कांग्रेस में बदलाव की मांग करना गद्दारी से कम नहीं है!
यूं तो कई बार हम कांग्रेस के अंदर का गतिरोध देख चुके हैं मगर अब जबकि कांग्रेस में लेटर बम (Letter Bomb in Congress) फूट गया है और सोनिया गांधी ने अपने इस्तीफे (Sonia Gandhi Resignation) की पेशकश कर दी है तो इतना तो साफ़ हो गया है कि किसी कांग्रेसी नेता द्वारा कांग्रेस पार्टी में बदलाव की मांग करना गद्दारी से कम नहीं है.
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कांग्रेस (Congress) के अंदर जब पार्टी के नेताओं को अपनी बात रखने के लिए चिट्ठी लिखने की जरूरत पड़े तो सोचिए हालात कैसे होंगे. सचिन पायलट (Sachin Pilot) जैसे युवा नेता को अपनी बात रखने के लिए बीजेपी (BJP) की मदद से समर्थक विधायकों को मानेसर के होटल में रखना पड़े तो अंदाजा लगाइए कि कांग्रेस में हालात कितने गंभीर बन चुके हैं. इसके बावजूद अगर कोई अपनी बात कहना चाहता है और उसे गद्दार बताकर उसकी आवाज दबाने की कोशिश की जाए तो समझ लीजिए कि हालात बद से बदतर बन चुके हैं. मैं यहां किसी को मुगल (Mughal) या अंग्रेज (Britiish) तो नहीं कह रहा हूं. मगर लोग अक्सर ऐसा सोचते हैं, इतनी बड़ी मुगल सल्तनत थी, अंग्रेज आए तो कैसे वह हिंदुस्तान पर कब्जा करते चले गए और मुगल कुछ नहीं कर पाए? दरअसल जब आपके अंदर संघर्ष करने का माद्दा खत्म हो जाए और चाटुकार घेर लें तो आप कुछ भी नया करने से लगातार चूकते रहते हैं, धीरे-धीरे आपके अंदर की उद्यम की ताकतें दम तोड़ने लगती हैं. फिर आपको कोई बदलाव करने के लिए कहता है तो वह साजिशकर्ता लगने लगता है. ऐसे मैं परिवर्तन चाहने वालों को बदनाम कर आप सजा दे देते हैं कांग्रेस के अंदर यही चल रहा है. कांग्रेस के आलाकमान यह मानने के लिए तैयार नहीं है कि वह बहादुर शाह जफर (Bahadur Shah Zafar) की जिंदगी जी रहे हैं.
बीजेपी ने करीब-करीब पूरे हिंदुस्तान पर कब्जा कर लिया है. कांग्रेस को जनता लगातार नकार रही है. जो क्षत्रप प्रदेश में मुख्यमंत्री हैं वह दुनिया को दिखाने के लिए उनकी इज्जत तो करते हैं मगर उनकी रत्ती भर बात नहीं मानते. ऐसा लगने लगा है कि गांधी परिवार अपनी अच्छी जिंदगी जीने के अलावा पार्टी को फिर से खड़ा करने की सोच छोड़ चुका है. और इन के इर्द-गिर्द रहने वाले चाटुकारों को लगता है कि अगर पार्टी को फिर से खड़ा करने की कोशिश हुई तो उनकी दुकानदारी जा सकती है.
अगर कांग्रेस में आप देखें तो नेताओं के रूप में चूके हुए चौहानों की फौज खड़ी है. ना कोई विचार बचा है, ना संगठन बचा है. पार्टी के रूप में वहीं पर कांग्रेस का अस्तित्व बचा है जहां पर बीजेपी के अलावा कोई तीसरी ताकत अब तक खड़ी नहीं हो पाई है. बीजेपी के उत्थान के साथ कांग्रेस अगर दूसरे नंबर पर रहती तो समझ में आता है मगर जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दलों से भी सीटें कम आने लगे और उसके बावजूद कांग्रेस को नेताओं को इस बात का गुरूर है कि वह बीजेपी का मुकाबला कर रहे हैं तो समझ लेना चाहिए कि वक्त आ गया है कि यह पार्टी अपनी स्वाभाविक मौत की तरफ बढ़ रही है.
