दादरी की घटना भीड़ का न्याय थी, धर्म ने इसे डरावना बना दिया
भीड़ की न्याय वाली मानसिकता ही सांप्रदायिक दंगों का कारण होती है. भीड़ के साथ कुछ नहीं हो सकता क्योंकि इसका कोई चेहरा नहीं होता.
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मेरी हालिया यात्रा के बारे में जानने के लिए मेरे एक दोस्त ने मुझे कॉल किया, जिससे काफी दिनों से बात नहीं हुई थी. बातचीत के अंत में मैंने उससे पूछा कि वह कैसा है. मैंने जब यह पूछा तो मेरे दिमाग में दादरी नहीं था, लेकिन उसने व्यंगात्मक तरीके से कहा, अगर तुमने टीवी देखा या सोशल मीडिया को फॉलो किया है, तो हम बहुत बड़े संकट में हैं और केंद्र में बैठी सरकार द्वारा हमारे मानवाधिकारों को छीना जा रहा है. हमने अगले हफ्ते मिलने के वादे के साथ एकदूसरे को अलविदा कहा. लेकिन इससे मेरे दिमाग में एक सवाल कौंधा, क्या हम, मीडिया में दादरी की घटना को बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रहे हैं? जवाब हैः नहीं. भीड़ द्वारा ऐसी क्रूर हत्या को बढ़ाचढ़ाकर पेश करने जैसा कुछ नहीं है. लेकिन कुछ दूसरे सवाल हैं, ऐसे सवाल जो हम नहीं पूछ रहे हैं.
फॉरेंसिक रिपोर्ट आ चुकी है, और इसके मुताबिक अखलाक की फ्रीज में जो मीट था वह गाय का नहीं बल्कि बकरे का था. जैसे यह कभी गोमांस के बारे में था ही नहीं! दादरी की घटना हमारे समाज में एकदूसरे के प्रति फैले जहर के बारे में है. हमारी शांतिपूर्ण ढंग से साथ रहने की आदत बारूद के ढेर पर बैठी है, जिसके लिए छोटी सी चिंगारी आग भड़काने के लिए काफी है. केंद्र में दक्षिणपंथ की ओर झुकी सरकार की अपनी परेशानियां हैं. जब राज्य के कानून और व्यवस्था के असफल होने को बीजेपी और इसके नेता नरेंद्र मोदी पर थोप दिया जाता है, बावजूद इस बात के कि तथ्य दूसरों की भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं. साथ ही बीजेपी में भी कुछ बड़बोले नेता हैं जो सांप्रदायिक घटनाओं का श्रेय खुशी-खुशी ले लेते हैं, भले ही वह घटनास्थल पर देर से पहुंचे हों.
सांप्रदायिकता की खोज बीजेपी या नरेंद्र मोदी ने नहीं की थी, जैसा कि कई लोग कहते हैं. बीजेपी की खोज राजनीतिक सहयोगी के रूप में बहुमत सांप्रदायिकता द्वारा की गई है. पार्टी ने इसे अन्य राजनीतिक धाराओं की तरह अपने काम का पाया. वे दोनों एकदूसरे पर निर्भर हैं. फिर भी दादरी की घटना एक और चीज की तरफ इशारा करतीः भीड़ का न्याय, जोकि मीडिया का ध्यान उतना नहीं खींच पाता, जैसाकि इस केस में हुआ क्योकि इसमें सांप्रदायिकता की बात शामिल थी.
न्याय बनाम भीड़ का न्याय?
भीड़ का न्याय हमें विकसित देशों से अलग करता है. हमारे देश में ट्रैफिक उल्लंघन की छोटी घटना से लेकर भीड़ द्वार हत्याओें जैसे बड़ी घटना में कानून का सम्मान या उसकी कमी की भूमिका अहम होती है. अखलाक की पीट-पीटकर हत्या के मामले में लोगों को लगा कि अखलाक ने कुछ गलत किया है. ऐसी घटना के पीछे किसी को कानून के हवाले करने के बजाय उसे दंडित करने की सोच काम करती है. यह देश में बहुत आम है और दादरी की घटना के केंद्र में भी यही है, लेकिन हम इस समस्या का समाधान नहीं करना चाहते.
