Faiz: हिंदू विरोध 'अल्लाह' के जिक्र से तो इस्लामी एतराज 'अन-अल-हक़' से
Pakistan के शायर Faiz Ahmed Faiz की नज़्म 'हम देखेंगे' चर्चा में है. पाकिस्तान के लिए लिखी गई इस नज्म का इस्तेमाल हिंदुस्तान में CAA का विरोध करने वालों ने किया है ऐसे में इसपर हिंदू मुस्लिम की राजनीति होना स्वाभाविक है.
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'Faiz Ahmed Faiz Hum Dekhenge' लिखे जाने के करीब 41 सालों बाद फैज़ की नज्म 'हम देखेंगे' सुर्ख़ियों में है. कारण बना है उसका CAA protest में इस्तेमाल होना और ये कहकर देखा जाना कि ये 'एंटी हिंदू' है. नज्म को लेकर शिकायत हुई है. अब नज्म आईआईटी कानपुर (IIT Kanpur) की एक कमेटी की नजरों से गुजर ने वाली है. कमेटी के सदस्य देखकर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार (Yogi Adityanath) को बताएंगे कि जो फैज़ ने पाकिस्तान के लिए देखा था, क्या वो भारत में देखे जाना सही है या नहीं.
फैसला क्या होगा वक़्त बताएगा मगर कई सवाल हैं जो इस मामले के बाद खुद न खुद जहन में दौड़ रहे हैं.
फैज़ की नज़्म सुर्खियों में है मगर हमें ये समझना होगा कि इसपर विरोध आखिर क्यों हो रहा है
फैज ने नज्म क्यों लिखी:
फैज़ का शुमार जुल्फीकार अली भुट्टो के करीबियों में था. भुट्टो जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बने तो फैज़जोकि लंदन में रह रहे थे उन्हें वहां से वापस पाकिस्तान लाया गया. पाकिस्तान में फैज, भुट्टो की बदौलत कल्चरल एडवाइज़र बने. 1977 आते आते मुल्क के हालात बद से बदतर हुए और तख्ता पलट हुआ जिससे फैज़ बहुत आहत हुए. उन्हें जिया उल हक की ये तानाशाही बिलकुल भी रास नहीं आई. फैज़ को दुःख इस बात का था कि इस तख्ता पलट के कारण भुट्टो को फांसी हुई. 1979 में उन्होंने जिया उल हक को चुनौती देती हुई नज्म लिखी- 'हम देखेंगे'.
पाकिस्तानी मूल के शायर भूल गए कि हिंदुस्तान में बुत-परस्तों को कैसा लगेगा:
कहते हैं कवि या शायर की डिक्शनरी में किंतु परंतु नहीं होता. वो देखता ही नहीं है. देखना पसंद ही नहीं करता. फैज़ के साथ भी ऐसा ही था. उन्होंने जिया उल हक के विरोध में नज़्म लिखी हम देखेंगे और इसी नज्म में लिखा कि 'जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएंगे.हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे.
ध्यान रहे कि फैज़ ने ये बातें पाकिस्तान और जिला उल हक के लिए लिखी लेकिन क्योंकि ये क्रांति की नज्म थी. सत्ता को प्रबह्वित और परिवर्तित करने वाली नज़्म थी इसका इस्तेमाल हालिया CAA विरोध प्रदर्शनों में प्रचुर मात्रा में किया गया. विरोध को आईआईटी कानपुर का भी समर्थन मिला और हिंदुस्तान में बदलाव आए इसलिए उसे आईआईटी में पढ़ा गया.
कैम्पस में वो वर्ग जो CAA का समर्थन कर रहा था इसमें इस्तेमाल हुए शब्द 'काबा और बुत' को पकड़ लिया. शायद उसे लगा हो कि इस नज़्म के जरिये बुत परस्तों को हटाने की बात हो रही है और इसका इस्तेमाल हिंदुओं के खिलाफ किया गया है. बाकी बात बस इतनी है कि पाकिस्तान की तुलना अरब से करने वाले फैज़ ने शायद ही कभी ये सोचा हो कि पाकिस्तान के राजनीतिक हालात के मद्देनजर लिखी गई ये नज़्म ' हम देखेंगे' उस देश में आएगी जहां बुत परस्त रहते हैं और जो उनकी भावना को आहत कर देगी.
क्या कहा था फैज़ ने
बात समझने के लिए हम इसी कविता की उन पंक्तियों को देख सकते हैं जिनमें फैज़ ने कहा है कि-
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
काबे और बुत के बाद कोई भी जब उपरोक्त पंक्तियों को देखेगा तो कहेगा कि फैज़ ने अपनी पक्तियों क जरिये मुस्लिम कार्ड खेला है और हिंदू विरोध में मुसलमानों को बरगलाने का काम किया है. बात एकदम स्पष्ट है भले ही अपनी नज्म में फैज़ का मकसद पाकिस्तान में इंकलाब लाना रहा हो मगर जब ये भारत आई और CAA के विरोध में आईआईटी कानपुर में पढ़ी गई तो नज़्म को मुद्दा बनाकर हिंदू मुस्लिम की राजनीति को आंच देना स्वाभाविक था. इस पूरी नज्म का इंटरप्रिटेशन कुछ ऐसे कर दिया गया है कि ये देश के हिंदू इसे अपने खिलाफ देख रहे हैं.
फैज़ द्वारा इस्तेमाल रूपकों में कुछ तो इस्लाम के खिलाफ भी है
चाहे कविता गढ़ना हो या फिर शेर लिखना कई या शायर के लिए रूपक एक प्रॉपर्टी की तरह होते हैं.कवि और शायर आपनी बात को आधार या फिर वजन देने के लिए इसका जमकर इस्तेमाल करते हैं. फैज़ ने भी कुछ ऐसा ही किया. लेकिन फैज़ ये भूल गए कि उनके रूपक ठेठ इस्लामिक हैं. फैज़ को नहीं पता था कि CAA के विरोध में आए लोगों के अलावा वो लोग भी इसे देखेंगे जो CAA के समर्थन में हैं और अपने को सिद्ध करने के लिए जिन्होंने पूरे मामले को हिंदू मुस्लिम की भेंट चढ़ा दिया है. फैज की नज्म में 'बस नाम रहेगा अल्लाह का' पर नाराज होने वाले लोगों को यह भी जान लेना चाहिए कि उसी नज्म में एक जगह लिखा है- 'उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा'. यदि इस्लाम के नजरिए से देखें तो 'अन-अल-हक' सबसे आपत्तिजनक बात है. जिसका अर्थ है कि 'मैं ही सर्वस्व', जो कि अल्लाह की अथॉरिटी को चैलेंज करता है. जिया उल हक ने इसी शब्द को देखकर फैज की यह नज्म पाकिस्तान में बैन कर दी थी.
क्या है पूरी नज़्म
बात अगर इस पूरी नज्म की हो तो 1979 में लिखी गई इस नज़्म में फैज़ ने कहा है कि
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महक़ूमों के पांव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
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