कांग्रेस में बदलाव की बात करना अपने में एक पाप बन गया है
ऐसा लगने लगा है कि कांग्रेस अपनी उम्र जी चुकी है और एक जिद्दी बुजुर्ग की तरह हर बात के लिए जिद पर उतारू है यह जानते हुए कि न कोई उसे कुछ मानता है, न सुन रहा है. एक के बाद एक हार होती जा रही है. पार्टी के विधायक पार्टी छोड़ रहे हैं. राज्य की सरकारें गिरती जा रही हैं. मगर इसके बावजूद पार्टी के अंदर कोई हलचल नहीं हो रही है तो यही कहा जा सकता है कि पार्टी खाट पर पड़ी बुजुर्ग की भांति हो चुकी है जो भगवान के बुलावे का इंतजार कर रही है.
जिन नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी है ,उनकी चिट्ठी को गंभीरता से लेने के बजाय कांग्रेस के अंदर चाटुकारों की एक फौज हो गई है जो इन नेताओं को बदनाम करने में लग गई है. ज्योतिरादित्य सिंधिया को भगाने वाले दिग्विजय सिंह और सचिन पायलट को भगाने की ताक में लगे अशोक गहलोत चिट्ठी लिखने वाले नेताओं को कोस रहे हैं. यानी जो मजे में है वह यथास्थिति चाह रहा है और जो हाशिए पर है, वह बदलाव चाह रहा है.
थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि चिट्ठी लिखने वाले नेता स्वार्थी और लालची हैं. तो क्या देश का कोई भी कांग्रेसी यह मानने के लिए तैयार है कि कांग्रेस में अमूल चूल बदलाव की जरूरत नहीं है? जिस अंबिका सोनी और गुलाब नबी आजाद को आप इस उम्र तक ढो रहे हैं, उसमें अचानक चिट्ठी लिखने के बाद खोट नजर आने लगे. हो सकता है कि यह चमचागिरी बरकरार रखते तो इनमें अभी भी कांग्रेस आलाकमान को भरपूर प्रतिभा नजर आती.
अगर यह लोग इस उम्र में भी पार्टी में शीर्ष स्थान पर बने हुए हैं तो इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कांग्रेस की समस्या है कि वह बुजुर्गों को छोड़ नहीं रही है और युवा नेतृत्व के नाम पर नेता पुत्रों के अलावा उनके पास कोई नेता नहीं है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश के सर्वाधिक सम्मानित नेताओं में से हैं और हो सकता है कि मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस की नजर में परिवार के प्रति वफादार हो मगर इन्हें राज्यसभा में लाना किसी को समझ में नहीं आया.
कांग्रेस के लिए बेहद आसान है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया और रीता बहुगुणा जोशी जैसे नेताओं को लालची कहकर अपने घर के दरवाजे बंद कर चादर तान कर सो जाएं. कांग्रेस पार्टी के साथ समस्या यह है कि उनके पास न तो नेता बचे हैं और ना ही नीति बची है. जो भी नेता नजर आते हैं ,कांग्रेसी नेताओं को अपने घर में नजर आते हैं. अशोक गहलोत को सचिन पायलट नकारा और निकम्मा नजर आते हैं मगर वैभव गहलोत इतने प्रतिभावान हैं कि 7 साल से कांग्रेस के महासचिव हैं, जोधपुर से लोकसभा का चुनाव हार गए तो राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनवा दिया.
मध्यप्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह को कांग्रेस का भविष्य अपने बेटों में नजर आता है. फिर कैसे उम्मीद की जानी चाहिए कि कांग्रेस के जिन नेताओं ने बदलाव के लिए चिट्ठी लिखी है उनको कांग्रेस के दूसरे नेताओं से समर्थन मिल पाएगा. मनीष तिवारी, मिलिंद देवड़ा और जतिन प्रसाद जैसे नेताओं की छटपटाहट कांग्रेस आलाकमान को सुनने में अगर परेशानी हो रही है. तो समझ जाइएगा कि कांग्रेस के अंदर बदलाव को लेकर भारी अंतर्विरोध है. कांग्रेस के अंदर फिलहाल हालात ऐसे हैं कि एक तरफ बुजुर्ग नेताओं की फौज खड़ी हो गई है तो दूसरी तरफ नेताओं के बच्चों की फौज है.