दुर्घटना में शामिल ड्राइवरों को भीड़ द्वारा मार दिया जाता है. आरोपी को उन लोगों द्वारा पीट-पीटकर मार दिया जाता है जिन्होंने पहले कभी चूहा तक नहीं मारा होता है. ऐसा अक्सर होता है और कई बार कानून के रखवालों के सामने होता है. कई बार कानून के रखवालों के साथ भी ऐसा होता है. भीड़ के साथ कुछ नहीं होता क्योंकि इसका कोई चेहरा नहीं होता, सिर्फ ताकत और कूर ताकत होती है. जब हम किसी अपराध के खिलाफ उग्र हो रहे होते हैं तो यह पाशविक बल इस कदर होता है कि हम तुरंत ही सजा देने की मांग करते हैं.
भीड़ का न्याय वाली मानसिकता ही सांप्रदायिक दंगों का कारण भी होती है, क्योंकि भीड़ के न्याय का कोई न्याय नहीं होता. इसलिए बहुत कम को ही सांप्रदायिक दंगों में उनकी भूमिका के लिए सजा मिलती है. भागलपुर का उदाहरण लीजिए. हजार से ज्यादा लोग मारे गए और फिर दोषियों को गिनिए. या फिर गुजरात दंगों के मामलों को देखिए. सिर्फ कुछ लोगों को ही सजा मिली. लेकिन सैकड़ो चीखते लोगों की भीड़ में कुछ ही लोग पहचाने जाते हैं. इससे भविष्य में भीड़ की हिंसा को प्रोत्साहन मिलता है. मुजफ्फरपुर दंगे की घटना भीड़ द्वारा दो लोगों की पीट-पीटकर हत्या कर दिए जाने की वजह से भड़की थी.
दादरी की घटना से भी वैसा ही दंगा भड़क सकता था. बदले की कार्रवाई उतनी तीव्र नहीं थी क्योंकि पीड़ित व्यक्ति उस समुदाय से था जोकि दमन करने वाले समुदाय से कम संख्या में थे. साथ ही इन दोनों समुदायों के बीच दुश्मनी का इतिहास नहीं है. उन्होंने हाल ही में साथ में बकरीद मनाई थी. अखलाख की बेटी ने कहा कि उसके पिता की हत्या में शामिल कुछ लोगों ने पिछले हफ्ते उसके घर खाना खाया था. सिर्फ एक अफवाह दशकों के विश्वास को तोड़ने और अखलाक को मारने की वजह बनी.
राज्य की मिलीभगत
एक गलत सोच एक सच की हत्या का कारण बनी जिसने देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया. उस अफवाह की तरह जिसे भगवान कहा जाता है, जो उन लोगों को मारती है जिन्हें भगवान के बच्चे कहा जाता है. उस काल्पनिक इंसान के प्रतीकों के किसी भी अपमान को वास्तविक अपमान की तरह लिया जाता है और हकीकत में जिंदगियां ले ली जाती हैं. क्या यह समय भारत द्वारा, कम से कम आधिकारिक तौर पर भावनाओं, खासकर धार्मिक भावनाओं के आहत होने को मान्यता देने से रोकने का है? लंबे समय से राज्य ने इन आहत भावनाओं को प्रश्रय दिया और इसके लिए कानून बनाते हुए इसे लागू किया. इससे भावनाओं के आहत होने का प्रतिस्पर्धी चलन बढ़ा और लोग उन चीजों पर बैन लगाने की मांग कर रहे हैं जिनके लिए वह अपनी भावनाओं के आहत होने का दावा करते हैं। ईसाई भावनाएं, मुस्लिम भावनाएं, हिंदू भावनाएं. बाबरी से लेकर दादरी तक, इंसानी जिंदगियां काल्पनिक कहानियों और काल्पनिक देवताओं में आस्था से कम महत्वपूर्ण साबित होते रहे हैं.
