CBI की लड़ाई 'शेषन' बनने और 'तोता' बनाये रखने में उलझ गयी है!
सीबीआई बनाम सीबीआई की जंग में केंद्र की मोदी सरकार भी लिपटी हुई है - और मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है. सरकार के खिलाफ आलोक वर्मा के ऐलान-ए-जंग की वजह क्या है? क्या वो शेषन बनने की राह पर चल पड़े हैं?
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CBI का अंदरूनी घमासान दफ्तर से निकल कर सुप्रीम कोर्ट - और बचा खुचा हिस्सा सड़क पर धमाल मचा रहा है. अब तो छुट्टी पर भेजे गये सीबीआई निदेशक की जासूसी का भी शक जताया जाने लगा है, जब से दिल्ली में उनके घर के बाहर चार संदिग्ध लोग पकड़े गये हैं. जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के मोदी सरकार के फैसले को आलोक वर्मा ने पहले ही चुनौती दे रखी है जिस पर 26 अक्टूबर को सुनवाई होने वाली है.
क्या वाकई ये सीबीआई के दो आला अफसरों के ईगो की लड़ाई है? या फिर विपक्ष जो इल्जाम लगा रहा है वैसा ही मामला है?
आखिर केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ आलोक वर्मा के इस तरीके से जंग के ऐलान की क्या वजह हो सकती है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि आलोक वर्मा सीबीआई को 'तोते' की छवि से उबारने के चक्कर में 'शेषन' बनने की कोशिश कर रहे हों!
खुफिया नजर के पीछे कौन और क्यों?
25 अक्टूबर को सुबह 07:30 बजे की बात है. छुट्टी पर भेजे गये सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा के घर के बाहर चार लोग संदिग्ध स्थिति में देखे गये. आलोक वर्मा के सुरक्षाकर्मियों को शक हुआ तो वे उनकी ओर बढ़े. सुरक्षाकर्मियों को देख कर वे लोग भागने लगे, लेकिन दबोच लिये गये. एक कार में दो लोग थे और उसके पीछे दूसरी कार में भी दो लोग थे. पकड़े जाने पर चारों ने खुद को आईबी का अधिकारी बताया और उनके पास आई कार्ड भी मिले. बाद में सुरक्षाकर्मियों ने चारों को दिल्ली पुलिस के हवाले कर दिया.
आलोक वर्मा पर खुफिया नजर क्यों?
जब इंडिया टुडे ने आईबी के सूत्रों से संपर्क किया तो मालूम हुआ कि समय समय पर राजधानी के अति सुरक्षित इलाकों में पेट्रोलिंग पर ऐसे अफसर तैनात किये जाते हैं, लेकिन इस मामले में अभी जांच जारी है. जांच के बाद ही कोई बात कही जा सकती है.
आलोक वर्मा की जासूसी के पीछे कौन?
इस घटना पर कांग्रेस प्रवक्त रणदीप सिंह सुरजेवाला ने ट्विटर पर लिखा - 'गोल-माल है भाई, सब गोल-माल है'. सुरजेवाला ने सवाल उठाते हुए ट्विटर पर कहा, 'रात के दो बजे सीबीआई डायरेक्टर को गैरकानूनी तरीके से हटा दिया गया. उनके घर के बाहर आईबी के चार लोग अब जासूसी करते पकड़े गये हैं."
CBI director is illegally removed at 2 AM. Today, 4 IB operatives caught snooping outside his house.
This is straight out of a page turning thriller where crime meets political intrigue....
गोल-माल है भाई, सब गोल-माल है!!!https://t.co/4BqSXwCJo7
— Randeep Singh Surjewala (@rssurjewala) October 25, 2018
केंद्र में सत्ताधारी एनडीए में बीजेपी की सहयोगी पार्टी जेडीयू ने इस घटना की तुलना चंद्रशेखर सरकार में राजीव गांधी की जासूसी से की है. जेडीयू प्रवक्ता केसी त्यागी इसे बड़ी घटना बताते हुए कहा, "पूरी रिपोर्ट आने तक मैं कुछ नहीं कहना चाहूंगा लेकिन अगर वह खबर सही है तो यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. हमें चंद्रशेखर का समय का याद आता है जब वह प्रधानमंत्री थे और किस तरह राजीव गांधी के घर के बाहर पकड़े गए दो खुफिया विभाग के हरियाणा पुलिस के कर्मचारियों की वजह से बड़ा राजनीतिक भूचाल पैदा हो गया था. जो भी घटनाक्रम पिछले सप्ताह हुआ है उसने खुफिया एजेंसियों की विश्वसनीयता को तार-तार कर दिया है."