नेताओं के बच्चों के अलावा कांग्रेस की अगली पीढ़ी के नेता खोजने के लिए कौन बनेगा करोड़पति जैसे शो आप आयोजित कर सकते हैं. रही बात बाहर के नेताओं को लाने की तो कभी- कभी तो ऐसा लगता है कि बीजेपी हिंदूवादी पार्टी मानी जाती है मगर हिंदुओं के सारे गुण कांग्रेसियों में मौजूद हैं. हिंदू ऐसा धर्म है जहां पर किसी और धर्म से आकर हिंदू नहीं बन सकता बस यहां से जाकर कोई दूसरा धर्म अपना सकता है.
नवजोत सिंह सिद्धू जैसे नेताओं की प्रतिभा को जिस तरह से कांग्रेस ने जाया किया यह बात दिखलाता है कि कांग्रेसी किसी भी बेहतर नेता को खुद के घर में शामिल करने के लिए तैयार नहीं है. स्मृति ईरानी और हेमा मालिनी ने जो सम्मान बीजेपी में पाया वह सम्मान उर्मिला मातोंडकर और नगमा कभी कांग्रेस में नहीं पाई और ना पा सकती हैं. भारतीय राजनीति में विचार के अलावा ग्लैमर का हमेशा से जगह रहा है.
बीजेपी ने शत्रुघ्न सिन्हा और विनोद खन्ना जैसे अभिनेताओं को मंत्री बनाया मगर कांग्रेस में गोविंदा जैसे लोगों को राजनीति से तौबा करना पड़ा. सुनील दत्त और राजेश खन्ना का कांग्रेस ने इस्तेमाल के अलावा और कोई इस्तेमाल नहीं किया. बीजेपी केवल अपने खुद के नेताओं के दम पर आगे नहीं बढ़ी है बल्कि दूसरे दलों के बेहतर नेताओं को भी अपने साथ रख कर आगे बढ़ी है. कांग्रेस के साथ समस्या है कि रस्सी जल गई मगर ऐठन नहीं गई है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मिलना आसान है मगर किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता के लिए राहुल गांधी से मिलना बेहद मुश्किल है. यह आज भी राजा, महाराजा और युवराज की तरह जी रहे हैं. जिस दिन लंबे समय तक कांग्रेस के संगठन महासचिव रहे जनार्दन द्विवेदी संगठन महासचिव से हटते ही बीजेपी का गुणगान करने लगे थे उसी दिन कांग्रेस को सोचना चाहिए था कि उनका संगठन दम तोड़ रहा है जिसे विचार और नेता की संजीवनी चाहिए.
जब पूरी जिंदगी कांग्रेस में बिताने के बाद एनडी तिवारी और एसएम कृष्णा जैसे नेता बीजेपी का दामन थाम लेते हैं तो कांग्रेस को समझना चाहिए कि उनका विचार भ्रमित है. पार्टी के अंदर समाजवादी और वामपंथियों का अलग जमवाड़ा है तो कारोबारी और युवा नेताओं का झुकाव दक्षिण पंथ की तरफ है. कांग्रेस का एक वर्ग राम मंदिर के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ है तो दूसरा चुनावी वोट की चिंता की कशमकश में राम मंदिर की बधाई देने के लिए आखरी दिन तक का इंतजार करता है.
पार्टी की रीति नीति साफ होनी चाहिए ताकि जनता में कोई भ्रम की स्थिति ना रहे. यही मांग तो कांग्रेस के 23 नेता कर रहे हैं. कांग्रेस की कोई विचारधारा नहीं है. विचारधारा की धारा एक तरफ बहती है बल्कि कांग्रेस एक विचार है जो स्वतंत्र रूप से पूरे देश में विचरण करता है. किसी भी विचार को फैलाने के लिए या फिर लोगों के दिलों दिमाग में बसाने के लिए एक अच्छे नेता की जरूरत होती है. जिसका आभाव साफ-साफ कांग्रेस में देखा जा रहा है.
