अयोध्या बनी उत्तर प्रदेश की 'राजनीतिक राजधानी'!
अयोध्या (Ayodhya) की तरफ जिस तरह एक एक करके ज्यादातर राजनीतिक दल खिंचे चले जा रहे हैं, ऐसा लगता है अब वो उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी की शक्ल लेने लगी है - और बहुत कुछ 2022 के यूपी चुनाव (UP Election 2022) में ही साफ हो जाएगा.
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अयोध्या (Ayodhya) जाकर हिंदुत्व वोट के लिए हाजिरी लगाने वालों में अब अरविंद केजरीवाल का नाम भी जुड़ गया है. अरविंद केजरीवाल से पहले आम आदमी पार्टी नेता मनीष सिसोदिया और संजय सिंह भी अयोध्या का चुनावी दौरा कर चुके हैं.
अयोध्या का दौरा करने वाले प्रमुख नेताओं पर नजर डालें तो पहले योगी आदित्यनाथ के बाद सिर्फ उद्धव ठाकरे ही नजर आते थे, लेकिन अब तो असदुद्दीन ओवैसी तक अयोध्या का दौरा कर चुके हैं.
राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन के बाद दिसंबर, 2020 में समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव भी अयोध्या का दौरा कर चुके हैं - और घोषणा की है कि जब राम मंदिर बन तक तैयार हो जाएगा तब वो पत्नी डिंपल यादव और बच्चों के साथ राम लला का दर्शन करने अयोध्या जाएंगे.
उद्धव ठाकरे के राजनीतिक दौरे तो बीजेपी से हट कर कांग्रेस और एनसीपी के साथ सरकार बना लेने के बाद भी जारी रहा है - अपनी गठबंधन सरकार के 100 दिन पूरे होने पर भी उद्धव ठाकरे ने अयोध्या पहुंच कर दर्शन पूजन किया था.
जैसे जैसे यूपी चुनाव (UP Election 2022) की तारीख नजदीक आती नजर रही है, लगता तो ऐसा है कि राजनीतिक दलों में अयोध्या जाकर हिंदू वोट बैंक से जुड़ने की होड़ सी मचती जा रही है - और चुनाव आते आते तो लगता है अयोध्या ही उत्तर प्रदेश की राजनीतिक राजधानी (Political Capital) का रूप ले चुका होगा.
अयोध्या की तरफ आकर्षित होती राजनीति
अयोध्या जिले में फैजाबाद रेलवे स्टेशन का भी नाम भी अब बदल दिया गया है - अयोध्या कैंट. फिर भी जब असदुद्दीन ओवैसी सितंबर, 2021 में अयोध्या के रूदौली विधानसभा क्षेत्र में रैली करने गये तो होर्डिंग पर फैजाबाद ही लिखा गया था. विवाद तो होना ही था, लेकिन ओवैसी भी तो यही चाहते थे.
असल में जैसे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राम मंदिर के एजेंडे के साथ अयोध्या का दौरा करते हैं, ठीक वैसे ही असदुद्दीन ओवैसी बाबरी मस्जिद की याद दिलाने की कोशिश कर रहे हैं - साफ तौर पर एक का लक्ष्य हिंदू वोट हासिल करना है और दूसरे की नजर मुस्लिम वोट बैंक पर है.
बिहार चुनाव में पांच विधानसभा सीटें जीत लेने के बाद से ही असदुद्दीन ओवैसी को लगा था कि वो पूरे देश में मुस्लिम वोट बैंक की राजनीति करने की तैयारी करने लगे थे. पश्चिम बंगाल में झटका खाने के बावजूद ओवैसी यूपी के मुस्लिम वोट को लेकर उम्मीद नहीं छोड़ रहे हैं, जबकि बाबरी मस्जिद को लेकर कोर्ट में पार्टी रहे इकबाल अंसारी तक ओवैसी के अयोध्या दौरे से नाराज दिखे. इकबाल अंसारी ने कहा कि ओवैसी की अयोध्या में कोई जरूरत नहीं है - और हिंदुस्तान के मुसलमानों को भी ओवैसी से सावधान रहना चाहिये.
