सामाजिक एकता मंच बनाम नक्सल समर्थक मंच
बस्तर में यह बहुधा होता है कि अमेरिका से लेकर दिल्ली तक पुलिस तंत्र की नाकामियों अथवा उनकी ज्यादतियों पर मुखर होते हैं तो नक्सलियों की कारस्तानियों पर खामोश रहते हैं. नक्सल पीडितों की भी एक पूरी पीढी विद्यमान है जिनकी पक्षधरता कभी भी जनपक्षधारता के वर्तमान भारतीय मानकों के अंदर रेखांकित नहीं होती.
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बस्तर में सलवाजुडुम का प्रभाव-दुष्प्रभाव उसकी समाप्ति के पश्चात भी रहा है. जब यह आन्दोलन आरम्भ हुआ और फैला तो इसने सामाजिक दरारें पैदा की. गाँवों, गोत्रों यहाँ तक कि परिवार के सदस्यों के बीच भी भयावह खाई उत्पन्न हुई जिसकी विभीषिका अब तक महसूस की जा सकती है. लाल-आतंकवाद के निर्मूलन की इस अदूरदर्शी, अयोजनाबद्ध तथा अनावश्यक कोशिश ने विस्थापन का वह दृश्य समुपस्थित किया जिसका दूसरा उदाहरण नहीं मिलता.
सलवाजुडुम ने समाज को नक्सलसमर्थक और नक्सलविरोधी दो सशस्त्र खेमों में बाँट दिया था. सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर जब एक पक्ष का निरस्त्रीकरण हुआ तब इस बात की विवेचना नहीं की गयी कि उन ग्रामीणों की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित होगी जिन्होंने दूसरे पक्ष को अपना समर्थन दिया था. परिणामस्वरूप हत्याओं का दैनिक सिलसिला चला और नक्सलियों ने चुन चुन कर उन आदिवासी नेताओं को समाप्त किया जिनकी पक्षधरता सलवाजुडुम के साथ थी. मुझे हमेशा लगता है कि एक पक्ष की बंदूखे गलत हैं तो निश्चित ही दूसरे पक्ष की भी गलत ही हैं, एक की हिंसा अपराध है तो दूसरे की भी है. किंतु दुर्भाग्य से इस देश में एक गुपचुप नक्सल समर्थक मंच भी मौजूद है जो यह जानता है कि किस किस बंदूक की गोली का विरोध करना है और किसके गला रेतने पर चुप बैठना है. किस घटना पर गला फाड़ना है, कलम तोडनी है और किस पर खामोशी रखनी है.
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सामाजिक एकता मंच की स्थापना और इसके विस्तार का मैं लगातार अध्ययन कर रहा था. इस समूह को आरम्भ में मैने गंभीरता से नहीं लिया किंतु जब मालिनी सुब्रमण्यम और बेला भाटिया पर हुए प्रतिरोधात्मक हमलों में इस संगठन का नाम आया तब लगा कि क्या यह समूह इतना ताकतवर और विस्तृत हो गया है कि उसे दूसरा सलवाजुडुम कहा जा सके? मुझे यह लगता रहा कि जिस संगठन का अधिकतम विस्तार और सदस्यता भी जगदलपुर और आसपास तक ही केन्द्रित है क्या उसकी ताकत इतनी विस्तारित हो गयी है कि उसकी तुलना सलवाजुडुम से की जा सके?