कांग्रेस के पास ना तो कोई अच्छा वक्ता है और ना ही कोई ऐसा नेता है जिसके जीवन शैली का अनुसरण कर कार्यकर्ता चुंबक की तरह पार्टी से चिपके रहे.अगर इन 23 नेताओं के पत्र का कांग्रेस के चाटुकार नेता विरोध कर रहे हैं तो उन्हें साथ ही साथ यह भी बताना चाहिए कि कांग्रेस के लिए आगे की राजनीति के लिए रोड मैप क्या है. अगर वह बदलाव नहीं चाहते हैं तो क्यों चाहते हैं कि यथास्थिति बनी रहे. और इस यथास्थिति में क्या कांग्रेस ट्विटर के जरिए बीजेपी के कार्यकर्ताओं की लंबी फौज को मात दे पाएगी.
समस्या यह है कि कांग्रेस के किसी भी नेता के लिए कांग्रेस का विचार कोई मायने नहीं रखता है. राजस्थान में आज भी ज्यादातर जगहों पर बीजेपी और संघ से जुड़े लोग बैठे हुए हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता बदलने के साथ ही कांग्रेस के नेताओं के साथ अच्छे संबंध बना लिए. यह सच्चाई है कि कांग्रेस के नेताओं से ज्यादा आज गैर कांग्रेसी बीजेपी और संघ की विचारधारा का विरोध कर रहे हैं. मगर सत्ता मिलते ही कांग्रेसी उसी काम में डूब जाते हैं जिसकी वजह से जनता इन्हें हर जगह नकार रही है.
इसलिए जरूरी है कि अगर कांग्रेस के 23 नेताओं ने कोई बदलाव की मांग की है तो उसे सकारात्मक लेते हुए पार्टी के अंदर गहन मंथन करना चाहिए. अगर गांधी परिवार के बिना कांग्रेस जिंदा नहीं रह सकती और कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का इकबाल बुलंद नहीं रह सकता तो फिर कांग्रेस को प्रियंका गांधी की तरफ देखना चाहिए.
सोनिया गांधी बुजुर्ग हो गई हैं और बीमार भी रहती हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी नाकाम रहे हैं. हो सकता है कि कुछ नेताओं को लगता है कि बॉस कमजोर हो तो जिंदगी मौज की गुजरती है मगर इससे पार्टी का भला नहीं हो सकता. बेहतर होगा कि अगर गांधी परिवार से चेहरा चुनना है तो किसी नए चेहरे के रूप में प्रियंका गांधी पर दांव खेला जाए.
प्रियंका की प्रतिभा को यूं यूपी में जाया करना कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को हमेशा से खलता रहा है. कांग्रेस पार्टी में अजीब विडंबना है. कांग्रेस की जमीनी कार्यकर्ता प्रियंका गांधी को अध्यक्ष के रूप में देखना चाहते हैं मगर नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अध्यक्ष के रुप में देखना चाहते हैं. इसकी बड़ी वजह यह है कि वह सोनिया गांधी को नाराज करने से डरते हैं.
मगर इससे भी बड़ी वजह यह है कि उन्हें लगता है कि प्रियंका गांधी तेजतर्रार नेता हैं और उनकी दुकानदारी कहीं उठ ना जाए. प्रियंका गांधी ने जिस तरह से सचिन पायलट को बीजेपी के मुंह से खींच कर लाई वह अशोक गहलोत और दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं को अच्छा नहीं लगा. मगर यह कांग्रेस है. यहां गुरुत्वाकर्षण बल के रूप में गांधी परिवार है तो घाघ नेताओं का घर्षण बल इतना ज्यादा है कि बदलाव आसान नहीं होता. इसलिए 23 नेताओं की चिट्ठी से बहुत लोगों को बहुत उम्मीद नहीं है.
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