अयोध्या में अब सिर्फ योगी आदित्यनाथ की पार्टी बीजेपी और असदुद्दीन ओवैसी के AIMIM की ही दिलचस्पी नहीं रह गयी है, बल्कि बाकी बचे ज्यादातर प्रमुख पार्टियों में भी अयोध्या के जरिये हिंदू वोटों से सीधे कनेक्ट होने की होड़ सी मची हुई है - अगर अभी तक कोई प्रत्यक्ष तौर पर अयोध्या कोई नजर नहीं आया है तो वो हैं कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा.
ऐसा भी नहीं है कि प्रियंका गांधी वाड्रा अयोध्या से कोई दूरी बनाये हुए हैं. 2019 के आम चुनाव से पहले प्रियंका गांधी कांग्रेस उम्मीदवार के लिए वोट मांगने अयोध्या गयी थीं, लेकिन वो हनुमान गढ़ी से आगे नहीं गयीं. उनसे दो साल पहले 2017 में राहुल गांधी ने भी हनुमान गढ़ी जाकर दर्शन किया था. कांग्रेस का इतिहास देखें तो 1989 में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी तो अयोध्या से अपना चुनाव कैंपेन भी शुरू कर चुके हैं, लेकिन मिशन नाकाम रहा.
अभी अगस्त में प्रियंका गांधी के भी अयोध्या से ही इलेक्शन कैंपेन शुरू करने की खबरे आ रही थीं, लेकिन ऐसा लगता है कि लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद कांग्रेस न अपनी रणनीति बदल डाली - और फिर चुनावी रैली के लिए अयोध्या की जगह बनारस का चयन किया गया - जो बीजेपी के एजेंडे अयोध्या-काशी-मथुरा का ही हिस्सा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी.
अयोध्या को लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा की खास तत्परता 5 अगस्त को राम मंदिर के लिए भूमि पूजन के वक्त भी चर्चित रही. जब कांग्रेस महासचिव ने ये कह कर राजनीतिक हिस्सेदारी जतायी कि भगवान राम सभी के हैं.
अपने अयोध्या दौरे में यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की भी लाइन प्रियंका गांधी वाड्रा जैसी ही देखी गयी थी, 'भगवान राम उतने ही हमारे हैं जितने किसी और के हैं.' हालांकि, समाजवादी पार्टी की तरफ से पहली बार ही ऐसे बयान पर जोर देखने को मिला, वरना - मुलायम सिंह यादव तो हर चुनाव से पहले यही याद दिलाते रहे कि कारसेवकों पर गोलियां बतौर मुख्यमंत्री उनके आदेश पर ही चलायी गयी थीं.
बेशक अयोध्या मसला ही बीजेपी के केंद्र की सत्ता तक पहुंच सुनिश्चित करने वाला माना जाता हो, लेकिन ये सत्ता की वैतरणी पार कराने की गारंटी भी नहीं है. 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिराये जाने के बाद माना तो यही जा रहा था कि यूपी में बीजेपी की ही सरकार बनेगी, लेकिन मुलायम सिंह यादव ने बीएसपी के संस्थापक कांशीराम से हाथ मिला लिया और बीजेपी बस देखती रह गयी.
बहुजन समाज पार्टी का ब्राह्मण सम्मेलन तो अयोध्या से शुरू हुआ पूरे राज्य में जगह जगह आयोजित होने के बाद लखनऊ पहुंच कर खत्म हुआ. मायावती अपने दलित वोट के साथ 2007 की तरह फिर से ब्राह्मण वोट हासिल करने में जुटी हुई हैं - लेकिन उसे अयोध्या से शुरू कर हिंदुत्व की राजनीति में भी हाथ आजमाने की कोशिश की है - हो सकता है मायावती और सतीशचंद्र मिश्र को अयोध्या में भी लखनऊ नजर आने लगा हो.
राजनीति की दिशा और दशा दोनों बदल रही है
2020 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे आये तो अरविंद केजरीवाल ने हनुमान जी को थैंकयू बोला था. तब तो ऐसा लगा कि चुनावों के दौरान हनुमान चालीसा पढ़ने और हनुमान मंदिर जाकर दर्शन करने को लेकर मनोज तिवारी के शोर मचाये जाने के जबाव में हनुमान जी का नाम लेकर बीजेपी को चिढ़ाने की कोशिश कर रहे हों - लेकिन अक्षरधाम मंदिर में लाइव दिवाली मना कर तो आप नेता ने साफ कर दिया था कि उनकी राजनीति कौन सी राह पकड़ने की कोशिश कर रही है.