अब सवाल ये उठता है कि आलोक वर्मा पर नजर क्यों रखी जा रही है? अगर वास्तव में आलोक वर्मा की जासूसी करायी जा रही है तो इसके पीछे किसका हाथ हो सकता है?
पिंजरा तोड़ अभियान सीबीआई दफ्तर में
'पिंजरे का तोता' - सीबीआई को ये तमगा सुप्रीम कोर्ट से ही मिला था. ऐसा लगता है अब तोता पिंजरा तोड़ने को आतुर है. उसे तोड़ने की कोशिश चल रही है. भले ही इसे दो बड़े अफसरों की वर्चस्व की लड़ाई से जोड़ कर देखा जा रहा हो, लेकिन ऐसा लगता है दिल्ली के गर्ल्स हॉस्टल से निकला ‘पिंजरा तोड़’ अभियान देश के कई शहरों में बवाल मचाने के बाद सीबीआई दफ्तर में भी पहुंच चुका है.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 4 अक्टूबर को बीजेपी नेता अरुण शौरी, यशवंत सिन्हा और सीनियर वकील प्रशांत भूषण ने आलोक वर्मा से मिल कर 132 पन्नों की एक रिपोर्ट उन्हें सौंपी थी. रिपोर्ट के मुताबिक जब आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजा गया उस वक्त उनके पास सात अहम मामलों की फाइलें थीं जिनमें राफेल डील भी शामिल है. सूत्रों के हवाले से तैयार रिपोर्ट बताती है कि राफेल सौदे के मामले की जांच के बारे में निर्णय लिया जाने वाला था.
सरकार ने पहले ही इस बारे में अपना पक्ष रख दिया है. सरकार की ओर से सीबीआई के भीतर मचे बवाल को दुर्भाग्यपूर्ण और विचित्र माना गया है. हालांकि, सरकार का कहना है कि वो इस मामले में कुछ नहीं कर सकती क्योंकि जांच का अधिकार CVC के पास है. सरकार की ओर से केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ने आलोक वर्मा के खिलाफ एक्शन भी सीवीसी की ही सलाह पर बताया था.
आलोक वर्मा के साथ साथ प्रशांत भूषण भी ने भी एक याचिका दायर की है जिस पर सुप्रीम कोर्ट सुनवाई के लिए तैयार हो गया है. प्रशांत भूषण ने सीबीआई अधिकारियों के खिलाफ SIT जांच की मांग की है और इसमें छुट्टी पर भेजे गये स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना का भी नाम शामिल है.
पता चला है कि सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका में आलोक वर्मा ने कुछ मामलों की जांच में सरकार की ओर से हस्तक्षेप की बात कही है. आलोक वर्मा ने अपने खिलाफ हुए एक्शन को भी चुनौती दी है. साथ ही कहा है कि सीबीआई को केंद्र सरकार के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से अलग करने की जरूरत है - क्योंकि ऐसा न करने से स्वतंत्र रूप से काम करने के तरीके पर असर पड़ता है. दरअसल, ये विभाग PMO के अंतर्गत आता है और इसी के जरिये सरकार की ओर से हस्तक्षेप के आरोप लग रहे हैं.
क्या आलोक वर्मा शेषन की राह चलना चाहते हैं?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार और आलोक वर्मा के रिश्तों को पीछे लौट कर देखें तो कोई कड़वाहट भी नहीं नजर आती. मोदी सरकार ने आलोक वर्मा को उस वक्त दिल्ली पुलिस का आयुक्त बनाया था जब जेएनयू विवाद को लेकर सवालों के घेरे में आ गयी थी.
