ताजमहल की ये हकीकत आपको उससे नफरत करने पर मजबूर कर देगी !
हर महल और हर शाही शौक की निशानी को देखकर याद रखना चाहिए कि राजा-महाराजाओं और बादशाहों के दौर गौरवशाली नहीं बल्कि हमारे इतिहास का सबसे काला वक्त था.
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जी हां, ताजमहल कलंक है. भारत के इतिहास का कलंक. लेकिन इसलिए नहीं कि उसे किसी खास धर्म के लोगों ने बनवाया. इसलिए भी नहीं कि इतिहास में ताज महल के उद्भव की कहानी किसी संस्कृत ग्रंथ से नहीं निकली. बल्कि इसलिए क्योंकि ये मानव इतिहास की क्रूरता और मजदूरों के शोषण का सबसे घटिया उदाहरण है. इसमें एक बादशाह के हवस की कहानी है. वो अपने हवस को प्यार का नाम देता है. उस बेगम के लिए हवस जो दर्जनों बच्चे पैदा करते-करते दुर्बल हो जाती है. जिसकी मौत एनीमिया से होती है. लेकिन बादशाह को उसकी परवाह नहीं होती उसे उसका जिस्म पसंद था.
ये निशानी है, कुस्तुनतुनिया से लेकर भारत के दूर-दूर के हिस्सों से जमा किए गए गुलामों की. लकड़ी के लट्ठों पर लादकर वो बड़े-बड़े संगमरमर के खंड घसीटते थे. रोग से मर जाते थे पर काम रुकता नहीं था. ये ताजमहल सिर्फ अर्जुमन्द बानू बेगम की समाधि नहीं है. सैकड़ों बेगुनाह मज़दूरों की कब्रगाह है, जिन्हें वहीं कहीं यमुना किनारे दफन कर दिया जाता था. शाम को काम खत्म होने के बाद. ये संगमरमर के ईरानी फूलों का बाग ऐसे ही नहीं बना है. पूरे भारत के लोगों के खून की बूंदें इसमें हैं. अर्जुमन्द बानू बेगम अपनी मौत नहीं मरी थी. उसी बादशाह ने उसे अपनी हवस से मार दिया. तेरह बार मां बनी थी वो. चौहदवीं बार प्रसव में मारी गई. कैसी मोहब्बत थी वो.
ताजमहल प्यार का नहीं एक शहंशाह के हवस का प्रतीक है
हवस को मोहब्बत बना दिया. वामपंथी कहकर खारिज किए जा रहे इतिहासकार भगवत शरण उपाध्याय लिखते हैं कि पूरा देश सिर्फ ताज के लिए काम कर रहा था. किसान ताज के लिए खेत जोत रहा था. बीस बरस तक बीस हज़ार मज़दूर और तीस करोड़ रुपये लगे थे. एक हवस के मारे बादशाह का कैमिकल लोचा दूर करने में. काठिया बाड़, अहमद नगर, पंजाब, ऐसा कौन सा हिस्सा न था जहां से मजदूर उठाकर न लाए गए थे. बीस हज़ार की तादाद कम नहीं होती. मेहनताने में इन्हें सिर्फ पसीना मिलता था. देश के हर रंग के गोरे, गेहुंए, काले मज़दूर चट्टाने घसीटते थे. और घोड़े पर सवार सिपाही अपना कोड़ा फटकारने को तैयार रहते थे.
इतिहास में नारी और आम मज़दूरों के शोषण की इससे घटिया कोई मिसाल हो ही नही सकती. नूरजहां पर 25 लाख खर्च करने वाला और 80 लाख के खर्चे पर गुलाम रखने वाले इस बादशाह ने जब अकाल से दिल्ली की सड़के पट गईं तो कुल डेढ़ लाख की खैरात दी थी.
इसलिए मैं कहता हूं कि ये इतिहास का कलंक है. ये ही नहीं हर किले. हर महल और हर शाही शौक की निशानी की यही कहानी है. इन सब को तोड़ना नहीं चाहिए लेकिन इन्हें देखकर याद रखना चाहिए कि राजा-महाराजाओं और बादशाहों के जिस दौर को हम देश का गौरवशाली समय मानते हैं वो हमारे इतिहास का सबसे काला वक्त था.
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