यूपी में पत्रकारों की दुर्गति के पहले जिम्मेदार पत्रकार खुद!
प्रशांत कनौजिया मामले से ऐसा लग रहा है मानो यूपी में पत्रकारों पर संकट आ गया है. अब जब लोकसभा में पेश हुई ncrb की रिपोर्ट देखें तो मिलता है कि ये सिलसिला 2013 से है जहां पहले तो अखिलेश यदाव ने पत्रकारों की आदत खराब की और शायद तब पत्रकार भी जैसे इसके लिए तैयार बैठे थे.
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उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर दिल्ली से किया गया एक पत्रकार का आपत्तिजनक ट्वीट, नॉएडा / दिल्ली से पत्रकारों की गिरफ़्तारी. शामली में जीआरपी के लोगों द्वारा की गई मारपीट. उत्तर प्रदेश में पत्रकारों और उनकी स्थिति को लेकर चौतरफा चर्चा है. पत्रकारों से जुड़ी खबरें थमने का नाम नहीं ले रही. पत्रकारों को लेकर चल रही ये बहस कितनी तेज है इसे हम NCRB की उस रिपोर्ट से भी समझ सकते हैं जो लोकसभा में पेश हुई है. रिपोर्ट में पत्रकारों के साथ हुई हिंसा और मारपीट का जिक्र है और बताया गया है कि अब तक देश में पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले उत्तर प्रदेश में हुए है. 2013 से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर हुए हमले के सन्दर्भ में 67 केस दर्ज किया गए हैं. बात अन्य राज्यों की हो तो 50 मामलों के साथ मध्य प्रदेश दूसरे नंबर पर है /जबकि 22 मामलों के मद्देनजर बिहार नंबर 3 पर है. रिपोर्ट में यूपी को पत्रकारों के लिहाज से सबसे असुरक्षित कहा गया है और ये भी बताया गया है कि सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही 2013 से लेकर 2019 तक, 7 पत्रकार ऐसे थे जिनकी हत्या हो चुकी है.
पत्रकारों पर हमलों के सन्दर्भ में जो रिपोर्ट लोकसभा में पेश हुई है उसपर खुद पत्रकारों को विचार करना होगा
बात यूपी की चल रही है. स्वतंत्र पत्रकार प्रशांत कनौजिया की गिरफ्तारी और शामली में एक निजी चैनल के पत्रकार के साथ हुई मारपीट हमारे सामने है. दिमाग में ये बात आ सकती है कि, शायद योगी आदित्यनाथ और उनका निजाम ही वो कारण हो जो पत्रकारों के रहने के लिहाज से उत्तर प्रदेश को असुरक्षित बना रहा है. तो ऐसा बिल्कुल नहीं है.
2013 से लेकर 2017 तक उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार थी और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे. दिलचस्प बात ये है कि उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर सबसे ज्यादा हमले अखिलेश यादव की सरकार में हुए. एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों पर हमले के 2014 में 63, 2015 में 1 और 2016 में 3 मामले दर्ज हैं और 2014 में 4 लोग, 2015 में शून्य और 2016 में 3 लोग गिरफ्तार किए गए.
2017 के बाद से उत्तर प्रदेश का निजाम योगी आदित्यनाथ के हाथ में है. 2017 में ही आई द इंडियन फ्रीडम रिपोर्ट का अवलोकन करने पर मिलता है कि पूरे देश में 2017 पत्रकारों पर 46 हमले हुए. इस रिपोर्ट के अनुसार 2017 में पत्रकारों पर जितने भी हमले हुए, उनमें सबसे ज्यादा 13 हमले पुलिसवालों ने किए हैं. इसके बाद, 10 हमले नेता और राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ताओं और तीसरे नंबर पर 6 हमले अज्ञात अपराधियों ने किए.
#WATCH Shamli: GRP personnel thrash a journalist who was covering the goods train derailment near Dhimanpura tonight. He says, "They were in plain clothes. One hit my camera&it fell down. When I picked it up they hit&abused me. I was locked up, stripped&they urinated in my mouth" pic.twitter.com/nS4hiyFF1G
— ANI UP (@ANINewsUP) June 11, 2019
क्योंकि अखिलेश के कार्यकाल में सबसे ज्यादा हमले पत्रकारों पर हुए हैं. तो हमें कुछ बातें समझ लेनी चाहिए. यदि अखिलेश यदाव के कार्यकाल का अवलोकन किया जाए तो मिलता है कि तब यूपी विशेषकर राजधानी लखनऊ में पत्रकारों का एक नेक्सस चलता था जिसका काम पत्रकारिता के अलावा हर वो काम करना था जिसकी इजाजत कानून नहीं देता था और जिसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ सत्ता के बल पर पैसे कमाना था.
