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Updated: 06 जनवरी, 2022 06:55 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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विधानसभा चुनावों (Assembly Elections 2022) की तारीख काफी नजदीक आ चुकी है. जैसे जैसे तारीख नजदीक आती है, चुनावी रैलियां जोर पकड़ लेती हैं. लेकिन फिलहाल उलटा हो रहा है. चुनावी रैलियां रद्द (Election Rallies Cancelled) होने लगी हैं.

बड़ी वजह तो कोरोना वायरस का ओमिक्रॉन (Omicron) वैरिएंट ही है, लेकिन सभी मामलों में ऐसा ही नहीं हुआ है. कोरोना वायरस का सबसे पहला असर तो समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव की चुनावी रैलियों पर पड़ा. अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव और उनकी बेटी कुछ दिन पहले ही कोरोना पॉजिटिव पाये गये थे.

एक एक करके नजर डालें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फिरोजपुर रैली सुरक्षा में सेंध लगने से हुई बतायी गयी. राहुल गांधी की मोगा रैली उनके विदेश दौरे के चलते रद्द करनी पड़ी.

बरेली में कांग्रेस के मैराथन में मची भगदड़ के बाद प्रियंका गांधी ने ज्यादातर कार्यक्रम कम से कम दो हफ्ते के लिए रद्द कर दिया है. अगर कोई नेता ऐसी चीजों से अब तक बेअसर है तो वो हैं बीएसपी अध्यक्ष मायावती - क्योंकि अभी तक बीएसपी ने चुनावी रैलियों का कार्यक्रम फाइनल ही नहीं किया था.

चुनावी रैलियों पर ओमिक्रॉन का असर

कोविड की दूसरी लहर के चलते जो हाल पश्चिम बंगाल चुनावों के आखिरी दौर में हुआ था, ओमिक्रॉन वैरिएंट के रूप में तीसरी लहर ने इस बार पहले से ही रंग दिखाना शुरू कर दिया है - और नतीजा ये हुआ है कि बड़े नेताओं के तय कार्यक्रम रद्द करने पड़ रहे हैं.

1. योगी का नोएडा दौरा रद्द: यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नोएडा में प्रस्तावित कार्यक्रम रद्द तो कर दिया गया है लेकिन वजह नहीं बतायी गयी है.

योगी आदित्यनाथ नोएडा में मेरठ मंडल के करीब 2000 छात्रों को टैबलेट और स्मार्टफोन देने वाले थे. साथ ही, नोएडा प्राधिकरण के कुछ प्रोजेक्ट और ग्रेटर नोएडा के लिए भी कुछ प्रोजेक्ट का लोकार्पण करने वाले थे.

2. मोदी की लखनऊ रैली रद्द: सूत्रों के हवाले से खबर आयी है कि मौसम विभाग ने लखनऊ में 8-9 जनवरी को बारिश की आशंका जतायी है, ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली रद्द करने का फैसला हुआ है. कहा ये भी जा रहा है कि बारिश के साथ साथ कोरोना के बढ़ते मामलों के चलते भी ऐसा किया गया है.

priyanka gandhi vadra, yogi adityanath, mayawatiचुनाव प्रचार पर होने लगा ओमिक्रॉन का असर

हालांकि, यूपी बीजेपी की तरफ से ये समझाने का प्रयास है कि जब कार्यक्रम तय ही नहीं था तो रद्द होने जैसी बात ही नहीं है. बीजेपी का कहना है कि लखनऊ में 9 जनवरी को प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का प्रस्ताव रखा गया था, लेकिन ये कार्यक्रम फाइनल नहीं हुआ था. वैसे भी यूपी में महीने भर में ही प्रधानमंत्री मोदी की 8 रैलियां हो चुकी हैं.

3. कांग्रेस के ज्यादातर कार्यक्रम टाले गये: कांग्रेस ने तो अगले 15 दिन तक के लिए सभी बड़े कार्यक्रमों को टाल दिया है. ये फैसला कोरोना संक्रमण के बढ़ते खतरे के साथ साथ बरेली में मैराथन दौड़ के दौरान हुई भगदड़ के चलते लिया गया है.

