आजादी के नाम पर राष्ट्रवाद को कोसना फर्जी उदारवादियों का नया फैशन है
राष्ट्रवाद को इन दिनों जानबूझकर बुरे तरीके से दिखाया जा रहा है, जिससे कि भारत के गौरवशाली अतीत की जड़ों को कमजोर किया जा सके. भारतीय राष्ट्रवाद कभी भी 'विरोधी' नहीं था और ना ही होगा.
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'राष्ट्रवाद मानव जाति के सर्वोच्च आदर्शों, सत्यम, शिवम और सुंदरम से प्रेरित है.'
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस
भारतीय या भारत सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है, जो एक ही धरती पर लोगों के आकर बस जाने और उनके लिए संविधान बना देने के बाद देश बन गया है. बल्कि ये चार हजार से अधिक सालों तक की एक सतत सभ्यता है, जिसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं.
इतिहास में दर्ज मेसोपोटामिया, ईरानी जैसी अन्य महान सभ्यताएं समय के साथ नष्ट हो गई लेकिन अपनी अनूठी क्षमता के चलते हमारी भारतीय सभ्यता बची रह गई. क्योंकि हमारी सभ्यता में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या विचारधारात्मक बदलावों के साथ समन्वय बिठाने की अनूठी क्षमता थी. दुनिया में शायद ही कहीं दो विपरीत विचारधाराओं के एक साथ फलने-फूलने और पालन किए जाने का उदाहरण दिखाई देता हो. एक ओर जहां हमारे यहां 'योगा' जैसी रूढ़िवादी आस्तिकता है, तो वहीं दूसरी तरफ 'चार्वाक' जैसी विचारधारा भी फलती-फूलती है जो नास्तिकता का प्रचार करता है!
प्राचीन समय में जब विपरीत विचारधारा या फिर धार्मिक विश्वास को मानने के कारण लोगों को दंड दिया जाता था तब भी लोगों ने ना सिर्फ दो धर्मों के बीच बल्कि धर्मों के अंदर की असमानता को भी स्वीकार किया. सिर्फ यही कारण है कि भारत एक राष्ट्र की श्रेणी में फिट नहीं बैठता. बल्कि इसके उलट इसने एक नई और प्रतिष्ठित श्रेणी का निर्माण किया जो 'सभ्यतावादी-राज्य' बनाता है. और इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद पर किसी भी तरह की बात इसी संदर्भ में होनी चाहिए.
राष्ट्रवाद
चश्मा बदलें, सच्चाई दिखेगी
राष्ट्र, राज्यों के विपरीत एक राजनीतिक संस्था है. राष्ट्र और राज्य मिलकर एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं जिनकी सांस्कृतिक और राजनीतिक सीमाएं एकदूसरे से मिलती हैं. राष्ट्रवाद का उत्थान सबसे पहले यूरोप में हुआ था, जहां एक भाषा / जातीयता के लोग एक राज्य में एक सरकार / शासन के अतंर्गत रहना चाहते थे. ये विचार अपने आप में नया था क्योंकि इसमें ऐसा माना गया था कि किसी दूसरी भाषा / जातीयता के लोग अलग होते हैं और इसलिए वो एक साथ नहीं रह सकते.
लेकिन भारत में मामला इससे बहुत अलग है. और समय बीतने के साथ इस महान भूमि ने विचारों, लोगों, संस्कृति और सभ्यताओं की बहुलता देखी है. यहां भगवान बुद्ध से लेकर गुरु नानक देव और महावीर तक की कहानियां हैं, कालिदास से लेकर तुलसीदास तक की चौपाई है, स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी तक के ज्ञान का सागर है. यानी हमारे देश की जमीन में भिन्न प्रकार के फूल हैं और सबने एक माला में गुंथकर अपनी खुशबु से इस पावन धरती को महकाया है.
लेकिन साथ ही इसने अपनी आंतरिक कमजोरियों और अलगाववाद की वजह से कई शताब्दियों तक उपनिवेशवाद और गुलामी का दंश भी सहा है. इस गुलामी ने न सिर्फ लोगों के शरीर को गुलाम बनाया बल्कि उनकी सोच, उनके मन को भी गुलाम बना दिया. चापलूसी हमारी सोच का हिस्सा बन गई और भारतीयों ने ही भारत से जुड़ी हर चीज को नकारना शुरू कर दिया. फिर चाहे वो बात देश की संस्कृति, भाषा, शिक्षा प्रणाली या फिर मूल्यों की हो, हर बात में उन्होंने खोट निकालना शुरू कर दिया. दुख की बात ये है कि हमारी ये सोच अभी तक खत्म नहीं हुई है और इसी कारण से आज भी अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिमी राष्ट्रवाद के चश्मे से ही देखते हैं.