सवाल ये है कि जिस आलोक वर्मा को मोदी सरकार ने ही दिल्ली पुलिस की जिम्मेदारी सौंपी और बाद में तय प्रक्रिया अपनाते हुए सीबीआई का निदेशक बनाया. ऐसे में उसी आलोक वर्मा से इस कदर क्यों ठन गयी? ऐसी नौबत कैसे आ गयी कि आलोक वर्मा को सीवीसी की सलाह से छुट्टी पर भेजा गया और वो फिर मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया?
बीबीसी से बातचीत में प्रशांत भूषण का कहना है कि मोदी सरकार उनकी और आलोक वर्मा की मुलाकात से खासी खफा है. वो कहते हैं, "हो हल्ला मचाया गया कि आलोक वर्मा ने हमसे मुलाकात क्यों की? हमारी शिकायतें क्यों सुनीं? सरकार इस मुद्दे पर किसी तरह की जांच नहीं चाहती है. इसी वजह से उन्होंने ये सोचा कि आलोक वर्मा को हटाने से दोनों दिक्कतें दूर हो जाएंगी. राफेल पर जांच भी नहीं होगी और राकेश अस्थाना के खिलाफ भी जांच रुक जाएगी."
व्यवस्था है कि सीबीआई निदेशक जांच करना चाहे तो उसे किसी की अनुमति की जरूरत नहीं होती. अब सवाल ये उठता है कि क्या आलोक वर्मा वाकई राफेल डील की जांच में दिलचस्पी ले रहे थेजैसा कि प्रशांत भूषण का दावा है? अगर ऐसा है तो मोदी सरकार की नाराजगी तो स्वाभाविक ही है. जिस राफेल डील को लेकर विपक्ष रोज नये नये तरीके से हमले कर रहा है उसकी जांच सीबीआई करने लगे, फिर तो ये होना ही था.
90 के दशक में दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में शेषन नाम का सिक्का चलता था, पूरा नाम है - टीएन शेषन.
उसी दौर में एक बार शेषन से पूछा गया, "आप हर समय कोड़े का इस्तेमाल क्यों करना चाहते हैं?"
स्वभाव से बेहद सख्त टीएन शेषन ने बड़ी ही संजीदगी से जवाब दिया, "मैं वही कर रहा हूं जो कानून मुझसे करवाना चाहता है. उससे न कम न ज्यादा. अगर आपको कानून नहीं पसंद तो उसे बदल दीजिए... लेकिन जब तक कानून है मैं उसे टूटने नहीं दूंगा.''
करीब ढाई दशक बाद सीबीआई में भी तकरीबन चुनाव आयोग जैसी ही बयार बहती नजर आ रही है.
क्या आलोक वर्मा भी टीएन शेषन की राह पर चलने को आतुर हैं? क्या आलोक वर्मा पिंजरे से तोते की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हैं - और सरकार को ये कतई मंजूर नहीं है?
अंतत:, सीबीआई डायरेक्टर बनने से पहले आलोक वर्मा कुछ समय तिहाड़ जेल के डीजी भी रहे. 2014-15 के उनके छोटे से कार्यकाल में उन पर कई तरह के आरोप लगे. चार महीने के भीतर जेल में 17 कैदियों की रहस्यमय मौत हुई. कैदियों को यातना देने और जेल से उगाही का रैकेट चलाने की बात बाहर आई. इतना ही नहीं एशिया की सबसे सुरक्षित जेल कही जाने वाली तिहाड़ जेल से दो कैदी सुरंग खोदकर भाग निकले. इन सब आरोपों के बावजूद उन्हें मोदी सरकार ने 2016 में दिल्ली पुलिस का प्रमुख बनाया. ये वो दौर था जब केजरीवाल सरकार और दिल्ली पुलिस में जमकर ठनी हुई थी. लेकिन, वर्मा ने कुछ 'जादू' किया और केजरीवाल खामोश हो गए. अब वही केजरीवाल आलोक वर्मा का मोदी के खिलाफ लड़ाई में समर्थन कर रहे हैं. नेताओं को साधने में आलोक वर्मा की कुशलता पार्टी लाइन के दायरे से बाहर रही है. देखते हैं, उनका ये कौशल आगे कितना काम आता है.
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