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Updated: 16 अगस्त, 2018 06:32 PM
सुधांशु मित्तल
सुधांशु मित्तल
  @sudhanshu.mittal.14
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ये बहुत कम लोग जानते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी को उनके करीबी ‘बापजी’ कहकर बुलाते थे. ‘बापजी’ बच्चों में बच्चे थे और गंभीर विषयों पर सटीक राय रखनेवाले विचारक. ये मेरा सौभाग्य था कि ‘बापजी’ के अदभुत व्यक्तित्व को मुझे करीब से जानने का मौका मिला. मेरी उनसे इतनी आत्मीयता थी कि उनके सामने मैं कुछ भी बोल देता था, कभी समझदारी की बात करता था तो कभी नासमझी की. लेकिन हर बात का वो गंभीरता से जवाब देते थे. मैं ही क्या उन्होंने कभी भी किसी की भी नासमझ बातों पर खिल्ली नहीं उड़ाई और ना ही कभी ये कहकर हतोत्साहित किया कि क्या बचपने की बात है.

atal bihari vajpayeeअटल बिहारी वाजपेयी का शुमार आज भी विश्व के सबसे प्रभावशाली नेताओं में होता है

1991 के कार्य खंड में बहुत उतार चढ़ाव आये

1991 में आडवाणी जी नेता प्रतिपक्ष थे, मुरली मनोहर जोशी जी पार्टी के अध्यक्ष थे और ‘बापजी’ महज़ सांसद. पार्टी में अहमियत थी लेकिन शख्सियत का उतना महत्व ना था. वो दौर राम जन्म भूमि के आंदोलन का था. उस आंदोलन के विषय में भी अटल जी के विचारों में कुछ भिन्नताएं थीं, वो हमेशा अपने को देश हित में समर्पित करने का प्रयास करते थे.

लेकिन जो सबसे बड़ी बात थी उनका संगठन के प्रति समर्पण. उसके अनुसाशन को मान्य करना. व्यक्तिगत मत से महत्वपूर्ण संगठन का फैसला. ये शायद बापजी ने हम सबको सिखाया. ये कार्यखंड था जहाँ पार्टी में कहीं ‘बापजी’ अलग-थलग महसूस कर रहे थे. 1995 के बीजेपी अधिवेशन के दौरान आडवाणी जी ने घोषणा कर दी कि अटलजी हमारे प्रधानमंत्री होंगे. आडवाणीजी उनके बगल में अपनी कुर्सी पर लौटे तो अटलजी बोले: ‘ये क्या कर दिया? मुझसे तो पूछ लेते.’

प्रधानमंत्री की दौड़ में कहीं ना कहीं और दिग्गजों का नाम भी था लेकिन सबको समझ आ गया था कि अब पार्टी में बापजी की फिर से तूती बोलेगी. सत्ता चाहिए तो संगठन भी उनके हिसाब से ही चलेगा. और और इसी दौरान, अटलजी और प्रमोदजी (महाजन) बेहद नज़दीक आ गए और वही समय था जब DUSU में मेरी सक्रियता के चलते मुझे भी बापजी के करीब आने का मौका मिला. अटलजी की दत्तक पुत्री नमिता और दामाद रंजन भट्टाचार्य से मित्रता हुई तो उन्हीं की तरह हम सभी उन्हें बापजी कहने लगे. हर छोटी बड़ी चीज़ में हम परिवार के सदस्य बन गए थे.

कई बार वो सवालों के जवाब कविता में देते और सामने वाला व्यक्ति विवाद भूलकर उसका सार समझकर चुप हो जाता. वे इशारों ही इशारों में बहुत कुछ कह जाते. कोई ताकतवर है, ज़ोर से बोल रहा है या फिर कोई विनम्र, विनीत हो, अटल जी कहा-अनकहा बहुत जल्दी समझ जाते और धीरे से दूध का दूध और पानी का पानी कर देते. इसी से जुड़ी उनकी लिखी कविता की कुछ पंक्तियाँ स्वत: ही याद आ रही हैं:

'छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता, टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता'

हरेक को पद नहीं, उसके विचार की ताकत देखकर फ़ैसला करना अटल जी के स्वभाव में था. कहा जाता है कि प्रधानमंत्री का विशेष अधिकार होता है कि उनकी कैबिनेट में कौन रहेगा, कौन नहीं. बापजी की कार्यशैली ऐसी थी कि जब भी मंत्री मंडल का विस्तार होता था उसका सीधा प्रसारण टीवी पर होता. कौन चर्चा में शामिल, किसको चुना गया. इन सब में एक पारदर्शिता थी जो शायद अब मुश्किल है.

इसके बावजूद वे अपने मंत्रिमंडल के लोगों को शामिल करने से पहले पार्टी और संगठन में विचार-विमर्श करते. सबकी सुनते. कई बार फैसले बदले जाते और यही अटल बिहारी वाजपेयी कि महानता थी कि वो लोकतान्त्रिक मूल्यों का सिर्फ भाषण नहीं देते थे, उन आदर्शों पर चलकर संगठन और सरकार को और मज़बूत बनाते थे. और शायद यही कारण था कि गठबंधन की सरकार का नेतृत्व उन्होंने इतनी कुशलता से किया.

कई दशकों के राजनीतिक जीवन में अधिकतर समय अटल जी विपक्ष में रहे, लेकिन उनकी लड़ाई सतत जारी रही. उनके कड़े फ़ैसलों और लोहे से मज़बूत इरादों के पीछे थीं उनका ‘सच की जीत’ में अटल विश्वास. अपनी कविताओं के बारे में उन्होंने एक बार कहा था- ‘मेरी कविताएं मतलब युद्ध की घोषणा करने जैसी है, जिसमें हारने का कोई डर न हो. मेरी कविताओं में सैनिक को हार का डर नहीं बल्कि जीत की चाह होगी. मेरी कविताओं में डर की आवाज नहीं बल्कि जीत की गूंज होगी.’

आज दिल टूटा है कि हमारे बापजी अब नहीं रहे. बापजी मेरे लिए मेरी राजनीति‍ के चाणक्य रहे और राजनीती का पढ़ाया पाठ आज भी मेरे लिए किसी वरदान से कम नहीं. आर्यभूमि के सच्चे सपूत, धरती पुत्र, धुरंधर वक्ता और अलौकिक व्यक्तित्व के धनी, सबके लिए अटल जी और मेरे गुरु, मेरे बापजी को कोटि-कोटि नमन.

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सुधांशु मित्तल सुधांशु मित्तल @sudhanshu.mittal.14

लेखक बीजेपी के वरिष्ठ नेता हैं.

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