कश्मीर में सुरक्षित कौन है?
कश्मीर का ये सफर अगर सच कहूं तो मेरे लिए ये इतिहास दोहराने जैसा था. 30 साल पहले जिस असुरक्षा की भावना से कश्मीरी पंडित गुजर रहे थे, अब वही हालत वहां के मुसलमानों की है.
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लगभग आठ महीने से ज्यादा के अंतराल के बाद 70वें स्वतंत्रता दिवस पर मैं कश्मीर गयी थी. इन महीनों में कश्मीर बहुत बदल चुका था. और मुझे जो बदलाव महसूस हुआ उसमें कुछ नतीजे तो उत्साहजनक थे, लेकिन कुछ परेशान करने वाले भी थे. श्रीनगर एयरपोर्ट से निकलते ही जिस बात का आभास मुझे सबसे पहले हुआ वो था कश्मीरियों के अंदर असुरक्षा की भावना का घर कर जाना. थोड़ा अपने बिजनेस के लिए तो थोड़ा अपनी जिंदगी के लिए भी. और मेरी यात्रा खत्म होते-होते ये एहसास और गहरा हो गया.
सच कहूं तो मेरे लिए ये सब इतिहास दोहराने जैसा था. अगर मुझे अपने मन की बात बोलने के लिए सूली पर न चढ़ा दिया जाए तो मैं कहना चाहूंगी कि 30 साल पहले जिस असुरक्षा की भावना से कश्मीरी पंडित गुजर रहे थे ये ठीक वैसा ही फीलिंग है. फर्क बस इतना है कि इस बार घाटी के मुस्लिम इस डर और असुरक्षा के घेरे में हैं. जीवन का खतरा, संपत्ति और घर-बार उजड़ जाने का खतरा अंदर ही अंदर कश्मीर के मुसलमानों को खाए जा रहा है.
कल क्या होगा?
लेकिन जो बात सबसे ज्यादा हिला देने वाली होती है वो है स्थानीय लोगों में अपने भविष्य को लेकर गहरे तक बैठी असुरक्षा की भावना. बैंक में काम करने वाले मेरे पड़ोसी के दो बेटे हैं. वो कहते हैं- 'मैंने सोच था कि अपने बच्चों को मैं इस सारे पागलपन से दूर रखूंगा और स्कूल खत्म होने के बाद उन्हें कश्मीर से बाहर भेज दूंगा. अखंड भारत के प्रति मेरा ये भरोसा था. लेकिन देश के बाकि हिस्सों में मुसलमानों को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है उससे मैं हताश हो गया हूं. अगर देश के बाकी हिस्सों में उन्हें मुस्लिम होने के कारण टारगेट किया जाएगा तो उनका भविष्य खत्म है. मैं अब उन्हें कहां भेजूं?'
किसी अभिभावक की इस हताशा को साफ समझा जा सकता है. लेकिन हर कहानी के दो पहलू होते हैं. यहां भी है. जब कोई कश्मीरी लड़का हैदराबाद में एक सिनेमा हॉल में राष्ट्र गान के लिए खड़ा होने से मना करता है और मीडिया में सुर्खियां बटोरता है. तो दरअसल वो किसी मुद्दे का समर्थन नहीं करता बल्कि खुद ही खुद को समाज से और अलग-थलग कर लेता है. ये ठीक वैसा ही घातक है जैसा हिंदू कट्टरपंथियों द्वारा लींचिंग की घटना को अंजाम देना. ये याद रखना चाहिए कि ताली हमेशा दोनों हाथों से ही बजती है.
किसी भी कश्मीरी मुस्लिम के अंदर बैठे डर का कारण सिर्फ समाज और संस्कृति से दूराव नहीं होता. अनुच्छेद 35ए को लेकर हो रहे सारे हंगामें के बीच कई ऐसी चीजें हैं जिन्हें समझने की जरुरत है.
