गणतंत्र पुराण का किसान कांड...
Right To Protest के नाम पर जिस तरह किसान ने देश की राजधानी दिल्ली में उग्र प्रदर्शन किया और लाल किले पर नियम कानूनों की धज्जियां उड़ाई उससे संविधान और लोकतंत्र दोनों ही बुरी तरह से शर्मिंदा हुए हैं.
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सब एक हो गए. पर ये न देख सके कि टूट रहा है देश का गौरव. और लोकतंत्र ये एकता किस काम की?
सब समझे कि जीत रहे हैं. पर ये न देख पाए कि हार रहा है देश और हार रही है लोगों को राइट टू प्रोटेस्ट देने वाली संविधान की मूल भावना. ये जीत किस काम की?
खंभे पर तो बहुत ऊंचा चढ़ गए, पर ये न देख सके कि गिर रही है लाल किले की शान. देश का मान. ये ऊंचाई किस काम की?
चींटी पैर के नीचे आ जाए तो माफी मांगता है किसान तो दिल्ली में ट्रैक्टर परेड की इजाजत लेकर पुलिस को कुचलने की कोशिश करने वाले क्या किसान थे?
देश की मिट्टी पूजता है भारत का किसान तो गणतंत्र को बंधक बनाकर मर्यादा को मटियामेट करने वाले क्या किसान थे?
विरोध के नामपर लाल किले पर उससे लोकतंत्र शर्मसार हुआ है
सवालों से आगे सवाल और भी हैं खैर...देश में संविधान सर्वोच्च है. और जो सुप्रीम कोर्ट इस संविधान का रक्षक है सवालों से वो भी नहीं बच पाया है. देश ने ऐसे भी मौके देखे हैं जब सुप्रीम कोर्ट को लेफ्ट या राइट या किसी धर्म विशेष का हिमायती साबित करने की कोशिश की गई. बेशक ये सब दबे-ढंके, पॉलिटिकली और लीगली करेक्ट रहने की कोशिशों के साथ किया गया, लेकिन किसान प्रिविलेज्ड है. वो हर सवाल से ऊपर है. आप किसान पर सवाल नहीं उठा सकते. उससे सवाल नहीं पूछ सकते. इसकी जुर्रत की तो जात-बाहर कर दिए जाएंगे, क्योंकि किसान ‘अन्नदाता’ अर्थात् भगवान हैंऔर भगवान से सवाल नहीं पूछे जाते.
पहले किसान चाहे जो भी, जैसा भी हो, पर कम से कम किसान तो रहता ही रहता था. इनका हाल बदला कांग्रेस के राज में आई भुखमरी से. उस दौर में शास्त्री ने जयकारा लगाकर किसानों को जवानों के साथ खड़ा कर दिया. लंबाई में छोटे लेकिन कद में बड़े शास्त्री के नारे को सबने जुबान पर चढ़ाया. दिल में बसाया. यहां तक ठीक था. लेकिन हद तो तब हो गई, जब कलेंडर के पलटते पन्नों के बीच वोट की मजबूरी में नेताओं ने किसान को सीधा ‘अन्नदाता’ बना दिया.
बस यहीं से खेल बदल गया. बस यहीं से शेष समाज से किसान का रिश्ता बदल गया. क्योंकि अब कंधे से हल उतारकर ट्रैक्टर पर बैठा किसान एक विचित्र की अकड़ के साथ अपने भगवान होने का मोल खोजता है. वो ‘अन्नदाता’ के श्रद्धा से परिपूर्ण उपनाम को कोड़े की तरह इस्तेमाल करता है. कहता है कि हमारी नहीं सुनी तो अपने औघड़पने के एक मंत्र से तुम्हारा सारा तेज हर लेंगे.
इस देश में किसान अनाज उगाता बेशक है, पर क्या किसी को मुफ्त में देता है? हम तो दाम अदा करते हैं. और हम जो टैक्स देते हैं, उससे किसानों के हजारों करोड़ के कर्जे माफ किए जाते हैं. हमारे ही टैक्स के पैसे से उसे सब्सिडी मिलती है. हमारे ही टैक्स के पैसे से उसे हर महीने 6 हजार रुपये दिए जाते हैं, फिर हमारे लिए वो अन्नदाता कैसे हुआ?
अब अगर किसान ये कहे कि उसे नुकसान हो रहा है, फिर भी वो देश का पेट भरता है, तो भैया किसने कहा है तुम्हें घाटे का धंधा करने को. तुम कोई फायदे का काम कर लो, जिसे भूख लगेगी वो अनाज उगा लेगा. तुम काहे ज़हर का घूंट पीकर खुद को नीलकंठ साबित करने पर अड़े हो. लेकिन अकड़ है सो है. लाल किले की प्राचीर पर धर्म और संगठन का झंडा फहराने, तलवार लहराने के बाद ये अकड़ और बढ़ गई है. किसान नेता अपनी बातों में इस अकड़ की खूब नुमाइश कर रहे हैं.
अपनी बातें मनवाने के लिए किसानों का ट्रैक्टर परेड पहली बार भारत में ही हुआ हो, ऐसा नहीं है। 2015 में फ्रांस में किसानों ने 1000 ट्रैक्टर के साथ मार्च किया. फिर 2019 में नीदरलैंड्स के किसान अपनी मांगों के साथ राजधानी हेग पहुंच गए थे. साल 2020 में आयरलैंड में किसानों ने ट्रैक्टर से डबलिन शहर की घेराबंदी की थी. फर्क बस इतना है कि दूसरे देशों में हुए ट्रैक्टर परेड में किसानों ने हिंसा का सहारा नहीं लिया.
भारत में किसान ये भूल गए कि तिरंगे की अपनी जगह होती है, ट्रैक्टर की अपनी ज़मीन और विरोध प्रदर्शन की अपनी मर्यादा. इसी भूल के चलते 72वें गणतंत्र दिवस ने आंदोलन की प्राचीर से आस्था का कलश गिरकर टूटते देखा. संविधान से मिली शक्तियों की मर्यादा का बलात्कार होते देखा. हिंदुस्तान के इस कैपिटल हिल मोमेंट की तस्वीरें दिखाकर विरोधी हमारे लोकतंत्र पर कटाक्ष करते रहेंगे. हम ये दुबारा नहीं देखना चाहते. आप भी यही चाहते होंगे.
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