इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानि लोकतंत्र की रक्षक
जब पूरा संसार आधुनिकीकरण की राह पर आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से पुरानी प्रणालियां व तौर-तरीके भी पीछे छूट जाते हैं. जब मतदानपेटी लूट ली जाती थी क्या तब सही तरह से इलेक्शन होता था?
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जब से इस साल के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम आए हैं और बीजेपी को प्रचंड बहुमत मिला उसके बाद से ही विपक्षी दलों ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों यानि ईवीएम को लेकर सवाल उठाने शुरू कर दिए हैं. इनका कहना है कि इलेक्ट्रिक वोटिंग मशीन में छेड़छाड़ कर बीजेपी को फायदा पहुँचाया गया है. और दिन प्रतिदिन इसके विरोध में विपक्षी पार्टियों की संख्या में बढ़ोतरी ही होते जा रही है. यहां तक कि कांग्रेस के नेतृत्व में तेरह विपक्षी पार्टियां राष्ट्रपति प्रणब मुख़र्जी से मिलकर इसकी शिकायत भी कर चुकी हैं. विपक्षी पार्टियों का कहना है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से इनका विश्वास उठ गया है और इसके बदले पुरानी बैलट पेपर प्रणाली का ही इस्तेमाल करना चाहिए.
लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये कि जब तक ये पार्टियां चुनावों में जीत हासिल कर रहे थे तब तक इन्हे इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में कुछ खामियां नज़र क्यों नहीं आई? सबसे पहले उत्तर प्रदेश में बुरी तरह से हार का मुँह देखने वाली मायावती उसके बाद समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, इसके बाद उत्तराखंड में अपनी हार का मुंह देखने वाले हरीश रावत ने तथा पंजाब में प्रत्याशित सफलता प्राप्त न कर पाने वाले आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल ने भी मायावती के सुर से अपना सुर मिलाते हुए ईवीएम की विश्वसनीयता पर उंगली उठाई. साफ़ तौर पर यह कहा जा सकता है कि चूंकि इन चारों ही नेताओं की पार्टियों ने अपने-अपने राज्यों में पराजय का मुंह देखा इसलिए इन्हें ईवीएम द्वारा की गई चुनावी प्रक्रिया अविश्वसनीय नजर आ रही है.
ईवीएम पर जो लोग सवाल उठा रहे हैं क्या उन्हें मतदानपेटी का इतिहास याद नहीं?जब पूरा संसार आधुनिकीकरण की राह पर आगे बढ़ते हैं तो निश्चित रूप से पुरानी प्रणालियां व तौर-तरीके भी पीछे छूट जाते हैं. वक्त और जरूरत के अनुसार हम अपने आप को भी ढालते हैं और बैलेट पेपर व बैलेट बॉक्स को त्याग कर ईवीएम की ओर बढना भी इसी का एक उदाहरण है.
बैलेट पेपर या चुनाव का अंधकार युग?
सत्तर और अस्सी के दशक में देश में बूथ कैप्चरिंग का बोलबाला था. हमारे नेतागण बाहुबलियों को संरक्षण देते थे और उसके बदले वो चुनावों में अपने चहेते नेताओं के लिए हर गैरकानूनी कदम उठाते थे. वे मुहल्ले में वोटिंग से पहले जाकर बोल आते थे तुम वोट डालने नहीं जाना तुम्हारा वोट पड़ जाएगा. सचमुच पड़ भी जाता था क्योंकि वो लोग बूथ में घुसकर मतपत्रों पर ठप्पा लगा-लगा कर पतपेटियों में भर देते थे. बाहुबली मतपेटियां लेकर भाग जाते थे. दलितों, कमज़ोर वर्गों के लोगों को वोट नहीं डालने दिया जाता था या जब वे वोट डाल देते थे तो ताकतवर लोग या तो मतपेटियों में तेज़ाब, स्याही या पानी डाल देते थे या फिर उन्हें ले भागते थे.
कुछ समय के बाद हालात बदल गए. जब बाहुबलियों को लगने लगा कि वो खुद भी राजनीति में आ सकते हैं तो उन्होंने खुद ही चुनाव लड़ना आरम्भ कर दिया. इस तरह से राजनीति में अपराधियों का बोल बाला हो गया. और ये सब किसी से छुपा नहीं है कि किस तरह भारतीय संसद और विधानसभाओं में इनकी संख्या लगातार बढ़ती गई थी.
इस बात से किसी को शक नहीं होना चाहिए कि कैसे ईवीएम ने भारत में चुनाव प्रक्रिया को काफी सहज और सटीक बनाया है. मतदान और मतगणना की प्रक्रिया में तेजी लाई और बूथ कैप्चरिंग, फर्जी मतदान, हिंसा आदि पर अंकुश लगा दिया.
हालाँकि, ये भी चुनाव आयोग और सरकार का फ़र्ज़ और दायित्व है कि वो ये सुनिश्चित करे कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के साथ किसी तरह की हेराफेरी नहीं की गई है क्योंकि लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया में जनता का विश्वास होना जरूरी है. हमे लगता है कि आवश्यकता इस बात की नहीं है कि ईवीएम मशीनों का प्रयोग रोका जाए बल्कि आवश्यकता इस बात की है कि इसमें और जहां तक गुंजाईश हो सुधार किया जाना चाहिए.
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