कांग्रेस चाहती है विपक्ष प्रपोज करे - और वो ड्राइविंग सीट से ही 'आई लव यू' बोले
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) अपना पुराना संदेश ही राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को फिर से भेजना चाहते थे, तभी सलमान खुर्शीद (Salman Khurshid) ने मौके पर ही साफ कर दिया कि विपक्षी एकता भी आग का दरिया ही है - जो डूब कर पास पहुंचेगा कांग्रेस उसे ही अपनाएगी.
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को अगर सलमान खुर्शीद (Salman Khurshid) के मन की बात पहले से मालूम होती तो सीपीआई-एमएल लिबरेशन की रैली चार दिन पहले ही करा दिये होते - 'आई लव यू' बोलने का अच्छा मौका तो 14 फरवरी को ही माना जाता है. वैलेंटाइन डे के दिन!
18 फरवरी को पटना के गांधी मैदान में सीपीआई-एमएल लिबरेशन के राष्ट्रीय सम्मेलन के मौके पर जैसे ही नीतीश कुमार ने विपक्ष के एकजुट होकर बीजेपी को चैलेंज करने का प्रस्ताव रखा, कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे सलमान खुर्शीद ने भरोसा दिलाने की कोशिश की कि कांग्रेस की सोच भी उनकी ही तरह मिलती जुलती है. जैसे प्यार में पड़े किसी भी कपल के मन में संकोच और उलझन रहती है, करीब करीब वैसा ही हाल है. इधर का हाल भी, और उधर का हाल भी - बात तो सही है, क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी (Rahul Gandhi) तो पहले ही देश भर में मोहब्बत की दुकान खोलने का ऐलान कर चुके हैं.
और सलमान खुर्शीद ने जो कुछ कहा है वो मोहब्बत की उसी दुकान की झलक दिखाने की कोशिश भी लगती है, जैसे किसी चीज का प्रोमो दिखाया जाता है. लेकिन अक्सर ऐसे प्रोमो हाथी के दांत की तरह दिखावे भर के ही होते हैं. असली चीज जरूरी नहीं कि वैसी ही हो जैसा प्रोमो में दिखाने की कोशिश की जाती है.
कांग्रेस नेतृत्व की मुश्किल ये है कि मोहब्बत की दुकान खोलने की घोषणा तो कर दी है, लेकिन तारीख बता ही नहीं रही है. तारीख तो वैसे ही बतायी जाती है, जैसे बीजेपी नेता अमित शाह ने त्रिपुरा पहुंच कर राहुल गांधी को अयोध्या में दर्शन के लिए राम मंदिर के कपाट खुलने की बतायी थी. एक पंथ कई काज!
चौतरफा मुश्किलों से निकल जाने और सरवाइवल का रास्ता तो नीतीश कुमार अच्छी तरह जानते हैं, लेकिन इस बार मुसीबतें ऑक्टोपस की तरह घेर रखी हैं. विपक्ष से भाव न मिलना और लालू यादव और साथियों की तरफ से जड़ें खोदने की कोशिश तो चल ही रही है - किसी दिन शरणार्थी बन कर मदद मांगने आये उपेंद्र कुशवाहा भी फिलहाल अपनी तरफ से एकनाथ शिंदे बनने की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं.
उपेंद्र कुशवाहा ने 5 फरवरी को जेडीयू के साथियों को पत्र लिख कर 19-20 फरवरी की बैठक में शामिल होने की अपील की थी. कहते हैं, उपेंद्र कुशवाहा अपनी तरह से निर्णायक लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं. वो कहते फिर रहे थे कि उनके साथी जेडीयू को बचाने के लिए बैठक में शामिल होंगे. अपने मिशन को जरूरी बताने के लिए वो एक खास डील और जेडीयू के लालू यादव की आरजेडी में विलय की आशंका भी जता रहे हैं.
जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ऐसे ही सवालों के साथ नीतीश कुमार से बात भी करना चाहते थे, लेकिन उनके नेता ने भाव ही नहीं दिया. ऊपर से उनकी तरफ से बुलाई गयी बैठक में शामिल होने को लेकर भी जेडीयू नेताओं को चेतावनी दे डाली - ऐसी ही चीजों से जूझ रहे नीतीश कुमार को कांग्रेस नेता की तरफ से सशर्त आश्वस्त करने की कोशिश की गयी है.