इस संगठन पर पुलिस की “बी-टीम” की तरह कार्य करने भी आरोप हैं. यह भी कहा जाता है कि पुलिसतंत्र की शह पर ही सामाजिक एकता मंच कार्य कर रहा था. यह ठीक है कि सामाजिक एकता मंच द्वारा उठाये गये सभी मुद्दे नक्सलवाद के विरोध में थे. यह भी ठीक है कि उन्होंने नक्सलवाद का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और पत्रकारों के विरोध में माहौल तैयार किया और इस विरोध में उनके नारे और प्रतिवाद शैली आक्रामक थी. तथापि इस समूह से पूरे बस्तर का जुडाव हो गया हो और कोण्टा से कांकेर तक इसका विस्तार बना हो यह कभी नहीं हुआ. मालिनी सुब्रमण्यम, बेला भाटिया प्रकरणों में मैने सामाजिक एकता मंच की गतिविधियों का विरोध करते हुए एक सख्त लेख लिखा था. मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि लड़ने का काम व्यवस्था का है. चाहे अपने सिपाही झोंके अथवा वायुसेना किंतु नक्सल निर्मूलीकरण के सभी सशस्त्र प्रयास व्यवस्था द्वारा ही किये जाने हैं.
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कोई भी संगठन अगर पत्थर उठाये दिखाई पडेगा तो वह आलोचना का शिकार ही बनेगा. तथापि यह तथ्य भी रेखांकित करने योग्य है कि इस बार नक्सल समर्थक मंच ने अतिरिक्त सतर्कता बरती सामाजिक एकता मंच को बड़ा आन्दोलन बनने देने से पहले ही पर्याप्त रूप से घेर कर परास्त किया है. सामाजिक एकता मंच द्वारा अचानक स्वयं को भंग किये जाने को मैं दो दृष्टिकोण से देखता हूँ पहला यह एक बेहतर कदम है और संगठनात्मक रूप से किसी अंधेरे कुँए की और बढने से पहले अगर समूह अपनी विवेचना कर स्वयं को भंग कर लेता है तो उसके आंतरिक विमर्श, आत्म-विवेचना आदि आदि के लिये सराहना होनी चाहिये. दूसरा यह नक्सल समर्थक संगठनों उनकी विचारधारा के प्रसारकों की बडी जीत भी है.
नक्सलियों ने सामाजिक एकता मंच के विरोध में पोस्टर लगाये और इससे जुडे लोगों को मारने की धमकियाँ जारी कीं, इसके साथ साथ इसी लीक पर चलते हुए कथित समाजसेवी सगठनों ने स-विस्तार आन्दोलन चलाये, कतिपय पत्रकारों ने इस मंच को अपने निशाने पर लिया और दिल्ली युनिवर्सिटी की प्रोफेसर नन्दिनी सुन्दर ने एक कदम आगे बढ कर सुप्रीम कोर्ट में पिटीशन डाल दी.
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यह पूरा प्रकरण ध्यान से विवेचित करने के पश्चात मैं इसे मोटे तौर पर सामाजिक एकता मंच बनाम नक्सल समर्थक मंच की लड़ाई के रूप में देखता हूँ. मैं अपनी विवेचना में इसे लोगों की लड़ाई, लोगों के लिये लड़ाई, लोक-प्रतिरोध आदि आदि से जोड कर नहीं देखता अपितु यह विशुद्ध रूप से नक्सल समर्थक बनाम नक्सल विरोधी सिरफुटौव्वल थी. सामाजिक एकता मंच का स्वयं को विसर्जित कर देना संभव है उनके पास आखिरी विकल्प हो तथापि बेहतर है क्योंकि उनकी आड़ में जो निशाने पर थे अब कम से कम उनसे आमने सामने की लडाइयाँ तो हों.
बस्तर में यह बहुधा होता है कि अमेरिका से ले कर दिल्ली तक पुलिस तंत्र की नाकामियों अथवा उनकी ज्यादतियों पर मुखर होते हैं तो नक्सलियों की कारस्तानियों पर खामोश रहते हैं. नक्सल पीडितों की भी एक पूरी पीढी विद्यमान है जिनकी पक्षधरता कभी भी जनपक्षधारता के वर्तमान भारतीय मानकों के अंदर रेखांकित नहीं होती. जो भी हो संघर्ष का अनावश्यक केन्द्र बनता जगदलपुर अब राहत की सांस लेगा. यह भी हो रहा था कि सामाजिक एकता मंच पर निशाने की आड में प्रेशर बम की चपेट में मारे जा रहे ग्रामीण बच्चों की खबरों पर रेत डल रही थी.
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