हर किसी को ये याद रखना चाहिए कि यूरोप के विपरीत, भारतीय राष्ट्रवाद ने अंग्रेजों द्वारा देश के उपनिवेशवाद से जन्म लिया है. और विदेशों की तरह धर्म, क्षेत्र, जाति, वर्ग और लिंग की सीमाओं में बंटे सभी सामाजिक समूहों को राष्ट्रवाद की एक छत के नीचे 'भारत माता' या 'मदर इंडिया' के रूप में दिखाया गया था.
राष्ट्रीयता बनाम व्यक्तिवाद
राष्ट्रवाद की तरह व्यक्तिवाद भी ज्ञान और आधुनिकता के रूप में यूरोप में ही उभरा. यूरोप के व्यक्तिवाद में तर्क दिया गया कि व्यक्ति एक तर्कसंगत और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र है और इसलिए इंसान के अधिकारों को समूह के अधिकारों के आगे रखा जाना चाहिए. शायद इसलिए ही किसी व्यक्ति का अधिकार और कल्याण एक राष्ट्र का विरोधाभासी होता है.
भारतीय राष्ट्रवाद भूमि, शक्ति और लोगों के भौतिक विचारों पर आधारित नहीं है. बल्कि यह आध्यात्मिक प्रकृति का है जिसका आदर्श मानवता की सेवा करना है और पूरे विश्व को एक परिवार या 'महा उपनिषद' में स्वीकार किए जाने वाले 'वसुधैव कुतुंबकम' के रूप में मानना है.
हमारे यहां परिवार में सदस्यों को किसी कॉन्ट्रेक्ट से नहीं बल्कि प्रेम और करुणा के बंधन से बंधे होते हैं. और सदस्य के अधिकार अन्य सदस्य के अधिकारों की ही तरह पवित्र होते हैं. इसलिए अधिकार के उल्लंघन की संभावना शून्य नहीं तो न्यूनतम जरुर हो जाता है. भारतीय राष्ट्रवाद 'अद्वैत' की अवधारणा में विश्वास करता है जिसे स्वामी विवेकानंद ने भी स्वीकार किया है. विवेकानंद का कहना था कि पूरी दुनिया एक है. यह विचार संस्कृत के चार महाकव्यों में से एक में भी लिखा गया है- 'अहम ब्रह्मास्मि' या 'मैं ब्रह्मांड हूं', और इसलिए, दोनों के बीच कोई विरोध नहीं हो सकता है.
राष्ट्रवाद स्वतंत्रता और समानता का समर्थक है
राष्ट्रवाद को इन दिनों जानबूझकर बुरे तरीके से दिखाया जा रहा है जिससे कि भारत के गौरवशाली अतीत की जड़ों को कमजोर किया जा सके. भारतीय राष्ट्रवाद कभी भी 'विरोधी' नहीं था और ना ही होगा. फिर चाहे वो 'व्यक्तिगत विरोध' हो, 'दलित विरोधी', 'अल्पसंख्यक विरोधी' आदि हो. लेकिन ये हमेशा से ही 'स्वतंत्रता' का 'समर्थक' होगा. 'समानता का समर्थक' और 'विकास का समर्थक'.
संवैधानिक ढांचे के दायरे में रखकर इसे सुधारने की चर्चा हमेशा ही हो सकती है, लेकिन राष्ट्र की एकता और अखंडता के खिलाफ नारे लगाकर नहीं. जो दुर्भाग्य से भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में किया जा रहा है. जब तक कि देश के सैनिक राज्य की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा में तत्पर हैं तब तक देश में हर नागरिक के अधिकार सुरक्षित हैं. आज के समय में 'आजादी' के नारे लगाना फर्जी उदारवादियों के लिए फैशन बन गया है जो पाकिस्तान और चीन जैसे आतंकवादी पड़ोसियों और आतंकवादी संगठनों से हमारी सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों की कुर्बानी से बेखबर रहते हैं.
यह उनका दोहरा रूप ही है जो दूसरों को अपने 'राष्ट्रवाद' के लिए प्रमाण पत्र देने के लिए नहीं चाहते हैं, लेकिन वे कभी भी 'धर्मनिरपेक्ष', 'उदार', 'प्रगतिशील आदि होने का प्रमाण पत्र देने और लेने के लिए तैयार रहते हैं. कोई भी राष्ट्र ऐसे लोगों को नहीं चाहता जिसका एजेंडा भारत की बहुत पहचान और अस्तित्व पर सवाल उठाना ही रहा हो. कई बार तो ये लोग कुख्यात जासूसी एजेंसियों के लिए भी काम करते हैं. अगर राष्ट्र को धमकी दी जाती है, तो सबले पहले व्यक्तिगत अधिकार को नुकसान पहुंचता है.
( Dailyo.in से साभार )
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