Delhi assembly elections: चुनाव प्रचार का स्तर गिरते हुए कहां रुकेगा?
बीजेपी (BJP) के नेता सिकंदर बख्त ने कहा था कि हिंदुस्तान में कोई काम पर नहीं जीतता है. मसलन 1971 में इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) ने कौन सा ऐसा काम किया था जो जीत गईं? 1977 में जनता पार्टी के नेता कौन सा काम करके जीते थे? अब दिल्ली चुनाव (Delhi Election) में अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) के संदर्भ में उनकी बातें याद आ रही हैं.
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बात 1992 की है. वाराणसी के बेनियाबाग मैदान में बीजेपी (BJP) की एक सभा हो रही थी. उस सभा में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कहा कि पिछला चुनाव तो वे अयोध्या आंदोलन के बल पर जीते थे, लेकिन अगला चुनाव वे अपने कामकाज के दम पर जीतेंगे. उनके बाद बोलने उठे बीजेपी के नेता सिकंदर बख्त ने कहा कि हिंदुस्तान में कोई काम पर नहीं जीतता है. उन्होंने लंबी फेहरिस्त गिना दी. मसलन 1971 में इंदिरा गांधी ने कौन सा ऐसा काम किया था जो जीत गईं? 1977 में जनता पार्टी के नेता कौन सा काम करके जीते थे? 1980 में इंदिरा गांधी ने क्या किया था? 1984 में राजीव ने क्या किया और 1989 में जनता दल ने क्या किया था? 1991 में कांग्रेस ने क्या किया था?
आप बख्त की दलीलों से असहमत हो सकते हैं. लेकिन 27 साल बाद उनकी बातों से निकली ध्वनि को आप दिल्ली चुनाव (Delhi election) के संदर्भ में सुन सकते हैं. दिल्ली में आम आदमी पार्टी (AAP) विधानसभा का चुनाव इस दम पर लड़ रही है कि उसने आम लोगों के हितों का काम किया है. कहां तो लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चे को भेजने से कतराते थे और कहां उन्हीं स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों से होड़ लेने वाला बना दिया. कहां तो सरकारी स्कूलों के नतीजे बहुत खराब होते थे और उनके नतीजे प्राइवेट स्कूलों से अच्छे आने लगे. आप का ये भी दावा है कि उसने शिक्षा का बजट करीब करीब तिगुना कर दिया.
दिल्ली चुनाव में लोग सरकार द्वारा किए कामों पर वोट देंगे या शाही बाग के प्रदर्शन को ध्यान में रखकर?
आम आदमी पार्टी यह भी कहती है कि मोहल्ला क्लीनिक (Mohalla clinic) के जरिए आम लोगों का इलाज बहुत आसान हो गया. उसने दो सौ यूनिट तक बिजली मुफ्त में दी और पानी भी मुफ्त में. हालांकि, बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही आम आदमी पार्टी के दावों पर चोट तो करती हैं, लेकिन उन चोटों में असर नहीं दिख रहा. केजरीवाल को लगता है कि वे अपने इन्हीं कामों के बल पर दिल्ली का चुनावी रण जीत जाएंगे. कुछ चुनावी सर्वे भी उनका हौसला बढ़ा रहे हैं.
लेकिन जैसे-जैसे चुनाव करीब आ रहा है, विकास और बेहतर जिंदगी की चुनावी जद्दोजहद पर शाहीनबाग (Shaheen Bagh) हावी होने लगा है. इसका वोट पर क्या असर होगा, ये पता नहीं लेकिन एक वातावरण बनने लगा कि पहले देश की रक्षा की बात होगी या नून तेल लकड़ी में ही में लोग खपते रह जाएंगे. राष्ट्रवाद (nationalism) के शोर में विकास मानो सिसकी ले रहा हो और उसकी सिसकी कोई सुन नहीं रहा है. शाहीनबाग में बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं से कोई सहमत हो या नहीं हो लेकिन वे लोग लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. यही तो हमारे लोकतंत्र की खूबी है कि विरोध को देशद्रोह नहीं समझा जाता है.
मगर क्या कीजिएगा जब संविधान की शपथ लेने वाले कोई माननीय मंत्री ही विरोध में गद्दारी और गद्दारी के नाम पर गाली देते हुए गोली मारने का खुला आह्वान करने लगें. जब माननीय सांसद ही कहने लगें कि वो अपने इलाके में सरकारी जमीन पर बनी एक भी मस्जिद को रहने नहीं देंगे तो लगता है कि हमारे वर्तमान के आंगन में मध्य युग की बर्बरता उग आई है.
पाकिस्तान भारत का एक कड़वा यथार्थ है. भारत के सपनों में 73 साल पहले एक खूनी खंजर चुभोने वाला. लेकिन क्या उसी पाकिस्तान का प्रलाप हर चुनाव में भारत के राजनेताओं का सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए. और इससे भी बढ़कर यह सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान से टक्कर लेने के चक्कर में हम भी पाकिस्तान हो जाएंगे. विभाजन की त्रासदी यह थी कि देश अलग हुआ और उससे ज्यादा लहूलुहान हुआ. लेकिन भारत की सनातन परंपरा और धर्मनिरपेक्षता के मूल्य उसमें भी बंधे हुए थे जब मुसलमानों के एक बड़े तबके ने जिन्ना के पाकिस्तान में नहीं, गांधी के हिंदुस्तान में रहने का फैसला किया. एक गुलाम और गरीब मुल्क अपना मुस्तकबिल तभी संवार पाता है, जब उस देश के निवासी मिलकर काम करते हैं. भारत ने यह काम किया.
तभी इस देश में अगर नेहरू-पटेल एक नए समाज का निर्माण कर रहे थे तो उसमें एक बड़ी भागीदारी किसी मौलाना अबुल कलाम आजाद का भी थी और किसी सरदार बलदेव सिंह का भी. विज्ञान की दुनिया में कोई विक्रम साराभाई और कोई होमी जहांगीर भाभा थे तो कोई राजा रमन्ना भी आए और कोई एपीजे अब्दुल कलाम भी. सिनेमा में कोई राजकपूर और देवानंद आए तो उनके साथ ही कोई दिलीप कुमार भी. लेकिन देश की यह सामूहिक चेतना आज विद्वेष और घृणा की लपटों में झुलस रही है. इस घृणा से इस देश को गांधित्व ही निकाल सकता है. गांधी के वे मूल्य जिनका आदर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी करते हैं, विपक्ष के नेता भी और हमारे आप जैसे साधारण लोग भी. लेकिन गांधी के रास्ते से यह देश फिसलता दिख रहा है.
देश कोई जमीन का टुकड़ा भर नहीं होता. देश जीवित लोगों का समुच्चय भी होता है लेकिन उस समुच्चय में दरार पड़ जाए तो हम सबको यह मानना चाहिए कि हम अपने संसदीय लोकतंत्र के सबसे खतरनाक मोड़ पर खड़े हैं. दिल्ली का चुनाव हमारा लिटमस टेस्ट है कि हमारे भविष्य का रास्ता हमें किधर ले जाएगा.
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