बताते हैं कि रैलियों और शक्ति संवाद जैसे कार्यक्रम तय किये गये थे. वाराणसी, अलीगढ़, गाजियाबाद और आजमगढ़ में मैराथन दौड़ का आयोजन भी किया जाना था. खबरों के अनुसार, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में भी रैलियों और जनसभा की जगह वर्चुअल चुनाव अभियान की रणनीति पर विचार किया जा रहा है.

4. अखिलेश यादव तो पहले से ही परेशान रहे: अयोध्या में समाजवादी पार्टी की विजय रथयात्रा 9 जनवरी को होनी थी, लेकिन अब रद्द हो गयी है. ओमिक्रॉन के चलते ही, अखिलेश यादव की यूपी के गोंडा और बस्ती में सात जनवरी और आठ जनवरी को होने वाली अपनी रैलियां भी रद्द कर दी गयी हैं.

5. मायावती का प्लान क्या है: मायावती ने लखनऊ में ब्राह्मण सम्मेलन के समापन के अलावा कोई कार्यक्रम नहीं किया है - और उसके बाद भी कोई रैली अब तक नहीं हुई. जब रैली का प्रोग्राम ही नहीं बना तो रद्द क्या करना. मायावती काफी दिनों से अपनी वर्क फ्रॉम होम पॉलिटिक्स को लेकर निशाने पर रही हैं.

मीडिया से बातचीत में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा कह रही थीं, 'अगर आप बीते दो साल को देखें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को छोड़कर कोई भी पार्टी नहीं है जिसने प्रदर्शन किया हो, धरना दिया हो... मैं समझ नहीं पा रही हूं कि मायावती जी इतनी चुप क्यों हैं?'

'जन विश्वास यात्रा' के दौरान अमित शाह का भी कहना रहा कि मायावती डरी हुई हैं. अमित शाह बोले, 'बहनजी की तो अभी ठंड ही नहीं उड़ी है... ये भयभीत हैं. बहनजी चुनाव आ गया है, थोड़ा बाहर निकलिए... बाद में ये न कहना कि मैंने प्रचार नहीं किया था.'

मायावती ने कहा है, 'चाहे विरोधी पार्टियां कितना भी कटाक्ष करें... मीडिया भी उल्टा-सीधा लिखे... चुनाव की तैयारी को लेकर हमारी अलग कार्यशैली और तौर-तरीके हैं... हम बदलना नहीं चाहते.'

मायावती की दलील है कि अगर वो भी बाकियों की तरह धुआंधार चुनावी रैली करने लगें तो उनके लोग चुनाव के समय आर्थिक बोझ नहीं उठा पाएंगे. कहती हैं, 'क्योंकि हमारी पार्टी गरीबों मजलूमों की पार्टी है, न कि पूंजीपतियों या धन्नासेठों की.'

रैलियां वर्चुअल और वोटिंग ऑनलाइन संभव है क्या?

इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस शेखर कुमार यादव ने चुनाव आयोग को सलाह ही दी थी, उत्तराखंड हाई कोर्ट ने तो नोटिस भेज डाला है. चुनाव आयोग को हाई कोर्ट की तरफ से 12 जनवरी तक जवाब दाखिल करने की मोहतल दी गयी है.

ओमिक्रॉन और कोरोना केस बढ़ने पर चुनावी रैलियों को स्थगित किये जाने की मांग के साथ उत्तराखंड हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की गयी है. सुनवाई के दौरान अदालत ने चुनाव आयोग और केंद्र सरकार से पूछा है कि क्या चुनाव रैलियां वर्चुअल तरीके से और वोटिंग ऑनलाइन हो सकती है?

जैसे बंगाल में आखिरी दौर में हुआ: प्रधानमंत्री मोदी ने भी पश्चिम बंगाल चुनाव के आखिरी दौर में वर्चुअल रैलियां की. जैसे बंगाल में लेफ्ट और तृणमूल कांग्रेस ने बीजेपी से पहले ही वर्चुअल रैलियों का फैसला किया था, यूपी चुनाव में कांग्रेस ने ऐसा ही कदम उठाया है.

