उपवास बनाम सत्याग्रह की सियासी जंग में किसानों के लिए भी कुछ है क्या?
पहले कांग्रेस ने भी शिवराज के उपवास को नौटंकी बताया लेकिन बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया के सत्याग्रह का कार्यक्रम तय हो गया. यानी किसी का भी गांधी के बगैर काम नहीं चल रहा. आखिर अमित शाह ने भी तो 'चतुर बनिया था वो' बहुत सोच समझ कर ही कहा है.
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शिवराज सिंह चौहान के उपवास पर बैठने से पहले मंच पर महात्मा गांधी की एक बड़ी सी तस्वीर रखी गयी. जिस वक्त सोशल मीडिया पर #चतुरबनिया ट्रेंड कर रहा था, शिवराज भी अपने ट्वीट में बापू की ही दुहाई दे रहे थे.
आंदोलन कर रहे किसानों ने भी उपवास के खिलाफ उपवास का ही हथियार हाथ में लिया और कहीं और नहीं बल्कि शिवराज की बगल में ही उसी दशहरा मैदान में खुद भी उपवास करने लगे.
पहले कांग्रेस ने भी शिवराज के उपवास को नौटंकी बताया लेकिन बाद में ज्योतिरादित्य सिंधिया के सत्याग्रह का कार्यक्रम तय हो गया. यानी किसी का भी गांधी के बगैर काम नहीं चल रहा. आखिर अमित शाह ने भी तो 'चतुर बनिया था वो' बहुत सोच समझ कर ही कहा है.
बीजेपी की मुश्किल, कांग्रेस को मौका
बात सिर्फ ये नहीं है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिए नेता गांधी का किस रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, सवाल ये है कि इंसाफ और हक की लड़ाई में किसानों के हिस्से में हासिल क्या हो रहा है?
आगे क्या होगा
जब तक सिंधिया का सत्याग्रह शुरू होगा, किसान भी सड़क पर उतर चुके होंगे. देश भर के 63 किसान संगठनों ने आगे के आंदोलन की रणनीति तैयार कर ली है. सबसे पहले वे 14 जून को काली पट्टी बांध कर अपनी मांगों के पूरे होने में हो रही देरी के खिलाफ विरोध प्रकट करेंगे. फिर 15 जून को धरना प्रदर्शन करेंगे और अगले दिन यानी 16 जून को देश भर में सड़क जाम का कार्यक्रम तय किया है.
बीजेपी की चुनौती
अगर योगी सरकार ने फैसले में तेजी नहीं दिखायी होती तो यूपी भी शायद अब तक किसान आंदोलन की चपेट में आ चुका होता. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावों के दौरान किसानों की कर्जमाफी का ऐलान किया था. सरकार बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने मोदी का वादा निभाया और 36 हजार करोड़ का कर्ज माफ कर दिया.
शिवसेना ने इसी बात पर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की, लेकिन केंद्र की ओर से पहले ही साफ कर दिया गया था कि ये राज्य सरकार के स्तर पर ही होगा. शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे यूपी की तरह महाराष्ट्र में भी किसानों के लिए कर्जमाफी की मांग कर रहे हैं. किसान आंदोलन की शुरुआत तो मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में करीब करीब साथ ही साथ हुई, लेकिन मंदसौर की फायरिंग में किसानों की मौत ने इसका रुख और तेवर बदल दिया.
अगर शिवराज सरकार ने फायरिंग की घटना को ठीक से हैंडल किया होता तो भी शायद मामला इतना आगे नहीं बढ़ता. पहले तो फायरिंग को लेकर सरकारी स्तर पर झूठ बोला गया. इसमें न तो अफसर पीछे थे न मंत्री. सभी एक साथ पुलिस फायरिंग की बात झुठलाने की कोशिश की, लेकिन तब तक हालात बेकाबू हो चुके थे.
जब मुख्यमंत्री मामले की गंभीरता समझ में आयी उन्होंने मुआवजे की घोषणा की और फिर रकम बढ़ाते गये - एक करोड़ तक. जांच भी बिठायी और खुद उपवास पर भी बैठ गये.
लेकिन अब किसान आंदोलन नियंत्रण से बाहर जा चुका है और इसके पीछे भी बीजेपी का ही 2014 का चुनावी घोषणा पत्र है. लोक सभा चुनाव के घोषणा पत्र में बीजेपी ने तीन वादे किये थे लेकिन तीन साल बाद भी उस पर अमल होने का कोई स्पष्ट संकेत अब तक नहीं मिला है.
बीजेपी के घोषणा पत्र में जिन तीन बातों का जिक्र था वे हैं - एक, स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करना, दो - कृषि उत्पादों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सुनिश्चित करना और तीन - किसानों को ऋण मुक्त करना. किसानों की भी फिलहाल मोटी मोटी मांगें यही हैं.
कांग्रेस शिवराज के उपवास को नौटंकी बता रही है. बीजेपी कांग्रेस पर आंदोलन भड़काने का इल्जाम लगा रही है. शिवराज को अगले साल कुर्सी बचानी है. कांग्रेस सत्ता की सीढ़ी तलाश रही है. किसानों का मुद्दा वैसे भी राहुल गांधी का फेवरेट शगल रहा है. सत्ता में होने और अब तक वादे पूरे न कर पाने के चलते बीजेपी को रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ रहा है. महाराष्ट्र में मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने किसानों की समस्याओं को लेकर एक पैनल भी बना दिया है. किसान आंदोलन की आग महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के बाद राजस्थान को भी चपेट में लेने को आतुर है.
किसानों नेताओं ने आंदोलन को प्रभावी बनाने के लिए दिल्ली को केंद्र बनाया हुआ है और रणनीति उसी हिसाब से बन रही है. आखिरी सवाल यही बचता है कि बीजेपी और कांग्रेस के लिए तो 2019 और उससे पहले के चुनाव हैं जिसकी तैयारी में वो लगे हुए हैं, किसानों को क्या हासिल होने वाला है?
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