व्यापारियों के अंदर भी डर बैठा हुआ है. रेसीडेंसी रोड के पास के पोलो वियू और लाल चौक पर स्थित दुकानदारों के चेहरे निराशा और उदासी से काले पड़ गए हैं. सालों से कई व्यापार और बिजनेस समितियों की अध्यक्षता करने वाले एक महाशय का कहना है- 'सरकार द्वारा अनुच्छेद 35ए की समीक्षा के बाद हो सकता है हमें अपना कारोबार बाहरी लोगों को बेचना पड़े. कश्मीर की अर्थव्यवस्था खोखली होती जा रही है. किसी भी कश्मीरी व्यापारी के पास अब पैसे नहीं बचे हैं, साथ ही कश्मीर पर्यटन की हालत भी खास्ता होती जा रही है. हमारे लिए नए मौके भी नहीं खुल रहे हैं.'
कई कारोबारी मजदूरों को सिर्फ 15 दिन की सैलरी दे रहे हैं क्योंकि घाटी के अधिकतर कामगर या तो नाकारा हैं या फिर खाली बैठे हैं.
इंडिया टुडे द्वारा किए गए स्टिंग ऑपरेशन में घाटी में आतंकी संगठनों द्वारा पैसे पहुंचाए जाने का खुलासा हुआ था. इस मामले में हुर्रियत कांफ्रेस के गठजोड़ की बात भी सामने आई थी. लेकिन इस खुलासे के बाद से लोगों में अजीब तरह की खामोशी है. हर कोई इस मुद्दे पर बड़ी ही सतर्कता के साथ अपनी बात कहता है. ज्यादातर लोग जांच के बाद आने वाले रिजल्ट का इंतजार कर रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि आतंकवादियों द्वारा पैसे मुहैया कराने के मामले पर जानकारी के बाहर आने से लोग गुस्सा हैं. स्थानीय मीडिया जो सड़क पर चल रहे आखिरी इंसान तक अपनी पहुंच रखता है. वो भी स्थानीय लोगों के हित में जानकारियों को अपने हिसाब से काट-छांट रहा है. पूरे खुलासे को स्थानीय नेताओं को बदनाम करने की साजिश के तौर पर पेश किया जा रहा है. इसके लिए सच्चाई छुपाई जा रही है.
पीएम क्या भरोसा दिला सकते हैं?
जाहिर है कश्मीर में ताश के पत्तों की तरह आतंकवादियों के गिराए जाने को हर कोई महसूस करेगा. इस बारे में लोगों की मिलजुली प्रतिक्रिया भी है. स्थानीय लोगों को लगता है कि आतंकवादियों का सफाया करना और आतंकवाद को खत्म करना दोनों अलग हैं. उन्हें डर है कि आतंकियों की नई खेप ज्यादा घातक होगी. जाहिर सी बात है कि उनके सतर्क रहने के पीछे कई कारण हैं. जब कोई स्थानीय हिजबुल मुजाहिदीन आतंकवादी किसी दूसरे स्थानीय निवासी की हत्या कर देता है तो ये बुरी खबर ही होती है. पिछले 24 घंटे में तीन स्थानीय निवासियों की हत्या होना लोगों की शांति का कारण बयान करता है.
साफ शब्दों में कहें तो चिंता के कई कारण हैं. क्या मोदी सरकार इस बात का आश्वासन दे सकती है कि आतंकियों के इस खेप के खात्मे के बाद नई पौध जन्म नहीं लेगी? क्या दिल्ली की कार्यप्रणाली हमेशा आक्रमक ही होगी? क्या दिल्ली की सरकार लोगों को ये भरोसा दिलाएगी की सबकुछ खत्म नहीं हो गया है?
मोदी सरकार से इससे कहीं ज्यादा उम्मीदें हैं. यही कारण है कि जब स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से पीएम मोदी की आवाज पूरे देश में गूंज रही थी तो घाटी के ज़ाबरवान में लोगों के कान भी उनसे अपनी सलामती की बात सुनने को तरस रहे थे. जब मोदी जी ने कश्मीर की बात छेड़ी और कहा कि- 'कश्मीर मुद्दे का हल गोलियों और गालियों से नहीं निकल सकता. बल्कि इसका हल तो कश्मीरियों को गले लगाकर होगा. और हम इसी सोच के साथ समस्या के समाधान के लिए आगे बढ़ रहे हैं.' मुझे यकीन है कि कश्मीर की जनता के कान में ये किसी सुरीले गाने की तरह बजा होगा.
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