चाहे सरकारी विज्ञापन रहे हों या फिर सरकारी आवास, सरकार द्वारा पत्रकारों को हर वो सुविधा दी जा रही थी जो संविधान के चौथे स्तम्भ की कार्यप्रणाली को सवालों के घेरे में लाती है. तब ये अपने आपमें ही शर्मनाक था कि पत्रकारिता और प्रशासन दोनों एक दूसरे के साथ गठजोड़ करके, एक दूसरे से अपने अपने स्वार्थ पूरे कर रहे थे और एक दूसरे का फायदा उठा रहे थे. पत्रकार मुख्यमंत्री के पक्ष में बने रहें इसके लिए अखिलेश यादव की तरफ से यश भारतीय जैसे पुरस्कारों की घोषणा तक की गई.
ट्विटर पर यूपी सीएम के खिलाफ अभद्र भाषा का इस्तेमाल कर जेल जाने वाले पत्रकार प्रशांत कनौजिया
इस पूरी प्रक्रिया को देखें तो मिलता है कि सरकार के नजदीक आने के लिए पत्रकारों ने भी साम दाम दंड भेद सब एक किया और ऐसा बहुत कुछ किया जिसने न सिर्फ पत्रकारिता को शर्मसार किया बल्कि उस कहावत को भी चरितार्थ किया जिसमें राजा के चौपट होने पर नगर के अंधेर नगरी बनने की बात की गई है. कह सकते हैं कि तब से लेकर आज तक पत्रकारों पर जितने भी हमले हुए उसकी एक बड़ी वजह सरकार के करीब रहते हुए सभी बुरे काम करना था.
पत्रकारों पर हुए हमलों के सन्दर्भ में NCRB की रिपोर्ट हमारे सामने हैं. स्वयं अखिलेश यादव की नजर में पत्रकारों की क्या इज्जत थी इसे हम उनके द्वारा 22 जनवरी 2019 को कही उस बात से भी समझ सकते हैं जिसमें उन्होंने अपने चुटीले अंदाज में पत्रकारों के ईमान को सरेआम नीलाम कर दिया. तब पार्टी मुख्यालय में आयोजित पत्रकार वार्ता में अखिलेश यदाव ने कहा था कि 'पत्रकार अगर समाजवादी पार्टी के लिए अच्छी स्टोरी करेंगे, तो वह सत्ता में वापस आने पर उन्हें 'यश भारती' से सम्मानित करेंगे, साथ ही 50 हजार रुपये भी मिलेंगे.
इस तरह यदि सारी बातों पर गौर किया जाए तो मिलता है कि आज जो पत्रकारों का हाल है उसके जिम्मेदार खुद पत्रकार हैं. यदि इनके पीटे जाने या इनकी हत्याओं पर विचार हो तो ज्यादातर ऐसे मामले हैं जिनमें पत्रकारों ने अपने कर्मों को भोगा है. जिस समय अखिलेश यादव पत्रकारों की आदतें बिगाड़ रहे थे यदि उस वक़्त खुद पत्रकारों ने उनके प्रलोभनों का बॉयकॉट किया होता तो एक पत्रकार खुद अपनी हद में रहता और हिंसा की वारदातों में कमी देखने को मिलती.
बात सीधी और साफ है. एक पत्रकार का काम खबर बताना और सच को सामने लाना है. ऐसे में अगर पत्रकार ये न करते हुए दूसरों की देखा देखी सत्ता के आगे झुकेगा और सरकार की चाटुकारिता करते हुए सही को गलत करेगा तो फिर उसका यही हश्र होगा और इस तरह की खबरें हमारे सामने आती रहेंगी.
बहरहाल, पत्रकारों पर हुए हमलों पर हमें वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की बातों को भी समझना होगा. वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स-2019 के अनुसार भारत में पत्रकारों की स्वतंत्रता और उनकी सुरक्षा दोनों ही खतरे में है. भले ही प्रेस के लिहाज से मेक्सिको को सबसे खतरनाक देश कहा जा रहा हो मगर वहां पत्रकार कम से कम सरकार की चाटुकारिता या सरकार द्वारा दी गई स्कीमों के चलते नहीं मारे जा रहे हैं उनके कारण अलग हैं.
हम बात भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में कर रहे हैं जहां सिर्फ लाइम लाइट पाने के लिए एक पत्रकार द्वारा मुख्यमंत्री को लेकर आपत्तिजनक ट्वीट किया जाता है और फिर जब मामले को लेकर गिरफ्तारी होती है तो कहा जाता है कि यूपी में शासन के जोर से पत्रकारिता दबाई जा रही है.
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