अयोध्या विवाद का हल 300 साल पहले ही निकल जाता, अगर...
बाबरी मस्जिद-अयोध्या विवाद हल हो जाता अगर मुगल सम्राज्य का काला अध्याय नहीं आता. यही वो दौर था जब धर्मभीरू हिंदूओं के इशारे पर चल रही थी मुगल सल्तनत. फिर अंग्रेजों के राज में मसला सुलझने के बजाए और उलझा. फिर राज से निकलकर यह मुद्दा भीड़ का विषय बन गया.
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अयोध्या के राम मंदिर बाबरी मस्जिद विवाद का मामला आज से करीब 300 साल पहले ही सुलझ गया होता. उस वक्त भी इसे सुलझाने की कोशिश की गई थी. तब पहली बार मुगल काल में मुगल राजपूत राजा पर निर्भर हुए थे और एक हिंदू बनिया के हाथ में मुगल शासन की चाबी थी. उस वक्त हिंदुस्तान में हिंदुओं का सबसे बड़ा राजा जयपुर रियासत के सवाई जयसिंह द्वितीय थे और मुगल बादशाह फार्रूखसियार दिल्ली की सल्तनत पर काबिज था. राजशाही में अब की तरह जनता की मांग या सोच राज्य का हिस्सा नही होती थी बल्कि राजा ही फैसला कर सकते थे. राजा ही सुप्रीम कोर्ट था. मगर ठीक उसी समय मुगल काल अपने शासन के सबसे काले अध्याय में प्रवेश कर गया और अयोध्या राम मंदिर का विवाद आजाद हिंदुस्तान को विरासत में मिला.
बाबरी मस्जिद राम मंदिर विवाद के सुलहनामे को लेकर पहली कोशिश आज से करीब 300 साल पहले 1717 में भी हुई थी. राम मंदिर मामले की सुनवाई के बीच सुप्रीम कोर्ट में बहुत सारे दस्तावेज रखे गए मगर कई दस्तावेज जयपुर के पूर्व राजघराने के शाही महल सिटी पैलेस के कपड़ द्वार में आज भी सुरक्षित रखे हुए हैं जो यह बताने के लिए काफी है कि औरंगजेब के मरने के बाद जब मुगलों का पराभाव हो रहा था और मुगल अपनी सत्ता बचाने के लिए राजपूत राजाओं पर निर्भर होने लगे थे. तब मुगल भी अयोध्या में तोड़े गए राम मंदिर विवाद का हल निकालने के लिए तैयार हो गए थे.
जयपुर के पूर्व राजघराने के शाही महल के कपड़ द्वार में आज भी सुरक्षित रखे हुए हैं कई दस्तावेज
औरंगजेब के शासन के दौरान मुगलों के दरबार में राजपूत राजाओं की हैसियत महज एक दरबारी की रह गई थी. औरंगजेब ने हिंदू राजाओं को बेइज्जत करने के लिए दूरदराज के प्रांतों को संभालने के लिए उऩको अपनी रियासत के बाहर भेज दिया था. जयपुर रियासत के महाराजा बिशन सिंह को अफगानिस्तान संभालने के लिए भेज दिया जहां पर ठंड से उनकी मौत हो गई और महज 7 साल की उम्र में जयसिंह द्वितीय को जयपुर की गद्दी संभालनी पड़ी. 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद भी उसके बेटे बहादुर शाह प्रथम ने उसके हिंदू विरोधी नीतियों को जारी रखे हुए था. यह वह दौर था जब सत्ता की चाबी मुगलों के हाथ में नहीं बल्कि मुगलों के सलाहकार सैयद बंधुओं के हाथ में थी. कहा जाता है कि सय्यद बंधु पैगंबर साहब की बहन फातिमा के वंशज थे. औरंगजेब के मरने के बाद करीब 15 साल के शासनकाल तक दिल्ली के सल्तनत का असली सुल्तान सैयद बंधु ही थे. सैय्यद अब्दुल्ला हसन अली खान और सैय्यद अब्दुल्ला हुसैन अली खान दो भाई थे जो औरंगजेब के बाद ताश के पत्ते की तरह मुगल शासक को फेंटते थे.
