अखिलेश-मुलायम के रार का राजनीतिक मतलब...
अखिलेश चुपचाप सपा का सीएम चेहरा बनते हैं तो उनका मतदाता वर्ग उन्हें पसंद करते हुए भी सपा के कारण उनसे दूरी बना लेगा. इस सियासी समीकरण का आभास मुलायाम सिंह यादव को भी जरूर होगा. संभव है कि इसी के मद्देनज़र उन्होंने ये सारा सियासी बवाल रचा हो
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उत्तर प्रदेश की राजनीति इन दिनों उथल-पुथल से भरी हुई है. सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और इसके मद्देनज़र सभी राजनीतिक दल राज्य में अपने-अपने सियासी समीकरण जमाने और अपने लिए बेहतर माहौल कायम करने की कवायदों में जुट गए हैं. लेकिन, इन सबके बीच सूबे की सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी एक अलग ही अंतर्कलह से जूझ रही है. ये अंतर्कलह ऐसा है कि इसे पारिवारिक या राजनीतिक, किसी भी एक रूप में नहीं समझा जा सकता.
इसे यूं समझा जा सकता है कि ये राजनीतिक गतिविधियों से उपजा पारिवारिक अंतर्कलह है, जो समाजवादी पार्टी की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को पूरी तरह से प्रभावित कर रहा है. गौरतलब है कि शिवपाल और अखिलेश की रार पिछले कई महीनों से चल ही रही थी, जिसमें मुलायम सिंह यादव शिवपाल के साथ खड़े नज़र आए. प्रदेश अध्यक्ष का पद अखिलेश से छीन शिवपाल को देना उनके इस रुख का प्रमाण है.
इसके बाद से ही अटकलें थी कि मुलायम और अखिलेश के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा. अब विगत दिनों खबर ये आई कि एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा कि उन्होंने बचपन में अपना नाम तक खुद ही रखा था. आशय यह था कि नौबत आने पर वे अकेले ही चुनाव में जाने से भी परहेज नहीं करेंगे.
इस खबर ने सभी को अभी हैरान-परेशान किया हुआ ही था कि मुलायम सिंह यादव ने इसके ठीक बाद दोपहर में पार्टी के रजत जयंती समारोह की घोषणा के लिए प्रेस कांफ्रेंस कर कुछ ऐसे संकेत दे डाले, जिसने नया धमाका कर दिया. मुलायम ने भावुक होते हुए अखिलेश के जनम-करम के किस्से तो सुनाए, लेकिन यह भी कह गए कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का चयन संसदीय दल और पार्टी के विधायक करेंगे. इस बात के जरिये मुलायम ने यही स्पष्ट करने की कोशिश की कि अखिलेश यादव ही मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार होंगे, ऐसा कुछ भी तय नहीं है. कहीं न कहीं यह भी साफ़ करना उनका मकसद रहा होगा कि पार्टी में होगा वही, जो वे चाहेंगे. उनके रहते और किसी की नहीं चलेगी.
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मुलायम ने शिवपाल की तरफ इशारा करते हुए परिवार में सबके एक होने की बात भी कही. यहां तक कि अखिलेश जिन गायत्री प्रजापति को नापसंद करते हैं, उन्हें ही पार्टी के रजत जयंती समारोह का संयोजक बना दिया गया. सबसे बड़ी बात ये है कि इस पूरे सीन से अखिलेश यादव गायब रहे. इस पूरे घटनाक्रम का निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के सर्वेसर्वा पिता-पुत्र के बीच भीषण राजनीतिक रार मची हुई है. बहुत से लोग इसे समाजवादी पार्टी की ‘मुश्किल’ के रूप में भी देख रहे हैं. पर क्या ये सारा खेल वैसा ही साफ़ और सरल है, जैसा कि नज़र आ रहा है ?
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गौर करें तो समाजवादी कुनबे में ये सारा उत्पात पिछले कुछेक महीने में ही अचानक से शुरू हुआ है. अन्यथा चल तो सबकुछ ठीक ही रहा था. ऐसे में सवाल यह उठता है कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि समाजवादी पार्टी में ये सब वितंडा मच गया ? यह वास्तविकता है कि अबतक के दंगों, अपराध और विलासिता से युक्त शासन के कारण यूपी की सियासी बयार इस समय सपा सरकार के खिलाफ है. लेकिन, इसके साथ ही यह भी सच्चाई है कि सूबे का एक वर्ग ऐसा है, जो सपा को तो नहीं पर अखिलेश की युवा और कथित विकासोन्मुख छवि को अब भी एक हद तक पसंद करता है. यानी सपा तो नहीं, मगर अखिलेश अब भी यूपी में सपा के पारंपरिक मतदाताओं से इतर एक वर्ग की पसंद हैं. ये अखिलेश का अपना अर्जित किया हुआ मतदाता वर्ग है.
अब अगर अखिलेश चुपचाप सपा का सीएम चेहरा बनते हैं तो उनका मतदाता वर्ग उन्हें पसंद करते हुए भी सपा के कारण उनसे दूरी बना लेगा. इस सियासी समीकरण का आभास मुलायाम सिंह यादव को भी जरूर होगा. संभव है कि इसी के मद्देनज़र उन्होंने ये सारा सियासी बवाल रचा हो, जिससे जनता में ये सन्देश जाए कि अखिलेश पार्टी में रहते हुए भी अब किसीके दबाव में नहीं रहेंगे. लेकिन, इससे भी अगर बात नहीं बनी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि अखिलेश एक अलग पार्टी बनाके चुनाव में उतर जाएं, ताकि उनका जो मतदाता वर्ग है, उसका वोट उन्हें मिल जाए और इधर सपा का पारंपरिक वोट उसे भी मिल जाएगा.
ऐसी स्थिति में अगर समीकरण सध गया और वोट सीटों में कन्वर्ट हो गया, तब तो इस सपा के छके-पंजे हैं, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो भी वोटों के इस भारी विभाजन के बाद बाकी दलों का खेल तो कम से कम खराब हो ही जाएगा.
अब बसपा का तो अपना एक निश्चित मतदाता वर्ग है, जो हर हाल में उसकी तरफ ही जाएगा. कांग्रेस के पास खोने को कुछ भी नहीं है. यानी कि सपा के उपर्युक्त समीकरण से सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही पहुंचेगा, जो कि इस समय सर्वे आदि के अनुसार प्रदेश में नंबर एक पार्टी बनकर उभर रही है। पर यह भी एक तथ्य है कि अगर भाजपा अपना सीएम उम्मीदवार प्रस्तुत कर दे तो इस समस्या से अवश्य पार पा सकती है.
बहरहाल, सियासत में घंटों और दिनों में समीकरण बदलते हैं और यूपी चुनाव में अभी कई महीने शेष हैं, ऐसे में फिलहाल निश्चित तौर पर कुछ भी कहना जल्दबाजी ही होगी. हां, वर्तमान परिस्थितियों में उपर्युक्त विश्लेषण के घटित होने की संभावना जरूर दिखाई दे रही.
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