे पड़ाव हैं - और अब शायद ही कभी उनके मुंह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 'कायर' और 'मनोरोगी' कहते सुनने को मिले या फिर वो वीडियो जारी कर पाकिस्तान के खिलाफ 'सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत' मांगते नजर आयें.
ये सब भी शायद वैसे ही है जैसे अब अरविंद केजरीवाल के मुंह से कभी लोकपाल या जन-लोकपाल जैसे शब्द सुनने को नहीं मिलते. एक दौर ऐसा भी देखा गया है जब अरविंद केजरीवाल और उनके साथी गांधी टोपी पहना करते थे जिस पर 'मैं हूं आम आदमी' के साथ लिखा होता था - मुझे चाहिये लोकपाल!'
जय श्रीराम बोलने के बाद अरविंद केजरीवाल अब अपनी राजनीति कुछ ऐसे समझाने की कोशिश कर रहे हैं, 'मुझे नहीं पता कि नरम हिंदुत्व क्या है? मैं इस देश के 130 करोड़ लोगों को एकजुट करना चाहता हूं... एक इंसान को दूसरे से जोड़ना चाहता हूं... यही हिंदुत्व है... हिंदुत्व एकजुट करता है... हिंदुत्व तोड़ता नहीं है.’
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