पटना की रैली इसलिए भी खास अहमियत रखती है, क्योंकि 25 फरवरी को पूर्णिया में महागठबंधन की बड़ी रैली होने जा रही है. ये रैली भी अमित शाह के बिहार दौरे के मुकाबले में रखी गयी है - और उसके हिसाब से देखें तो गांधी मैदान में पूर्णियां की तैयारियों का रिहर्सल किया गया लगता है.
और यही वजह है कि मौके की नजाकत को समझते हुए, नीतीश कुमार ने नये सिरे से विपक्ष के सामने प्रस्ताव रख दिया है. ऐसे ही पहले एक मीटिंग में कांग्रेस विधायकों को संबोधित करते हुए नीतीश कुमार ने नेतृत्व तक मैसेज पहुंचाने की सलाह दी थी - और लगे हाथ ये भी बता दिया था कि वो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं.
गांधी मैदान में कांग्रेस का मुगल-ए-आजम
पटना के गांधी मैदान की रैली में नीतीश कुमार महागठबंधन का मुख्यमंत्री होने के नाते पहुंचे थे. और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव महागठबंधन का नेता होने की वजह से - मंच पर गेस्ट के तौर पर कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद और होस्ट के रूप में सीपीआई-एमएल नेता दीपांकर भट्टाचार्य. सीपीआई-एमएल लिबरेशन बिहार में महागठबंधन सरकार का बाहर से सपोर्ट किया है.
नीतीश कुमार ने कांग्रेस के पाले में गुगली उछाल दी है, अब राहुल गांधी को फैसला करना है - और बहुत जल्दी करना है.
नीतीश कुमार ने शुरुआत अपनी तरफ से की गयी पहल की मिसाल देते हुए की. समझाया कि कैसे उनके एनडीए छोड़ देने के बाद बिहार में बीजेपी के पांव पसारने की रफ्तार रुक गयी - और लगे हाथ आगे का एजेंडा भी समझा दिया, '...लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भी हमें ऐसा ही कुछ करने की जरूरत है.'
जैसे नीतीश कुमार विपक्षी एकता की पहल कर रहे हैं, कई और भी नेताओं की तरफ से भी ऐसी कोशिशें हो रही हैं. मसलन, विपक्षी एकता की एक कोशिश तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की तरफ से भी हो रही है - लेकिन नीतीश कुमार वैसी कोशिशों से इत्तेफाक नहीं रखते.
केसीआर की पहल नीतीश कुमार को तीसरे मोर्चे जैसी लगती है, जबकि वो मेन-फ्रंट की वकालत कर रहे हैं. और काफी हद तक वो सही भी लगते हैं. क्योंकि जब तक पूरा विपक्ष मिल कर चैलेंज नहीं करेगा, बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दबदबे को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है. बहुत पहले के प्रयास छोड़ भी दें तो हाल ही में जिस तरह अदानी ग्रुप के कारोबार की जांच के लिए कांग्रेस के जेपीसी की मांग की जिद पर तृणमूल कांग्रेस और लेफ्ट घर बैठ गये, एक बार फिर साबित हो गया कि कांग्रेस का रवैया ही विपक्षी एकता में सबसे बड़ा बाधक है.
रैली में नीतीश कुमार का कहना रहा, 'मैंने अभी-अभी समाधान यात्रा समाप्त की है जो काफी अच्छी रही... अब मैं बाहर भी जाने के लिए तैयार हूं... मुझे कई विपक्षी दलों के फोन आ रहे हैं... मैं सिर्फ कांग्रेस के संकेत का इंतजार कर रहा हूं.'
नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ने के बाद बिहार से बाहर जिन नेताओं से पहले दौर में संपर्क किया था, राहुल गांधी का नाम कॉल डायल लिस्ट में ऊपर था. और जब दिल्ली पहुंचे तो सबसे पहले राहुल गांधी से ही मिले थे.