हमने कलाकारों, लेखकों, विचारकों को इन झूठे दावों के कारण निर्वासित किया है. इन भावनाओं वालों ने उन लोगों की हत्याएं की और अपाहिज बनाया है जिनके बारे में उन्हें लगता है कि उन्होंने उनकी भावनाएं आहत की हैं. राज्य का ऐसी भावुक भीड़ के सामने और ज्यादा आत्मसमर्पण करने का सिलसिला जारी है और आज के समय में ऐसे लोगों को समाज में इतनी ज्यादा जगह मिल गई है जोकि पहले कभी नहीं मिली थी. ये लोग हमारे खाने की प्लेट और फ्रीज में रखे सामानों तक पहुंच गए हैं!
सबूत कहां है?
कल्पना कीजिए अगर 'ए' एक पुलिस स्टेशन में 'बी' के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने की मांग लेकर गया क्योंकि 'बी' ने उसे चाकू घोंपा था. पुलिस ने हमले में उपयोग किए गए चाकू को बरामद कर किया लेकिन 'ए' के शरीर पर चोट के कोई निशान नहीं हैं. क्या पुलिस केस दर्ज करेगी? नहीं, जब तक कि 'ए' खून या चोट के निशान न दिखा दे. फिर भी, धार्मिक मामलों में राज्य बिल्कुल यही करता है. कोई किसी किताब के द्वारा उसकी भावनाओं को आहत किए जाने का रोना रोता है, पुलिस केस दर्ज कर लेती है, किताब को जब्त करती है और लेखक को गिरफ्तार कर लेती है. ऐसा उनके पुलिस के पास जाने पर होता है. सामान्य उपाय किताबों को जलाना और लेखक को पीटना होता है.
दादरी में भी यही हुआ. एक देश के तौर पर हम ऐसे लोगों की भावनाओं को को इतनी गंभीरता से प्रश्रय दे रहे हैं, और देखिए आज हम कहां हैं. पाकिस्तान से बस थोड़ा सा ही अलग. गंगा-जमुनी तहजीब उतनी ही प्रदूषित और जहरीली बन गई है जितनी कि गंगा और युमना खुद हैं. नए विचारों के भारत में विचारों का कोई मिश्रण नहीं है. सिर्फ प्रतिस्पर्धी उत्पीड़न और प्रतिस्पर्धी अत्याचार और हमारी प्यारी एकजुटता को कष्ट पहुंचाया जा रहा है.
एक नाटक को सिर्फ इसलिए बैन कर दिया गया क्योंकि ईसाइयों को यह नहीं पसंद है. एक किताब को इसलिए बैन कर दिया गया क्योंकि मुस्लिम इसे नहीं पसंद करते हैं. खाने पर इसलिए बैन लगा दिया गया क्योंकि इसे हिंदू नहीं पसंद करते हैं. इसका सिलसिला अंतहीन है. धर्म शत्रु है. इसने हमें युगों से जड़ बना रखा है. इनके पास कहने को कुछ भी नया नहीं है. फिर भी हम उनके पीछे इस तरह जाते हैं जैसे आस्था से अलग हमारी खुद की कोई पहचान ही नहीं है. धर्मों को मान्यता देने वाली हमारी झूठी धर्मनिरपेक्षता से कोई फायदा नहीं हुआ है. धर्मों के पास सैद्धांतिक तौर पर कोई अधिकार नहीं होने चाहिए. लोगों के पास अधिकार हैं. अगर धार्मिक अधिकार मानवाधिकारों से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं तो हमने अपने सार्वजनिक जीवन में धर्म को जहां जगह दे रखी है उसमें जरूर कुछ गलत है. यह समय है अधिकारों की इस जंग में व्यक्तिगत अधिकारों की श्रेष्ठता का दावा किए जाए.
बजाय इसके नक्शे को फिर से बनाने की बात चल रही है. कुछ उपद्रवियों ने पहले ही ऐसी भूमि के नक्शे का विचार पेश किया है जहां मुस्लिम स्वतंत्र रूप से अपने धर्म का पालन कर सकें. मेरे दोस्त के जैसे मुस्लिम इस बात को स्वीकार नहीं करते हैं कि सांप्रदायिकता जीत गई है या कभी भी दिशा तय करेगा, भले ही वो आज के परिदृश्य में हावी है. वह राहत इंदौरी की इन दो पंक्तियों को सुनाएगा
'अबके जो फैसला होगा वो यहीं पर होगा....हमसे अब दूसरी हिजरत नहीं होने वाली'
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