ये तो वाजिब सवाल हो सकता है कि प्रत्यक्ष रैली की तरह वर्चुअल रैली कैसी होगी? ये पूछने का आशय रैली के प्रभाव को लेकर हो सकता है. प्रत्यक्ष जनसभाओं में तो नेता सीधे जनता से संवाद करते हैं - और वहां कोई तकनीकी दिक्कत नहीं होती, लेकिन शहरी आबादी को छोड़ दें तो जब मोबाइल की बैटरी चार्ज न हो पा रही हो या फिर नेट की अलग ही समस्या हो तो वर्चुअल माध्यम कितना प्रभावी हो सकता है?

लेकिन मुद्दा ये भी है कि जब चुनावी रैलियों की भीड़ भी वोट में तब्दील नहीं हो पाती हो तो ऐसी बहसों का मतलब भी नहीं रह जाता. सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तो लोगों की जान है बचाना है. इसी साल यूपी में हुए पंचायत चुनाव कराने वाले मतदान कर्मी बड़ी संख्या में कोरोना के शिकार हुए थे. तब तो नौबत ये आ चुकी थी कि कर्मचारी संगठन चुनाव टालने की मांग करने लगे थे क्योंकि कर्मचारी मतदान ड्यूटी को लेकर दहशत में थे.

वैसे वर्चुअल कार्यक्रमों का फायदा समझाने वालों की अलग ही दलील है, विस्तार ज्यादा तो है ही संसाधन भी कम लगता है. बड़े नेता जहां हैं वहीं से आम लोगों को सीधे संबोधित कर सकते हैं. न रैलियों की तरह लोगों को इंतजार नहीं करना पड़ेगा और न ही कहीं कोई लेट लतीफ ही हो सकेगा.

जितना मजबूत आईटी सेल, उतना ही फायदा है: कई साल से ये सवाल उठता रहा है कि सोशल मीडिया की पहुंच कहां तक है - क्या वोटर तक सोशल मीडिया की घुसपैठ हो चुकी है?

सवाल तो अपनी जगह आगे भी कई साल तक बना रहेगा, लेकिन ये राजनीतिक दलों का आईटी सेल ही है जो आम लोगों से 24 घंटे कनेक्ट है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी में ही विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने मंडल स्तर पर करीब दो हजार आईटी सेल के प्रमुख काम कर रहे हैं - और चुनाव तक करीब पौने दो लाख व्हाट्सऐप ग्रुप पर अधिक से अधिक प्रचार सामग्री भेजे जाने की कोशिश है.

यूपी में बीजेपी ने 27 हजार शक्ति केंद्र बनाया हुआ है और हर केंद्र में 6-7 बूथ हैं. बूथ स्तर पर हर रोज 5 से 10 चीजें सोशल मीडिया के जरिये आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी दी गयी है.

यूपी में बीजेपी ने जिला स्तर तक मल्टीपल वर्चुअल कॉन्फ्रेंस के लिए सारे इंतजाम कर लिया है - और ई-रैली के लिए भी खास तरह का सॉफ्टवेयर तैयार किया गया है. ये सब इतना तेज काम करते है कि कई स्तर पर कार्यकर्ताओं को कुछ ही मिनट में जोड़ा जा सकता है.

3. नजर तो चुनाव आयोग की भी रहेगी: बताया तो यही जा रहा है कि चुनाव आयोग भी राजनीतिक दलों के आईटी सेल पर कड़ी नजर रखे हुए है, लेकिन ऐसा करना संभव है क्या?

'तू डाल डाल, मैं पात पात' वाली हालत है. आईटी सेल में अकाउंट और हैंडल सिर्फ वे हैं जो आधिकारिक तौर पर काम करते हैं, बाकी सब के सब वहां काम करने वालों के नाम से निजी तौर पर बनाये जाते हैं. ग्रुप ऐडमिन से लेकर सदस्य तक सभी ऐसे ही होते हैं - चुनाव आयोग चाह कर भी क्या कर सकता है?

फिर तो जिसका आईटी सेल जितना मजबूत होगा, चुनाव तक तो बल्ले बल्ले रहेगी ही - आखिरी बाजी भी तो वही मारेगा.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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