जयपुर के राजा सवाई जयसिंह द्वितीय के साथ जिस तरह का व्यवहार औरंगजेब ने किया उसी तरह का व्यवहार उसके बेटे बहादुर शाह प्रथम ने भी करना शुरू कर दिया. जय सिंह पर दुश्वारियां इतनी पड़ीं थी कि वो बहादुरी के साथ-साथ बेहद चालाक और धार्मिक भी हो गए थे. उन्होंने दिल्ली की सत्ता की असली चाबी संभाल रहे सैयद बंधुओं से अपनी नजदीकी बढ़ाई और फिर मुगल शासक बहादुर शाह प्रथम का दिल जीता. उसके बाद जहांदार शाह जब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब तक जयसिंह की हैसियत दिल्ली की सल्तनत में मजबूत हो गई थी. मगर जयसिंह सबसे ज्यादा मजबूत हुए जब सैयद बंधुओं ने दिल्ली के मुगल शासक जहांदार शाह को कैद कर फार्रूखसियार को दिल्ली का तख्त सौंपा. मुगल शासक अकबर के दौर के बाद यह दौर पहली बार लौटा था जब जयपुर रियासत के राजा सवाई जयसिंह द्वितीय मुगल शासन में सबसे ज्यादा मजबूत थे. इतना ज्यादा मजबूत थे कि मुगलों की नाक में दम करने वाले मराठों को जीतने के लिए फार्रूखसियार ने इन्हें मालवा का सूबेदार बना दिया. दरअसल रतनचंद नाम का एक हिंदू बनिया सैय्यद बंधुओं के घर के पास रहता था. वो उनको पैसे दे-दे कर और पटाकर इतना खास हो गया था कि सैय्यदों ने उसे भी राजा रतनचंद की उपाधि दिलवा दी थी.
जयपुर के राजा सवाई जयसिंह द्वितीय
इस कड़ी ने जय सिंह को मुगल दरबार में मजबूत बना दिया था. मालवा का सूबेदार बनना किसी हिंदू राजा के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी. सवाई जयसिंह ने 1714 से लेकर 1717 तक मराठों के मालवा को मुगलों के अधीन शांति से रखा और मराठों को बाहर तक भगा दिया. जय सिंह जानते थे कि मुगलों को उनकी बेहद जरूरत है लिहाजा वह हर चीज की कीमत वसूलते थे. 1716 में मुगलों को जब जाटों से चुनौती मिलना शुरू हुई तो उन्होंने पैसे लेकर भरतपुर के जाट राजा चुरहट को हराकर थूण का किला मुगलों को सौंपा. आगरा से जाटों को खदेड़ा और मुगलों से पैसे लेकर वापस आगरा सौंपा था. जयपुर राजघराने के अंदर रखे दस्तावेजों के मुताबिक मालवा को जीतने के बाद 1717 में मुगल शासक फार्रूखसियार के शासन के दौरान जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय को अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जमीन दी थी. यानी 1716 में मुगलों को जाटों से बचाने और 1717 में मराठों से बचाने की कीमत जय सिंह ने मुगलों से अयोध्या में राम मंदिर के लिए जमीन के रूप में वसूली थी.
यह वह दौर था जब दक्षिण भारत को जीतने की मुगल सम्राट औरंगजेब की जिद ने मुगलों को उत्तर भारत में कमजोर कर दिया था. मराठों से बचने के लिए उन्हें राजपूत राजाओं की जरूरत थी जगह-जगह मुस्लिम सूबेदार उनके खिलाफ सिर उठाने लगे थे. तब मुगल शासक के कहने पर अवध के नवाब ने अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने के लिए जयसिंह पुरा बसाने के लिए जमीन का एक हिस्सा जय सिंह को देने के निर्देश दिए थे.
दस्तावेजों में लिखा है कि 1717 में मुगल शासक फार्रूखसियार ने जयपुर के राजा जयसिंह द्वितीय को अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए जमीन दी थी
जयपुर के सिटी पैलेस में एक चक-नामा रखा हुआ है. चक मतलब जमीन और नामा मतलब करार. 125.5×27 cm तक्षक नामा दो रजब 1129 एएच यानी 1 जून 1717 को लिखा गया है जिसमें 938 स्क्वायर यार्ड जमीन को महाराजा सवाई जयसिंह को अयोध्या में हवेली, कटला और पुरा बनाने के लिए दिया गया है. इसमें यह भी लिखा हुआ है कि इस जमीन को नायब नाजिम सुबह अवध कल्याण राय ने चौधरियों, कानूनगो और जमींदारों के साथ मिलकर नापा है. एक तरह से यह जमीन का टुकड़ा मुगल शासन के तरफ से इनाम में दिया गया था जहां पर मौजूद दस्तावेज के अनुसार 1717 से लेकर 1725 तक निर्माण होना था. सिटी पैलेस के म्यूजियम में राजा सवाई जयसिंह द्वितीय के एक गुमास्ता त्रिलोकचंद का लिखा पत्र भी यहां मौजूद है. 1723 में लिखे पत्र में त्रिलोकचंद ने जयपुर राजदरबार को लिखा है कि आपकी वजह से हमें अयोध्या के सरयू तट पर अब स्नान करने में कोई दिक्कत नहीं होती है, पहले मुस्लिम प्रशासक हमें यहां ऐसा करने से रोक देते.