बाद में वो लालू यादव के साथ सोनिया गांधी से भी मिले. बीच में मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से नीतीश कुमार की पहल का जिक्र भी सुना गया था, लेकिन तब नीतीश कुमार इंतजार ही कर रहे हैं - ऐसा लगता है जैसे कांग्रेस अपनी तरफ से पुराने रिलेशनशिप स्टेटस को ही नया अपडेट बताने की कोशिश कर रही है.
फिर भी मंच पर मौजूद सलमान खुर्शीद से मुखातिब होकर नीतीश कुमार बीजेपी के बारे में अपनी राय रख ही देते हैं, 'हम तो तैयार हैं ही... जान लीजिये अगर हम साथ आ गये... ये लोग 100 क्रॉस नहीं करेंगे... फैसला आपको लेना है.'
ऐसा बोल नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से पूरे विपक्ष को मैसेज दे दिया है. और ये भी मान सकते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को भी आगाह करने की कोशिश की है. मतलब, अगर कांग्रेस अब भी नहीं चेत पायी, तो 2024 तक कुछ भी होने से रहा - और विपक्षी दलों के नेताओं को भी नीतीश कुमार यही समझा रहे हैं कि ये कांग्रेस ही है जो विपक्षी एकता में सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है.
सोचना है तो अभी से सोच लो. अगर कांग्रेस नहीं तैयार होती तो उसे छोड़ा भी जा सकता है. जैसे केसीआर और केजरीवाल कर रहे हैं. जैसे अखिलेश यादव भी उनके साथ हो चुके हैं. लालू यादव भले न माने, लेकिन नीतीश कुमार भी लगता है ममता बनर्जी की ही तरह सोचने लगे हैं. ममता बनर्जी का भी स्टैंड कांग्रेस को अलग रख कर ही विपक्ष को एकजुट करना रहा है. केसीआर और केजरीवाल भी गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस विपक्षी मोर्चे के पक्षधर हैं. कांग्रेस के लिए ये सबसे बड़ी चिंता की बात होनी चाहिये.
बीजेपी को लेकर नीतीश कुमार ने 2024 के लिए वैसी ही भविष्यवाणी की है, जो 2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रशांत किशोर ने किया था. बंगाल चुनाव में बीजेपी 100 सीटों की सीमा भी नहीं छू पायी थी. प्रशांत किशोर तो कामयाब रहे, लेकिन नीतीश कुमार का इम्तिहान बाकी है.
तेजस्वी यादव की तरफ देखते हुए सलमान खुर्शीद ने कांग्रेस की जो मंशा समझायी वो भी समझना जरूरी है, 'जहां तक मुझे पता और पार्टी के बारे में मेरी जितनी समझ है, मैं कह सकता हूं कि कांग्रेस भी इसी लाइन पर सोच रही है.... मैं अपनी पार्टी तक ये संदेश पहुंचा दूंगा... तेजस्वी जी भी इस बात को समझते होंगे... जब कोई प्रेम होता है तो सिर्फ एक ही चीज बाकी रह जाती है... कौन पहले आई लव यू कहता है.'
चार दिन बाद भी लगता है सलमान खुर्शीद के मन से 14 फरवरी की खुमारी नहीं उतरी थी. शायद कांग्रेस का यही लेटेस्ट स्टेटस अपडेट है. कांग्रेस चाहती है कि प्रपोज कोई और करे - और वो सिर्फ आई लव यू बोले. वो भी जब मन करे तो बोले, न मन करे तो रूठ भी जाये.
उस माशूका की तरह जो प्यार तो करती है, लेकिन इतराती ऐसे है जैसे इकरार नहीं इनकार का इरादा हो - सियासी गलियारे में 'मुगल-ए-आजम' सरीखे इश्क की ये कहानी कहानी अभी उससे आगे नहीं बढ़ पा रही है.
कांग्रेस अपनी शर्तों पर ही प्यार के लिए तैयार है
विपक्षी दलों की विचारधारा को लेकर राहुल गांधी के बयान पर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी से लेकर आरजेडी नेता मनोज झा तक सभी आपत्ति जता चुके हैं - और उसके बाद राहुल गांधी भी अपनी तरफ से जता चुके हैं कि कांग्रेस के साथ रहने के लिए उनकी शर्तें माननी ही होगी, क्योंकि दावा ये है कि विपक्ष में हर हिसाब से कांग्रेस ही सर्वश्रेष्ठ है.
