मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है इंदिरा गांधी को भूल जाना
इंदिरा ने मुल्क़ तो टूटने से बचा लिया मगर खुद के लिए तनिक भी फिक्रमन्द नहीं थीं. उनमे नफ़रत भी नहीं थी. अगर होती तो उनके अंगरक्षक कब के बदल जाते. इंदिरा के दामन में जो भी दाग़ हैं. उन दागों में कहीं साम्प्रदायिकता नहीं है.
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तेरह साल की मामूली सी उम्र में इंदिरा गांधी ने "बाल चरखा संघ" बनाया. दिल्ली में '47 के दंगो में वो कूद पड़ीं. गांधी के कहने पर दंगों में लोगों की ख़िदमत करना अपना मकसद बना लिया. किसी की बुराई करते करते हम इतने बुरे हो जाते हैं की उसकी अच्छाइयों को भी नज़रअंदाज़ कर जाते हैं - और ऐसा हमसे कई बार होता है.
इंदिरा गांधी ने सारी ज़िन्दगी काम किया. ताउम्र मुल्क़ के लिए जिया. एक के बाद एक भारत के बाहर अपने कदम बढ़ाए. इंदिरा के कदमो से दूसरे मुल्कों में भारत की धाक पहुंची.
पति फिरोज गांधी के साथ इंदिरा गांधी |
अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, बर्मा, चीन, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में वो पहुंचीं. उन्होंने फ्रांस, जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य, जर्मनी के संघीय गणराज्य, गुयाना, हंगरी, ईरान, इराक और इटली जैसे देशों का आधिकारिक दौरा किया. अल्जीरिया, अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, ब्राजील, बुल्गारिया, कनाडा, चिली, चेकोस्लोवाकिया, बोलीविया और मिस्र जैसे बहुत से देशों का रुख किया. वह इंडोनेशिया, जापान, जमैका, केन्या, मलेशिया, मॉरीशस, मेक्सिको, नीदरलैंड्स, न्यूजीलैंड, नाइजीरिया, ओमान, पोलैंड, रोमानिया, सिंगापुर, स्विट्जरलैंड, सीरिया, स्वीडन, तंजानिया, थाईलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो, संयुक्त अरब अमीरात, ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ, उरुग्वे, वेनेजुएला, यूगोस्लाविया, जाम्बिया और जिम्बाब्वे जैसे कई यूरोपीय अमेरिकी और एशियाई देशों के दौरे पर गई।उन्होंने संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में भी अपने कदम रखे - और जमाये भी.
यह गिनती सिर्फ इसलिए है कि उस वक़्त वो कितनी तेज़ी से कदम बढ़ा रही थीं. मुल्क़ के लिए जी रही थीं. कुछ कदम गलत हो सकते हैं. उसकी सज़ा उनकी ही ज़िन्दगी में उन्हें मिल गई. कुछ को लगा यह सज़ा कम है तो उनकी ज़िन्दगी ही उनसे छीन ली गई. यह नेहरू परिवार की पहली शहादत थी या कहें शहादत की नींव थी.
इंदिरा को अपने हर कदम का बखूबी अंदाज़ा था. इंदिरा ने मुल्क़ तो टूटने से बचा लिया मगर खुद को बचाने को तनिक भी फिक्रमन्द नहीं थीं. उनमे नफ़रत भी नहीं थी. नफ़रत अगर होती तो उनके अंगरक्षक कब के बदल जाते. इंदिरा के दामन में जो भी दाग़ हैं. उन दागों में कहीं साम्प्रदायिकता नहीं है. कहीं पर नफ़रत नहीं है. इंदिरा इन सब चीज़ों से आज़ाद थीं. इंदिरा के व्यक्तित्व पर लगातार ऊंगली उठी, तो सराहना भी हुई. लिखने को बहुत कुछ है मगर इतनी यादों में सब टुकड़ों टुकड़ों में बिखर रहा है. एक साथ सब लिख नही पा रहा.
आज उनकी शहादत के मौके पर हम उनकी मेहनत, जज़्बे, मोहब्बत और पूरी समर्पित ज़िन्दगी को सलाम करते हैं. देश की सबसे सशक्त, निडर, प्रधानमंत्री इंदिरा की बहुमुखी प्रतिभाओं और पूरी ज़िन्दगी मुल्क़ के लिए लगा देने को दिल से सलाम.
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