राम मंदिर बनाने के समझौते के सबूत भी जयपुर राजघराने के कपड़ा म्यूजियम में रखे हुए हैं
मुगलों और राजपूत राजाओं के बीच अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाने के समझौते के और ढेर सारे सबूत भी जयपुर राजघराने के कपड़े म्यूजियम में रखे हुए हैं. इनमें यहां अयोध्या के राम मंदिर के 8 नक्शे भी रखे हुए है. पेपर पर पेंट कर 15x62.5, 286x59, 162x63.5, 159x159, 83.5x83.5 आकारों के नक्शे पेपर पर बना कर कपड़े पर चिपकाया हुआ है. इन नक्शों में अयोध्या और उसके आसपास की जमीनें भी दर्शाई गई हैं. इनमें पांच नक्शे तो बड़े हैं जिसमें और तीन छोटे नक्शें हैं जिनमें राम मंदिर की जगह दर्शाई गई और दिखाया गया है कि मंदिर कैसा बनेगा. दो नक्शे 101x62cm के आकार के हैं. सफेद रंग के कपड़े पर लाल, हरे और पीले रंग से राम मंदिर का नक्शा बना हुआ है. नक्शे में एक चबूतरा बना हुआ है जहां पर श्रधालु भगवान की पूजा कर रहे हैं. इसके अलावा तीन मंदिरों की तरह के छतरी नुमा जगह दर्शाई गई है जिसमें मसंद लगाया हुआ है. कई लोग इस चबूतरे को वही जगह मानते हैं जहां रामलला की पूजा हिंदू किया करते थे.
मगर अयोध्या के राम मंदिर का विवाद सुलझना शायद हिंदुस्तान की किस्मत में नहीं लिखा हुआ था. 1719 में सैयद बंधुओं को दिल्ली के मुगल शासक फार्रूखसियार पर गद्दारी का शक हुआ और सैयद बंधुओं ने उसे गिरफ्तार कर दिल्ली के लालकिला में मौत के घाट उतार दिया. सवाई जयसिंह इस मौके पर फारूकसियार के साथ थे क्योंकि उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक लाल किले में अपने अपनी आखिरी जीवन के दौरान फार्रूखसियार ने वहां के सैनिक से कहा था कि मैं तुम्हें आजाद होने के बाद सूबेदार बना दूंगा अगर तुम मेरे पास एक बार सवाई जयसिंह द्वितीय को को लेकर आओगे.
नक्शे में एक चबूतरा बना हुआ है जहां पर श्रधालु भगवान की पूजा कर रहे हैं
सवाई जयसिंह बेहद बुद्धिमान और मौके देखकर चौका मारने वाले राजाओं में से थे. वो नहीं आए पर सैय्यद बंधुओं से संबंध बिगड़ गए. इस बीच 1719 का साल मुगल शासन का सबसे काला अध्याय रहा है. 1719 में फारूक सियार की मौत के बाद रफीउद्दीन दरजात दिल्ली की गद्दी पर बैठा. 4 महीने के बाद उसकी भी मौत हो गई है फिर रफीउद्दीन दौला दिल्ली की सल्तनत पर बैठा मगर उसकी भी 5 महीने बाद मौत हो गई और तब मोहम्मद शाह दिल्ली के सल्तनत पर काबिज हुए. यह सारे मुगल शासक सय्यद बंधुओं ने ही बनाए थे मगर मोहम्मद शाह समझ गया था कि अगर दिल्ली की सल्तनत पर लंबे समय तक राज करना है तो सैयद बंधुओं को ठिकाने लगाना होगा और इस तरह से अगले 4 साल तक दिल्ली का मुगल शासन साजिशों का लाक्षागृह बना रहा. आखिरकार सैय्यद बंधुओं को 1722 में मार दिया गया. सैय्यद बंधुओं के खास रहे जय सिंह उनके मरने के बाद 1723 से 1727 तक मुहम्मद शाह की नजरों में अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा हासिल करने में लगे रहे, पर तब तक जय सिंह भी दिल्ली सल्तनत के झगड़े से ऊब गए थे.
इन सब घटनाओं का असर यह हुआ कि अयोध्या राम मंदिर का हल दिल्ली दरबार के लिए ठंडे बस्ते में चला गया और इस दौरान 1723 में राजा जयसिंह द्वितीय अपनी राजधानी आमेर से हटाकर नया शहर जयपुर बसाने में लग गए. इस तरह से भारत को विरासत में मिली एक बड़ी समस्या का हल निकलते-निकलते रह गया. इस बीच मराठों ने फिर सिर उठाया तो इसबार मुगल शासक मुहम्मद शाह ने जय सिंह को मालवा भेजा मगर इसबार मराठा मजबूत हो गए थे. जय सिंह ने मुगलों को मराठों से संधि करने के लइे कहा तो मुगल शासक ने जय सिंह को मालवा से हटाकर मुस्लिम को सूबेदार बना दिया जो मराठों से हार गया. इस तरह से जय सिंह और दिल्ली दरबार के बीच रिश्ते खराब हो गए. फिर 1739 में ईरानी हमलवार नादिर शाह दिल्ली को लू ले गया और 1743 में जय सिंह चल बसे.