विपक्ष में कई खेमे बने हुए हैं. सभी के अपने अपने स्टैंड हैं. ज्यादातर बीजेपी के खिलाफ मिल कर लड़ना तो चाहते हैं, लेकिन सभी की अपनी अपनी शर्तें हैं. किसी को कांग्रेस से परहेज है, तो किसी से कांग्रेस नेतृत्व को ही परहेज है - नीतीश कुमार भी लालू यादव और शरद पवार की तरह ही मानते हैं कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता की कल्पना भी बेमानी है.
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव जैसे नेता तो पहले से ही कांग्रेस से दूरी बना कर चलते देखे जा रहे हैं, अब उसी राह पर अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी भी आगे बढ़ती नजर आ रही हैं - और राहुल गांधी के हालिया व्यवहार के कारण समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी केसीआर और केजरीवाल खेमे में ही चले गये हैं.
ध्यान देने वाली बात ये है कि केसीआर अपने साथ केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन और जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी को भी कर चुके हैं - और ये एक ऐसा प्रेशर ग्रुप बन रहा है जो कांग्रेस की बिलकुल भी परवाह नहीं कर रहा है.
ये सब देख कर ऐसा लगता है कि जिन राज्यों से ये नेता आते हैं, कम से कम वहां तो राहुल गांधी की शर्तों पर कांग्रेस से गठबंधन होने से रहा. अरविंद केजरीवाल तो अब दिल्ली के साथ साथ पंजाब में भी कांग्रेस को भाव नहीं देने वाले हैं.
बिहार की तरह झारखंड, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में राजनीतिक समीकरण ऐसे हो गये हैं, जहां कांग्रेस मजबूरी में शादी के लिए तैयार है. कभी कभी तो ऐसा लगता है, जैसे वो तीसरी-चौथी बीवी बनने को भी राजी है - लेकिन उत्तर प्रदेश में वो ड्राइविंग छोड़ने को तैयार नहीं है.
भारत जोड़ो यात्रा के दौरान ही तो राहुल गांधी ने अखिलेश यादव को खूब खरी खोटी सुनायी थी. साफ साफ बोल दिया था कि अखिलेश यादव समझ लें समाजवादी पार्टी की औकात बस इतनी ही है कि वो यूपी में ठीक ठाक है, कर्नाटक केरल और बिहार तक में उसे कोई भी पूछने वाला नहीं है - और ऐसे में ड्राइविंग सीट पर बैठने का सर्वाधिकार वो अपने पास ही सुरक्षित रखना चाहती है.
बिहार, झारखंड, और तमिलनाडु में कांग्रेस पहले से ही सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है जबकि महाराष्ट्र विपक्षी गठबंधन का, लेकिन नेतृत्व कहीं भी उसके पास नहीं है. झारखंड में कांग्रेस को हेमंत सोरेन नचाते रहते हैं, तो तमिलनाडु में एमके स्टालिन. जैसे बिहार में तेजस्वी यादव ने कांग्रेस को किनारे लगा रखा है, महाराष्ट्र में शरद पवार का व्यवहार भी करीब करीब वैसा ही रहा है.
तो क्या कांग्रेस विपक्ष के लिए तभी ड्राइविंग सीट छोड़ेगी जब चारों राज्यों जैसा उसका हाल हो जाएगा? तब तक विपक्षी दलों को कांग्रेस के साथ आने के लिए उसके और भी बर्बाद होने का इंतजार करना होगा?
यूपी को लेकर हैरानी इसलिए भी ज्यादा होती है, क्योंकि बाकी राज्यों में तो कांग्रेस थोड़ी बेहतर स्थिति में भी है. उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस के मात्र दो विधायक और सोनिया गांधी एक मात्र सांसद हैं - फिर भी तेवर ऐसे हैं कि राहुल गांधी स्वयंभू जमींदार बने हुए हैं.
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