अरविंद केजरीवाल ने जिस तरीके से दिल्ली में दिवाली मनाये जाने का प्रचार प्रसार किया, ऐसा लगा जैसे वो यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के अयोध्या में दिवाली आयोजन को चैलेंज कर रहे हों. बाद में मनीष सिसोदिया ने संजय सिंह के साथ अयोध्या का दौरा कर अरविंद केजरीवाल का इरादा पूरी तरह साफ कर दिया - और अब तो वो केजरीवाल खुद भी अयोध्या घूम चुके - और आगे का एजेंडा भी साफ कर दिया है.
देखा जाये तो अरविंद केजरीवाल भी उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं जिस पर चलने की कोशिश मायावती हों या अखिलेश यादव या फिर प्रियंका गांधी भी देर सबेर करने वाली हैं. जिस तरीके से त्रिपुंड लगाये प्रियंका गांधी रैली के मंच पर चढ़ने से पहले मंदिर गयीं और हाथों में तुलसी की माला अपने भाषण के दौरान लहराती रहीं मैसेज पूरी तरह साफ था. भक्ति भाव में डूबीं प्रियंका गांधी को 2019 के आम चुनाव से पहले भी देखा गया था, लेकिन नयी अदा नये इरादे का स्पष्ट इजहार कर रही थी - कुछ ऐसे कि जल्द ही कांग्रेस जनेऊधारी शिवभक्त राहुल गांधी के सॉफ्ट हिंदुत्व के स्टैंड से काफी आगे नजर आने वाली है.
अब तो लगता है सेक्युलर पॉलिटिक्स से सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ शिफ्ट हो रही राजनीति रुकने वाली नहीं है, बल्कि जल्द ही वो कट्टर हिंदुत्व का रास्ता भी अख्तियार कर सकती है - और अभी जो होड़ राजनीतिक दलों में दिखायी पड़ रही है, दरअसल, दूरगामी नतीजों को लेकर फीडबैक लेने की कोशिश हो सकती है.
यूपी ही नहीं, राष्ट्रीय राजनीति को लेकर भी अब राजनीतिक दलों को लगने लगा है कि वोट भी अब तभी मिलेगा जब कोई भी पार्टी खुद को बीजेपी के विकल्प के तौर पर प्रोजेक्ट कर करने की स्थिति में खुद को खड़ा कर सकेगी. बाकियों का तो अभी नहीं लगता लेकिन अरविंद केजरीवाल के दिमाग में तो कुछ वैसा ही चल रहा है क्योंकि ये एक ऐसा फैक्टर है जिस पर केजरीवाल ममता को भी बीट कर सकते हैं - हिंदीभाषी होने के अलावा.
मौजूदा राजनीति दौर को एनजॉय कर रहे लोगों का मूड बदलना अब किसी भी राजनीतिक दल के लिए मुश्किल लगने लगा है. नीतियों से बहुत फर्क नही पड़ने वाला, बीजेपी ने जो पॉलिटिकल लाइन आगे बढ़ा दी है, बहुमत को वो काफी हद तक सूट कर रहा है.
अब तो ऐसा लगता है कि बीजेपी से मन भर जाने के बाद भी लोग उसी राजनीतिक दल को तरजीह देंगे जो हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने का भरोसा दिलाता हो. बीजेपी ने खुद के स्वर्णिम काल के लिए ये ताना बाना बुना जरूर था - और एक दौर ऐसा आया जब बीजेपी को छोड़ कर बाकी सारे राजनीतिक दल मौजूदा समीकरणों में मिसफिट हो गये, लेकिन अब बीजेपी ने ऐसा राजनीतिक माहौल ही बना दिया है कि बाकी सारे दलों के लिए भी हिंदुत्व को फॉलो करना मजबूरी बन जाये - क्योंकि ओवैसी का रास्ता और कोई तो अख्तियार भी नहीं कर सकता.
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