मुस्लिमों के शासन के कमजोर पड़ने के साथ हीं अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा सामने आने लगा था
ये वक्त था जब अयोध्या में राम मंदिर की समस्या का हल निकल सकता था पर हालात ने हल निकलने नहीं दिया. हालांकि कुछ इतिहासकारों का कहना है कि सवाई जय सिंह ने अयोध्या में कुछ निर्माण करवाए थे. बाद में इसे आधार बनाकर परसियन में लिखा हुए तीन परनामे सिटी पैलेस के कपड़ द्वार में रखे हुए हैं. 25 सितंबर 1976 को अवध के नवाब ने भवानी सिंह को जमीन पर कबजे के परवाना (17.5x10.7) सौंपने का दस्तावेज भी यहां मौजूद है. दूसरा परवाना (17.5x10.7) 27 जून 1985 का अवध के नवाब वजीर असफ्फउदौला का जयपुर के राजा पृथ्वी सिंह के नाम भी लिखा हुआ जयपुर राजघराने के पास मौजूद है. 24 अप्रैल 1799 को सदाअल अली खान का लिखा हुआ एक तीसरा परनामा(24.5x10.7) है जिसमें लिखा हुआ है कि अयोध्या के जयसिंह पुरा में राम मंदिर के लिए जमीन सुरक्षित है. इस पर काजी सैय्यद नबी बख्श की सील लगी हुई है. जयसिंह पुरा की ये जमीन वंशागुनत आधार पर स्थायी संपत्ति के रूप में सवाई राजा जय सिंह को दी गई है.
जयपुर का राजपरिवार वंशावली के अलावा इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर मानता है कि हम राम के वंशज हैं. कुछ लोगों का ये भी मानना है कि अयोध्या के पास जयसिंह पुरा की नाम से जमीन आज भी मौजूद है मगर राम मंदिर के लिए आंदोलन कर रहे पक्ष इसे नहीं मानते हैं कि राम का जन्म जय सिंह के चिन्हित किए गए जय सिंह पुरा में हुआ था. मगर जिस तरह से राम मंदिर के आठ-आठ नक्शे बने और अयोध्या में राम मंदिर के लिए जमीनों के कागजात तैयार हुए उससे एक बात तो साफ है कि मुगल काल में भी हिंदुओं के दिल में अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा था.
एक बात तो साफ है कि मुस्लिमों के शासन के कमजोर पड़ने के साथ हीं अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा सामने आने लगा था. समझौते की कोशिशों के प्रमाण भी है मगर समझौता नहीं होने के पीछे जो पहले थी वो आज भी है. सुप्रीम कोर्ट जब मध्यस्थता के लिए कमेटी बना रहा था शायद ही किसी ने यकीन किया होगा कि यह कमेटी इस समस्या का हल निकाल पाएगी. समझौते और मध्यस्थता की भी कुछ आदर्श स्थितियां होती हैं. जब एक जीता हो और दूसरा हारा हो तो समझौता होता है. जब दो लोगों के हित हों तो समझौता होता है. जब दो पक्षों को लगता है कि हालात बदल नहीं रहे हैं और दोनों को नुकसान हो रहा है तो समझौता होता है. मगर यहां तीनों ही हालात नहीं हैं. राम मंदिर मामले में न कोई हारा है और न जीता है. यहां किसी का स्वार्थ नहीं जुड़ा है. जहां सबका स्वार्थ होता है वहां किसी का नहीं होता है. और तीसरा मामले में देरी हो रही है मगर किसी पक्ष को नुकसान नहीं हो रहा है. इसलिए राम मंदिर को लेकर मध्यस्थता की पहल नीति सुनवाई से पहले एक प्रस्तावना से ज्यादा कुछ नहीं था. मुगलों के आखिरी दौर में या फिर अंग्रेजों से लेकर आजाद हिंदुस्तान में इसी वजह से इस मसले को लेकर हिंदू-मुसलमानों में कोई समझौता नही हो पाया. इस समस्या का हल कानून भी नृजातिय पद्धति से ही निकालने में लगा है. नृजातिय जिसे अंग्रेजी में इथनेमेथेलोडोजी कहते हैं. इस पद्धति से लोक मान्यताओं और परंपराओं के सबूत से तय किए फैसले को समाज विज्ञान का बहुसंख्यक वर्ग अवैज्ञानिक मानता है. फैसला जो भी, बस डर यही है कि फैसले में वैज्ञानिक तार्किकता का आभाव रहा तो फिर समाज को कैसे संभालेंगे.
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